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भारत के राजनयिक और नौकरशाह पड़ोसी देशों में, जाहिर तौर पर पाकिस्तान (Paksitan) को छोड़कर, अपने समकक्षों के साथ कई बार अपने सबकुछ या कुछ नहीं वाले रवैये की वजह से अव्यवस्थित नजर आते हैं. ये श्रीलंका में तमिल राजनीतिज्ञों और यहां तक कि भारत के साथ मैत्रीपूर्ण (India-Sri Lanka Relation) रहने वाले राजनीतिक दलों के मामले में भी सही है, जो किसी भी देश में या किसी भी समय में रहे.
इसकी वजह ढूंढने के लिए दूर नहीं जाना होगा. जाहिर तौर पर अपने छोटे देश होने की मानसिकता से प्रभावित सभी तरह के पड़ोसी हर मोड़ पर भारत के ऊपर बड़े देश होने के अहंकार का आरोप लगाते हैं.
हालांकि इन समस्याओं की और इन पर मिली प्रतिक्रियाओं की तात्कालिकता सालों या दशकों तक जा सकती हैं और वहीं ठहरी रह सकती हैं, जहां से ये शुरू हुई थीं. मछली पकड़ने को लेकर भारत का श्रीलंका के साथ विवाद और नेपाल जैसे छोटे से देश के साथ भारत का सीमा विवाद, ये ऐसे मामले हैं जो महत्वपूर्ण हैं. वहीं पड़ोसी देशों से जो स्टेकहोल्डर्स हैं, वो गलत धारणाओं के जाल में फंसे हुए हैं.
अगर IPKF के शामिल होने को न भी देखा जाए, तो श्रीलंका के नस्लीय मामलों में भारत का शामिल होना, इसे एक परफेक्ट केस स्टडी बनाता है. तब भी और अभी भी तमिल चाहते हैं कि भारत इसमें शामिल रहे, लेकिन सिर्फ एक मुखपत्र के तौर पर इससे ज्यादा कुछ नहीं.
राजपक्षे के नेतृत्व वाली श्रीलंकाई सरकार में देश को काफी मुश्किलें उठानी पड़ीं और इसके लिए सरकार ने कई बाहरी तरीके ढूंढने की कोशिश कि जैसे चीन से मदद लेना. चीन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक व्यवहारिक वीटो पावर भी है जिससे मदद मिली.
ऐसे लोग भी हैं जो ये दावा कर रहे हैं कि भारत ने जो आपातकालीन सहायता दी, वह पहले से तैयार की गई एक शर्त पर दी गई है. और ये शर्त, Trincomalee oil टैंक फार्म्स, समुद्री सुरक्षा और तमिल नॉर्थ में आइलैंड बेस्ड गैर पारंपरिक एनर्जी प्रोजेक्ट्स से जुड़ी है. तमिल प्रवासियों का दावा है कि भारत ने ये सबकुछ राजपक्षे परिवार को बचाने के लिए किया है, जिनके हाथों पर तमिलों का खून लगा है.
नई दिल्ली भी इस आरोप का हिस्सा बनने से बच नहीं सकती. एक बार फिर श्रीलंका एक अच्छी केस स्टडी है. दशकों पहले नस्लीय संकट के समय भारत तेजी से संभाषी नौकरशाहों की तरफ गया जैसे कि दिवंगत जी पार्थसारथी (late G Parthasarathy, Sr).
जब साल 1983 में हुई सामूहिक हत्या के तमिल पीड़ित समुद्र के रास्ते तमिलनाडु में शरण लेने के लिए आने लगे. नई दिल्ली ने ये किया और इसके बाद भी बहुत कुछ किया गया, बिना दोनों ही तरफ देश के नस्लीय बंटवारे की सामाजिक—राजनीतिक वास्तविकता का अध्ययन किए. तब उस सांस्कृतिक बोझ की जटिलताओं को भी नहीं समझा गया जिसने समकालीन समझ को प्रभावित किया.
सांस्थानिक रूप से भारत इसे स्वीकार करने, इसे मानने और समझने के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं था कि ऐसे दूसरी समस्याएं हो सकती हैं जिनके लिए दूसरी तरह के समाधान की जरूरत होगी.
भारत कम से कम तब तक और यहां तक कि अभी भी कभी-कभी श्रीलंका में उन सामाजिक-राजनीतिक अंतर्भावों को लेकर अनजान रहा है, जिसका इतिहास 2000 वर्ष पुराना है.
इतिहास के मुताबिक, जिसे कई बार अनदेखा किया जाता है. एक युवा सिंहला राजा Dutugamunu ने तमिल शासक Ellara को पहले से तय एक द्वंद युद्ध में मार दिया था. ऐसा माना जाता है कि हजारों साल बाद दक्षिण भारतीय शासक राजाराजा चोला ने इसका बदला लिया और LTTE ने चोला के ही टाइगर स्टैंडर्ड को चिन्ह के तौर पर अपनाया. ये हजारों सालों से चला आ रहा है. इन सभी घटनाओं को अपमान या बदले के तौर पर देखा जाता था.
घरेलू मामलों में भारतीय हस्तक्षेप की बात करीब—करीब हर पड़ोसी देश ने अनुभव की है. साल 1971 के बांग्लादेश युद्ध और साल 1975 में सिक्किम के विलय ने दूसरे छोटे देशों को इस नतीजे पर पहुंचा दिया कि वह अगला टार्गेट हो सकते हैं. इसकी कोई वजह नहीं दी गई. राजनीतिक—कूटनीतिक मायनों में भारत के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उसने इस असुरक्षा की भावना को कम करने के लिए तब से अब तक ज्यादा कुछ किया है.
हालांकि ऐसे ज्यादातर विचार अगर पूरी तरह गायब नहीं हुए, तो फीके जरूर पड़ गए हैं. लेकिन इसे लेकर भारत की तरफ से कोई खास प्रयास नहीं किए गए. एक दूसरा मुद्दा भी और ये कि भारत के पास अलग अलग देशों में शासन को लेकर कुछ फेवरेट्स हैं और कुछ प्रतिकूल नेता और पार्टियां भी हैं.
मालदीव में जब पूर्व राष्ट्रपति अबदुल्ला यामीन सत्ता में थे, तब वो भी ये मानते थे कि भारत उन्हें सत्ता में नहीं देखना चाहता है. साल 2018 के राष्ट्रपति चुनाव में सत्ता खोने के बाद वो उग्र इंडिया आउट कैम्पेन चलाते रहे जब तक कि उनपर प्रतिबंध नहीं लगा दिया गया. वो बिना किसी सबूत के ये मानते रहे कि 2024 के चुनाव में भारत उनकी जीत के खिलाफ काम कर सकता है.
अगर यामीन ये मानते हैं कि उनकी सरकार की बीजिंग से नजदीकी एक कांटा थी, तो उन्हें अब दोनों देशों के पड़ोसी श्रीलंका की तरफ देखना चाहिए, जहां भारत को, चीन जाने वाले संवेदनशील Hambantota project को लेकर कोई समस्या नहीं है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन में आश्चर्यजनक तरीके से भारत उस नकारात्मक छवि से बाहर निकलकर या काफी हद तक उससे किनारा करते हुए सामने आया है, जो पड़ोसी देशों में बनी हुई है. इस छवि को उन पुराने हिंदुत्व बुद्धिजीवियों ने आकार दिया था, जो सभी चीजों से ऊपर भारत के प्रभुत्व, हिंदुत्ववाद और संस्कृत भाषा में यकीन करते थे.
अब श्रीलंका को आर्थिक सहायता पहुंचाने के साथ भारत पड़ोसी देशों के लिए पारंपरिक भारतीय विचार जो संस्कृत में वसुधैव कुटंबकम और तमिल भाषा में ‘Yadhum oore, yavarum kelir’ का विचार है, इसके संदेश को भी पहुंचा रहा है. इन दोनों ही विचारों का अर्थ है कि पूरा विश्व एक दूसरे पर निर्भर है.
कुछ बेहतर होने के लिए ही दुनिया का नजरिया भी भारत के प्रति बदला है, लेकिन ये काफी नहीं है. धारणाओं और एक समझ बना लेने का बोझ अभी भी है.
जैसा कि संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थाई प्रतिनिधि TS Tirumurti ने हाल में अपने डच समकक्ष से रूस-यूक्रेन संकट पर भारत के रवैये को लेकर पश्चिम की राय के संदर्भ में कहा, ये सभी कुछ बहुत कृपाभाव से भरा हुआ है, लेकिन फिर भी ये यूरोप की औपनिवेशिक मानसिकता को दिखाता है.
उनके लिए ये किसी गरीब रिश्तेदार का अपमान करने जैसा है, चाहे वो छीनकर हो, नकारने से हो या उदारता से.
स्वतंत्रता के बाद के इतिहास में पड़ोसी देशों को लेकर नेहरू की सीधे हस्तक्षेप न करने की नीति के बाद इंदिरा गांधी ने ठीक इसके उलट नीति अपनाई और इसके बाद हुए बांग्लादेश युद्ध ने पड़ोसी देशों को भ्रमित किया.
विदेशी और रक्षा नीतियों के मामलों में पाकिस्तान और चीन मुख्य रूप से भारत का जुनून रहे हैं. इसके बाद अब दुनिया के एक बड़े हिस्से ने भी इसका अनुसरण किया और अपने व्यवहार में भी इसे शामिल किया. लेकिन छोटे पड़ोसी देशों के लिए भारत अभी भी उनकी एकमात्र व्यस्तता और चिंता है जैसा कि पहले भी सदियों से होता आया था.
आज सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का भारत के अल्पसंख्यकों के साथ व्यवहार पड़ोसी देशों में एक चिंता का विषय बना हुआ है. सार्क देशों के 8 में से 4 देश इस्लामिक हैं. इनमें से तीन अन्य जिसमें भारत, श्रीलंका और नेपाल शामिल हैं, इन देशों में मुसलमानों की आबादी अच्छी संख्या में है. ये इसाई धर्म के साथ भी है और ऐसा कई जगहों पर है, लेकिन सभी दक्षिण एशियाई देशों में नहीं, जिसमें भारत भी है.
दूरस्थ पश्चिमी देशों की तरह, पड़ोसी देशों की भी ऐसी समझ है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के तौर पर भारत को अपने अल्पसंख्यकों के साथ ईमानदार और निष्पक्ष होना चाहिए. लोगों की ये राय भी है कि अपने अल्पसंख्यकों को असुरक्षित बनाकर नई दिल्ली ने सिंहला बहुसंख्यक श्रीलंका और नेपाल में मधेशी को लेकर ठीक व्यवहार करने की बात कहने का नैतिक अधिकार खो दिया है.
इन सभी के जरिए ज्यादातर दक्षिण एशियाई देशों में अगर इनमें अफगानिस्तान को छोड़ दिया जाए, तो इन सभी जगहों पर क्रियाशील लोकतंत्र है. थोड़ा पीछे जाकर देखें तो साल 1931 में श्रीलंका, एशिया में सबसे पुराना चुनावी लोकतंत्र भी था. मीडिया में चल रही सभी बहसों के बावजूद इन सभी देशों में लोकतंत्र व्यापक और प्रभावी रूप से है. श्रीलंका में राजपक्षे हों, मालदीव में यामीन या कहीं भी दूसरे तानाशाह, इन सभी ने चुनावों के जरिए जनता ने जो व्यक्त किया, उसकी आवाज को सुना है और उसके सामने झुके हैं.
लेकिन इन सबका एक दूसरा पक्ष भी है. इन देशों की सरकारें हो सकता है कि अपनी इंडिया पॉलिसी को लागू करने का दबाव बनाएं, फिर एक ऐसा समय आएगा जब वोटर्स सरकारों को बताएंगे कि उनके देशों की इंडिया पॉलिसी क्या होनी चाहिए.
सोवियत यूनियन का पतन सिर्फ इसलिए नहीं हुआ किगोर्बाचेव के पेरेस्त्रोइका और ग्लास्नोस्त आंदोलन मॉस्को के पूर्व निर्धारित पतन की वजह बने, बल्कि इसलिए भी क्योंकि, कभी एकीकृत और संगठित रहे देशों ने विद्रोह कर दिया. आज दशकों बाद इसी की वजह से यूक्रेन युद्ध की स्थिति पैदा हुई है.
एक बार फिर ये भारत के लिए सबक है. ये सबक कि भारत को बाकी की दुनिया से पहले मदद के लिए आए अपने पड़ोसियों को साथ लेकर चलना होगा, राष्ट्र को भी और इसके साथ वहां के लोगों को भी.
(लेखका चेन्नई में स्थित एक नीति विश्लेषक और टिप्पणीकार हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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