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भारत चाबहार से बाहर: चीन-ईरान की निकटता क्यों चिंता का विषय

पाकिस्तान हमेशा से अफगानिस्तान और उससे आगे भारत के जमीन मार्ग का विरोध करता रहा है

विवेक काटजू
नजरिया
Published:
ईरान ने चाबहार-जाहेदान रेलवे परियोजना का निर्माण अकेले ही करने का फैसला किया
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ईरान ने चाबहार-जाहेदान रेलवे परियोजना का निर्माण अकेले ही करने का फैसला किया
(फोटो: क्विंट हिंदी)

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चीन ने ईरान के साथ लंबी साझेदारी का फैसला लेकर अमेरिका की ईरान नीति को दुत्कार दिया है. मीडिया में आई रिपोर्ट के मुताबिक ईरान ने चाबहार-जाहेदान रेलवे परियोजना का निर्माण साझा तौर पर भारत के साथ करने की बजाए अकेले ही करने का फैसला लिया है. 2016 में दोनों देशों ने चाबहार बंदरगाह के विकास और विस्तार के लिए इस रेलवे लाइन को मिलकर तैयार करने निर्णय लिया था.

पाकिस्तान हमेशा से अफगानिस्तान और उससे आगे भारत के जमीन मार्ग का विरोध करता रहा है. चाबहार बंदरगाह तक भारत की पहुंच – और इसके जरिए अफगानिस्तान तक, और अफगानिस्तान के जरिए मध्य एशिया तक – की सामरिक अहमियत बहुत ज्यादा है. इस लिहाज से ईरान का ये कदम भारत के हितों के लिए बड़ा झटका है.

ईरान-चीन के बीच दीर्घकालिक आर्थिक और सैन्य साझेदारी

जाहिर तौर पर, ईरान ने भागीदारी खत्म करने के लिए फंडिंग और परियोजना से जुड़े दूसरे पहलुओं पर भारत की तरफ से होने वाली देरी को जिम्मेदार ठहराया है. ईरान अब दावा कर रहा है कि इस परियोजना पर खर्च होने वाले 400 मिलियन अमरीकी डॉलर वह अपने संसाधनों से जुटाएगा. हालांकि, अमेरिकी पाबंदियों के बढ़ते शिकंजे ने उसकी वित्तीय हालत खराब कर दी है. इससे ईरानी अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंच रहा है. इसलिए, ईरान अपने दम पर इस रेलवे परियोजना के लिए संसाधन कैसे जुटा पाएगा यह समझ से परे है.

यहां इस रिपोर्ट की विश्वसनीयता और अहमियत बहुत बढ़ जाती है कि ईरान और चीन एक लंबी आर्थिक और सैन्य साझेदारी पर काम कर रहे हैं. कभी-कभी छोटे रणनीतिक फैसले बड़ी कूटनीति का खुलासा कर देते हैं. इस समझौते के तहत, चीन अगले बीस वर्षों में ईरान पर 400 बिलियन अमरीकी डालर खर्च करेगा. अगर ऐसा होता है, तो यह ना सिर्फ ईरान-चीन द्विपक्षीय संबंधों की तस्वीर बदल देगा, बल्कि पश्चिम एशियाई क्षेत्र की पूरी भू-राजनीति और सामरिक परिदृश्य ही बदल देगा.

यह संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ चीन की बढ़ती दुश्मनी के संदर्भ में भी सबसे साहसिक कदमों में से एक माना जाएगा.

  • जाहिर तौर पर, ईरान ने भागीदारी खत्म करने के लिए फंडिंग और परियोजना से जुड़े दूसरे पहलुओं पर भारत की तरफ से होने वाली देरी को जिम्मेदार ठहराया है.

  • ईरान अब दावा कर रहा है कि इस परियोजना पर खर्च होने वाले 400 मिलियन अमरीकी डॉलर वह अपने संसाधनों से जुटाएगा, जो कि अमेरिकी पाबंदियों को देखते हुए मुश्किल लगता है.

  • यहां इस रिपोर्ट की विश्वसनीयता और अहमियत बहुत बढ़ जाती है कि ईरान और चीन एक लंबी आर्थिक और सैन्य साझेदारी पर काम कर रहे हैं.

  • चीन की तरफ बढ़ने का ये फैसला ईरान की इस्लामिक सरकार ने संतुलन और कूटनीतिक विकल्प खुले रखने की अपनी परंपरा के खिलाफ जाकर लिया.

  • भारत के नजरिए से, चीन का ईरान के साथ संबंध मजूबत करना पड़ोसी देशों के लेकर उसकी आक्रामक नीति को दर्शाता है.

ईरान पर ओबामा से उलट ट्रम्प के नजरिए का प्रभाव

ईरान पर बेहद सावधानी से तैयार किए गए राष्ट्रपति बराक ओबामा के नजरिए को उलट कर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इसे एक कोने में धकेल दिया है. 2018 में ट्रंप ने ईरान-अमेरिका परमाणु समझौते को खत्म कर दिया था. समझौते का आधार यह था कि ईरान हर हाल में यूरेनियम संवर्धन छोड़ देगा.

बदले में शुरुआत में संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका की लगाई गई पाबंदियों को कम कर दिया जाएगा और बाद में इसे पूरी तरह हटा लिया जाएगा. 2015 में समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद, प्रतिबंध हटाए जाने लगे.

नतीजतन, ईरानी अर्थव्यवस्था और वित्तीय हालत में सुधार हुआ. इसके साथ ही ईरान ने तुरंत - यमन से सीरिया और इराक तक - शिया बहुल सरकारों, समूहों और सेनाओं को ताकतवर बनाते हुए इस क्षेत्र में मजबूत कदम उठाए.

यह सुन्नी अरब देशों जैसे सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के साथ-साथ इजरायल के लिए बड़ी चुनौती थी. इन देशों ने अमेरिका-ईरान परमाणु समझौते को रोकने के लिए सबकुछ किया, लेकिन ओबामा को आगे बढ़ने से रोकने में नाकाम रहे.

राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में ट्रंप इस समझौते का विरोध कर रहे थे. वो अमेरिका की पारंपरिक पश्चिम एशियाई नीति पर आधारित तीन सिद्धांतों के हिमायती थे: इजरायल का समर्थन, सुन्नी अरब देशों के साथ मजबूत संबंध, और ईरान में सत्ता परिवर्तन की कोशिश. ट्रंप, बतौर राष्ट्रपति, पश्चिम एशिया पर पुराने अमेरिकी दृष्टिकोण को अपनाते हुए आगे बढ़े. उन्होंने डील को अमेरिकी हितों के खिलाफ मानते हुए उसे निशाना बनाया. अमेरिका के यूरोपीय सहयोगियों, रूस और चीन के विरोध के बावजूद उन्होंने डील तोड़ दी.
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इस्लामिक हुकूमत के ‘संतुलन’ की परंपरा के बावजूद ईरान चीन की तरफ क्यों बढ़ा

ईरान की अर्थव्यवस्था और हुकूमत के खिलाफ ट्रंप की कार्रवाइयों ने उसे चीन के पाले में जाने के लिए मजबूर कर दिया. इसके पीछे जनवरी 2020 में ईरानी सेना के प्रतिष्ठित कमांडर कासिम सुलेमानी की हत्या को भी अहम माना जा सकता है. चीन की तरफ बढ़ने का ये फैसला ईरान की इस्लामिक सरकार ने संतुलन और कूटनीतिक विकल्प खुले रखने की अपनी परंपरा के खिलाफ जाकर लिया.

जाहिर है ईरान ने इस बात का भी आकलन कर लिया है कि ट्रंप अगर दोबारा राष्ट्रपति चुनाव जीतते हैं, तो वो नए जोश के साथ उस पर निशाना साधेंगे. और, अगर वो नहीं जीतते हैं, तो उनके उत्तराधिकारी के लिए भी ईरान के खिलाफ लिए गए ट्रंप के सभी फैसलों को पलटना आसान नहीं होगा.

ईरान के साथ इतने नजदीकी संबंध बनाते हुए, चीन भी इस खतरे से अनजान नहीं होगा कि सुन्नी अरब देशों और इजरायल के साथ उसके संबंध बिगड़ सकते हैं.

चीन ने स्पष्ट तौर पर इसका हिसाब लगा लिया है कि सुन्नी राष्ट्रों को अपने तेल और गैस संसाधनों के प्रमुख उपभोक्ता के रूप में उसकी जरूरत होगी.

यही वो आधार है जिस पर ये संबंध टिका है, जो पूरी तरह इसके खिलाफ नहीं झुक सकता. उसने इसका भी आकलन कर लिया होगा कि इस्लामिक देशों द्वारा प्रायोजित उइगर मुसलमानों के खिलाफ इसकी कार्रवाई की आलोचना को भी वो बर्दाश्त कर लेगा. जाहिर है, आगे शिया देशों और चीन के हितों का मेलजोल बढ़ेगा, जबकि सुन्नी अरब राष्ट्रों और चीन के बीच की दूरियां बढ़ेंगी.

चाबहार का अब क्या होगा?

ईरान के साथ दीर्घकालिक साझेदारी का फैसला लेकर चीन ने अमेरिका की ईरान नीति को धता बता दिया है. यह अमेरिकी राष्ट्रपति और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए एक प्रबल संकेत है. शायद हांगकांग, ताइवान, दक्षिण चीन

सागर और लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर उठाए गए चीन के कदमों से भी बड़ा. ऐसा इसलिए क्योंकि ईरान को लेकर ट्रंप की नफरत जगजाहिर है.

भारत के नजरिए से, चीन का ईरान के साथ संबंध मजूबत करना पड़ोसी देशों को लेकर उसकी आक्रामक नीति को दर्शाता है. पाकिस्तान चीन की जेब में है, और इसमें कोई शक नहीं कि ग्वादर पोर्ट का सामरिक महत्व है. लेकिन अब चाबहार का क्या होगा?

यह सब भारतीय हितों के लिए एक बड़ी चुनौती है, खासकर ऐसे समय में जब देश COVID-19 के साथ, आर्थिक परेशानियां, राजनीतिक कलह और कमजोर सामाजिक ताने-बाने का सामना कर रहा है. क्या भारत का राजनीतिक और रणनीतिक वर्ग इस चुनौती का सामना करने की एकता और इच्छाशक्ति दिखाएगा? अगर वो ऐसा नहीं करते, तो आने वाले दशकों में देश इसकी बड़ी कीमत चुकाएगा.

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