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क्या भारत-रूस के रिश्ते में भरोसा खत्म हो गया? क्या इसके लिए चीन जिम्मेदार है?

India के लिए चुनौती यह है कि वह रूस के साथ अपने रिश्तों में संतुलन कैसे बनाए रखे.

अमित कुमार सिंह
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>क्या भारत-रूस के रिश्ते में भरोसा खत्म हो गया है? क्या इसके लिए चीन जिम्मेदार है</p></div>
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क्या भारत-रूस के रिश्ते में भरोसा खत्म हो गया है? क्या इसके लिए चीन जिम्मेदार है

(फोटो- पीटीआई)

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कुछ समय से रूस (Russia) की चीन (China) के साथ बढ़ती नजदीकी पर भारत (India) के पर्यवेक्षक फिक्र जाहिर कर रहे हैं. खासतौर से चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग (Xi Jinping) की मास्को यात्रा के बाद, जहां उन्होंने मार्च के अंत में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन (Vladimir Putin) से मुलाकात की थी.

उदाहरण के लिए पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने हाल ही में राय जाहिर की थी कि चीन के मुकाबले रूस की कमजोर स्थिति, चीन को भारत के साथ रूस के जुड़ाव में रुकावट डालने का मौका देती है. वैसे इस तरह की संभावना जताने से पहले भारतीय नीति निर्माताओं को जरूर पता होगा कि यह मुद्दा जितना दिख रहा है, उससे कहीं ज्यादा जटिल है.

यह सच है कि साल 2014 में क्रीमिया पर कब्जा करने के बाद पश्चिम द्वारा मास्को को अलग-थलग करने की लगातार कोशिशों के बाद पिछले दशक में चीन, रूस का सबसे करीबी अनौपचारिक सहयोगी बनकर उभरा है.

2022 की शुरुआत में यूक्रेन पर हमला करने के पुतिन के फैसले ने अमेरिका और यूरोप को तमाम पाबंदियों के जरिये रूस पर दबाव बढ़ाने के लिए मजबूर किया.

नतीजतन रूस खुद को कूटनीतिक रूप से घिरा पाने के बाद चीन से करीबी बढ़ा रहा है. साझा अमेरिका विरोधी भावना और पश्चिमी मूल्यों को हिकारत की नजर से देखने वाले मास्को और बीजिंग के बीच रणनीतिक साझेदारी को बढ़ावा दिया गया है. अपने निर्यात और आयात दोनों के घटते विकल्पों के बीच रूस की चीन पर बढ़ती आर्थिक निर्भरता भारत के मामले में चीन की मांगों को स्वीकार करने के नजरिये से उसे कमजोर बनाती है.

हालांकि अभी यह मान लेना बहुत जल्दबाजी होगा कि रूस ने चीन के साथ सौदेबाजी की पूरी ताकत खो दी है. क्रीमिया के विलय और बाद में यूक्रेन पर हमले के बाद मुश्किलों के बावजूद रूस अभी भी चीन के सामने एक निश्चित स्तर की स्वायत्तता रखता है, खासकर जब भारत के साथ उसके रिश्तों की बात आती है. आगे रखे गए तर्क इस दावे की पुष्टि करते हैं. और यूरोप को तमाम पाबंदियों के जरिये रूस पर दबाव बढ़ाने के लिए मजबूर किया.

सहयोग को बढ़ावा देते हैं साझा हित

यथार्थवादियों का कहना है कि राष्ट्रीय हित किसी भी देश की विदेश नीति के बुनियादी निर्धारक होते हैं. इसी तरह साझा हित सभी साझेदारियों की बुनियाद हैं. अमेरिका-भारत सामरिक साझेदारी की तरह जो मुख्य रूप से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की दखलअंदाजी से जुड़ी आशंकाओं पर आधारित है.

रूस-चीन संबंध भी पश्चिम, खासतौर से अमेरिका के बारे में इसी तरह की आशंकाओं पर आधारित हैं. इसके अलावा अगर हित देशों के बीच रिश्तों को तय करते हैं तो यह उनकी सामरिक योजनाओं की सीमा भी तय करते हैं.

चीन और रूस दोनों अमेरिका की अगुवाई वाली पश्चिमी देशों की सोच की विश्व-व्यवस्था, जो उनके लिए दुश्मनी की सोच रखती है, के विरोध में एकजुट हैं. लेकिन वैकल्पिक विश्व व्यवस्था और इसमें भारत की भूमिका के बारे में उनकी सोच में ऐसी साझेदारी नहीं हो सकती है. अगर चीन सहयोग करता है, तो रूस भी फायदा उठा सकता है.

बीजिंग भारत को एशिया में एक संभावित रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखता है, दूसरी तरफ मास्को अमेरिका के साथ भारत के संबंधों के बावजूद नई दिल्ली को अपने लिए स्ट्रेटजिक खतरा नहीं मानता है. चीन अमेरिका से वैश्विक प्रभुत्व हथियाना चाहता है, जबकि रूस एक वैकल्पिक नेतृत्व बनाना चाहता है जहां उसे बीजिंग के बराबर माना जाए, और भारत भी एक शक्ति-केंद्र है– ऐसा विचार जिसे चीन कुबूल करने को तैयार नहीं है.
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इसके अलावा, भारत-रूस संबंध बहुत पुराने हैं जो सालों के आपसी भरोसे और स्ट्रेटजिक सहयोग से बने हैं. रूस के लिए चीन के अलावा भारत ही इकलौता ऐसा दोस्त है जो वैश्विक स्तर पर काफी असर रखता है, और जिससे वह मदद मांग ले सकता है. भारत के साथ अपने रिश्तों को बिगाड़ना रूस के लिए रणनीतिक आत्महत्या जैसा होगा, क्योंकि यह उसे हमेशा के लिए चीन का पिछलग्गू बना देगा.

2022 में यूक्रेन पर हमले के बाद रूस पहले ही यूरोपीय संघ में अपने दोस्तों का भरोसा खो चुका है. भारत को अलग-थलग करने से रूस के पास वैश्विक स्तर पर और चीन के खिलाफ किसी भी तरह का कोई भी लाभ या कूटनीतिक बढ़त खत्म हो जाएगी. इसके अलावा वह हमेशा के लिए भारत का भरोसा गंवा देगा.

अभी माहौल यह है कि भारत के खिलाफ चीन-रूस गठबंधन जल्दबाजी में किया गया फैसला है. रूस ने हाल ही में मंजूर किए अपनी विदेश नीति अवधारणा पत्र में इस भावना को साफ तौर पर जाहिर किया है, जिसमें चीन के साथ-साथ भारत को “सत्ता के दो दोस्ताना संप्रभु वैश्विक केंद्र” के रूप में दर्ज किया गया है. भारत-रूस संबंधों में दुविधा अमेरिका और चीन के साथ उनके अपने स्ट्रेटजिक संबंधों से जुड़ी है. और इस तरह भारत और रूस के लिए साझी बुनियाद यह है कि दूसरे के विरोधी के साथ उनकी कोई भी साझेदारी, दूसरे के खिलाफ नहीं है.

यह तथ्य कि रूस की निंदा और आलोचना करने के लिए पश्चिमी दबावों के बावजूद भारत ने रूस-यूक्रेन युद्ध से खुद को अलग रखा और युद्ध पर लगभग तटस्थता का रुख रखा. यूएन जनरल असेंबली (UNGA) में मतदान में भारत ने इस रुख को और साफ कर दिया था. भारत ने रूस के साथ अपने संबंधों की प्रकृति के बारे में अमेरिका और उसके पश्चिमी दोस्तों को अपना नजरिया समझा दिया. रूस ने एक मित्र देश के रूप में भारत को चीन के बराबर दर्जा देकर उसके ‘समर्थन’ का एहसान चुकाने की कोशिश की है.

हालात जैसे भी हों रूस से उम्मीद करनी चाहिए कि वह अपने दोनों ‘दोस्तों’ के साथ अपने हितों में संतुलन साध कर चलेगा. चीन रूस को अलग-थलग करने का जोखिम नहीं उठा सकता यहां एक और जरूरी सवाल यह है कि अगर रूस भारत पर चीनी दबाव का विरोध करने का विकल्प चुनता है तो बीजिंग के पास क्या विकल्प हैं. ऐसी उम्मीद नहीं है कि बीजिंग मास्को से बदला लेने का जोखिम उठाएगा क्योंकि रूस पश्चिमी देशों की दबंगई का सामने करने में इसका महत्वपूर्ण साझेदार है, जिसे भारत के चक्कर में गंवाना ठीक नहीं होगा. यह भावना मॉस्को यात्रा पूरी कर से लौटने से पहले शी जिनपिंग के पुतिन को कहे विदा के शब्दों में साफ तौर से दिखी, जिसमें उन्होंने कहा था, “बदलाव आ रहा है जो 100 वर्षों में नहीं हुआ है. और हम इस बदलाव को एक साथ ला रहे हैं.”

बदलाव से आशय निश्चित रूप से पश्चिम दबदबे वाली विश्व व्यवस्था के लिए चुनौती का है. चीन भले ही भारत का वाजिब सम्मान नहीं करता है, फिर भी हर हालत में भारत को पश्चिमी उदार व्यवस्था की निंदा और आलोचना का समर्थन करने में उसका साथ चाहेगा. इसके अलावा चीन पहले ही सस्ते और रियायती दर पर ऊर्जा सौदे करके यूक्रेन युद्ध के बीच रूस को अपने मौन समर्थन का फायदा उठाया है.

इस बीच रूस चीन का इकलौता प्रमुख रक्षा साझेदार और उसके कुछ सबसे परिष्कृत और उन्नत हथियारों की सप्लाई का जरिया बना हुआ है. ऐसे में चीन द्वारा रूस की बांह मरोड़ने की संभावनाएं बहुत कम हैं. लब्बोलुआब यह है कि चीन-रूस साझेदारी के दायरे से बाहर के क्षेत्र हितों के आधार पर बातचीत के लिए खुले हैं.

उदाहरण के लिए नो-लिमिट्स वाले बयान के बावजूद चीन ने अभी तक क्रीमिया को रूस के क्षेत्र के तौर पर मान्यता नहीं दी है. इसके अलावा, यूक्रेन पर यूएन जनरल असेंबली प्रस्तावों को वीटो करने में रूस का साथ देने के बजाय चीन हर मौके पर मतदान से अलग रहा. अगर यूक्रेन पर रूस के हमले के लिए अपने मौन समर्थन के बावजूद चीन की मतदान से अनुपस्थिति राष्ट्रीय हित की नीति से प्रेरित है, तो इसी तरह चीनी दबावों के सामने रूस को भी विरोध चाहिए.

अंत में यह सोचना सही नहीं है कि रूस जैसी महाशक्ति चीन की बचकानी मांगों को मानने के लिए सहमत होगी, जबकि पुतिन का हर कदम रूस के गौरव को सोवियत-युग और तत्कालीन रूसी साम्राज्य के गौरव की बहाली के लिए है. ‘दर्जा’ और ‘गौरव’ की ख्वाहिश दो ऐसे कारक हैं जो किसी देश की विदेश नीति को संचालित करते हैं, और खासतौर से रूस जैसी पुनरुत्थानवादी ताकतों के लिए यह सच है. हालांकि इस लेख में यह सुझाव मानने के लिए दलील नहीं दी जा रही है कि चीन-रूस साझेदारी को भारत की विदेश नीति के फैसलों से मतलब नहीं रखना चाहिए, मगर यह ध्यान देना होगा कि रूस-भारत में अलगाव की संभावना बढ़ा-चढ़ा कर दिखाई जाती है.

हालांकि भारत के लिए रूस पर अपनी निर्भरता को कम करना जरूरी है, मगर उसके लिए रूस के साथ संबंध बनाए रखना भी उतना ही जरूरी है जो मास्को को चीन के पाले में जाने से रोकने के लिए काफी मजबूत है. भारत के लिए चुनौती यह है कि वह रूस के साथ अपने संबंधों में किस तरह बेहतरीन संतुलन कायम रखे.

(अमित कुमार तक्षशिला इंस्टीट्यूशन में इंडो-पैसिफिक स्टडीज प्रोग्राम के रिसर्च एनालिस्ट हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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