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आखिर क्यों, सदियों से भारत से दोस्ताना संबंध रखने वाला नेपाल देखते ही देखते दुश्मनों जैसा व्यवहार करने लगा? मौजूदा दौर में जब चीन, पाकिस्तान और नेपाल हमें तेवर दिखा रहे हैं, तब नेपाल के रवैये को ही सबसे असहज माना जा रहा है. नेपाल के तल्ख तेवर हमारे राजनयिकों, हुक्मरानों और थिंक टैंक के भी गले नहीं उतर रहे. हालांकि, साफ दिख रहा है, नेपाल की मौजूदा राजनीति भी उसी राष्ट्रवाद ही राह पर है, जो भारत में कई सालों से देखा जा रहा है.
भारत में जो पैमाना पाकिस्तान और मुसलमान को निशाना बनाने को लेकर है, नेपाली राजनीति में वो भारत और मधेसियों को लेकर है.
तीन करोड़ की आबादी वाले नेपाल में वैसे तो ‘पहाड़ी’ और ‘मधेसी’ के बीच नस्लवादी राजनीति का अतीत दशकों पुराना है. लेकिन 2008 में राजशाही के पतन के बाद से नेपाली नस्लवाद और गहराता चला गया.
पहाड़ी नेता अपनी राजनीति चमकाने के लिए मधेसियों को भारतीय घुसपैठिये की तरह पेश करते हैं. इन्हें वैसे ही भारत परस्त बताया जाता है, जैसे भारतीय मुसलमानों पर पाकिस्तान परस्ती का ठप्पा लगाया जाता है.
राजशाही के पतन के बाद नेपाल में हमेशा गठबंधन वाली सरकारें ही बनीं. इनके घटक दलों में हमेशा देशहित से ज्यादा पार्टी-हित की होड़ रही.
नेपाल को भी जब राष्ट्रीय अस्मिता वाले मुद्दों की जरूरत पड़ने लगी तो उन्होंने सीमा-विवाद का हौव्वा खड़ा कर लिया. 8 मई को पिथौरागढ़ में धारचूला से लिपुलेख को जोड़ने वाली सड़क का उद्घाटन हुआ, और 20 मई को नेपाली प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का सख्त बयान आया. ये बयान था-
हालांकि, इसी सड़क के शिलान्यास समारोह में ओली बतौर विदेश मंत्री शामिल हुए थे.
प्रधानमंत्री ओली सिर्फ बयान देकर खामोश नहीं रहे. उन्होंने 13 जून को देश के नये राजनीतिक मानचित्र को नेपाली संसद के निचले सदन की मंजूरी भी दिला दी. इससे पहले नेपाल में ये नैरेटिव बन चुका था कि जो भी ओली सरकार के खिलाफ चूं तक करता उसे फौरन राष्ट्रद्रोही और भारत का एजेंट करार दे दिया जाता.
हालांकि, नेपाल के इस नैरेटिव की एक और पृष्ठभूमि भी है. 2 नवंबर 2019 को भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय और भारतीय सर्वेक्षण विभाग ने मिलकर देश का नया राजनीतिक मानचित्र जारी किया था. इसमें कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख को भारतीय क्षेत्र बताया गया है. इसे लेकर नेपाल ने उस वक्त आपत्ति भी जतायी थी. लेकिन भारतीय विदेश मंत्रालय ने ये कहकर आपत्ति को खारिज कर दिया था कि ‘नक्शे में नेपाल की सीमा में कोई बदलाव नहीं है. ये तो सिर्फ भारत के सम्प्रभु क्षेत्र को दर्शाता है.’
तब विदेश मंत्रालय ने नेपाल की आपत्तियों को बातचीत से सुलझाने की पेशकश नहीं की. इसलिए ओली सरकार ने इसे अपनी जनता के बीच भारत की हेकड़ी की तरह पेश किया, ताकि ये मुद्दा उनके राष्ट्रवादी एजेंडे में फिट बैठ सके. यही तेवर अब भारत-नेपाल सीमा विवाद के रूप में हमारे सामने है.
फ़िलहाल, भारत परस्त समझे जाने वाले मधेसी नेता और उनकी पार्टियां भी ‘भारत विरोधी नेपाल’ वाले नैरेटिव से हां में हां मिला रही हैं या फिर दबी जुबान में ही ओली सरकार का विरोध हो रहा है. क्योंकि इन्हें भी राजनीतिक भविष्य की चिन्ता है.
नेपाल को लेकर भारतीय विदेश नीति में 2014 के बाद से बड़ा बदलाव आया. भारत सरकार ने हिंदू बहुल नेपाल को अघोषित तौर पर अपने ही एक और प्रदेश का तरह देखना शुरू कर दिया.
अक्टूबर-नवंबर 2015 में मधेसियों के आन्दोलन के दौरान ‘भारत विरोधी नेपाल’ नैरेटिव गरमा गया. तब नेपाल के पहाड़ी इलाकों में ईंधन और जरूरी सामान की भारी किल्लत हो गयी क्योंकि करीब दो महीने तक रक्सौल बॉर्डर बन्द रहा. भारत ने मधेसी आन्दोलन को नेपाल का आन्तरिक मामला कहा, लेकिन पहाड़ियों के वर्चस्व वाली नेपाल की राजनीतिक सत्ता ने इसे भारतीय मिलीभगत की तरह पेश किया. उन्हें अपनी संवैधानिक खामियों का ठीकरा भारत के सिर पर फोड़ने का मौका मिल गया.
ओली ये दिखाने लगे कि उन्हें भारत की कोई परवाह नहीं है, क्योंकि वो जिस नेपाल के नेता हैं वो स्वतंत्र राष्ट्र है. जैसे भारत में ‘नया भारत’ का नारा उछाला जाता है वैसे ही वहाँ भी ‘नया नेपाल’ का नारा चल रहा है. इसे साबित करने के लिए ओली ने चीन से नजदीकी बढ़ा ली.
दुर्भाग्यवश, भारतीय विदेश नीति ऐसे तमाम नैरेटिव से अंजान बनी रही. भारतीय नेताओं ने नेपाल की चीन से बढ़ती नजदीकी पर जितने कटाक्ष किये, नेपाली नेताओं को भारत विरोधी तेवर दिखाने का उतना ज्यादा मौका मिला.
मसलन, हाल ही में भारतीय थल सेना अध्यक्ष का ये कहना कि ‘हमें मालूम है कि नेपाल किसके इशारे पर चल रहा है?’ या फिर योगी आदित्यनाथ का वो बयान जिसमें वो तिब्बत का उदाहरण देकर नेपाल को चीन से सावधान रहने की बात करते हैं. जबकि कूटनीतिक परम्पराओं के लिहाज से जनरल नरवणे और मुख्यमंत्री को ऐसे बयानों से परहेज करना चाहिए था. इससे नेपाल के भारत विरोधी नैरेटिव को और हवा ही दी.
दरअसल, ‘नया नेपाल’ के लोग भारत पर अपनी निर्भरता को अपनी बेड़ियां नहीं समझना चाहते.
ये वही नदी है, जिसके पूर्वी तट को भारत, 1816 की सुगौली सन्धि के मुताबिक, नेपाल की सीमा बताता है और जिसके पश्चिमी तट पर कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा वाले इलाके हैं.
सवाल ये भी है कि ऐसा क्या हुआ कि कभी भारत समर्थक रहे ओली, अब जबरदस्त भारत विरोधी चेहरा बन चुके हैं?
भूकंप की त्रासदी और भारत की सीमाएं बन्द होने की वजह से नेपाल ने जो दुश्वारियां झेलीं, उससे भारत विरोधी तेवर ही नेपालियों की राजनीतिक मजबूरी बन गया. अब नेपाल की हरेक आंतरिक समस्या के लिए भारत को वैसे ही कोसने की राजनीति फल-फूल रही है, जैसे भारत में सरकार की हर नाकामी के पीछे पाकिस्तान का हाथ बताया जाता है.
इसलिए 2016 में भारतीय हितों की अनदेखी करके चीन से शुष्क बन्दरगाहों, रेल लिंक और बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) वाले समझौते करने में ओली को कोई दिक्कत नहीं हुई.
साल 2017 में ओली के सामने प्रचंड यानी पुष्प कमल दहल के धड़े की बगावत खड़ी हो गयी. ओली ने इसे ‘भारत के इशारे पर’ हुई बगावत की तरह पेश किया. इससे नेपाल का भारत विरोधी छद्म राष्ट्रवाद परवान चढ़ा और ओली को जीत मिली.
इसलिए सियासी जरूरतों की खातिर अब ओली अपनी कट्टर भारत विरोधी छवि के साथ डटे हुए हैं. ओली की राजनीति को वक़्त रहते नहीं भांप पाने का नतीजा ये रहा कि नेपाल पर चीन की पकड़ मजबूत होती चली गयी और भारत का एक पुराना मित्र राष्ट्र इससे बहुत दूर जा निकला.
नेपाली पार्टियों की राजनीति ‘भारत विरोध’ की आग को बुझाने से नहीं बल्कि और धधकाने से ही चमकेगी. अब नेपाल की जो पार्टी भारत के खिलाफ जितना जहर उगलेगी, उसे उतना अधिक जनसमर्थन मिलेगा.
(ये आर्टिकल सीनियर जर्नलिस्ट मुकेश कुमार सिंह ने लिखा है. आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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