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विदेश मंत्री एस जयशंकर (S Jaishankar) इतने मेहनती हैं कि कभी शांत नहीं बैठते. वह मास्को में थे और वहां उन्होंने व्यापार, आर्थिक संबंधों और संबंधित मुद्दों पर बैठक की लेकिन जिस एक मुद्दे पर सबका ध्यान लगा था, वह यह था कि क्या इस बैठक के बाद यूक्रेन की भावी त्रासदी को टाला जा सकता है. बेशक, यह रिश्ता भयंकर यूरोपीय जंग से इतर जाता है, लेकिन यह भी सच है कि यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से यूक्रेन में रूस की शिकस्त से जुड़ा हुआ है.
रूस ने सोशल मीडिया पर 'द्रुज़बा दोस्ती' का अभियान चलाया जिसे रूस से नफरत करने वालों ने खूब ट्रोल किया. इस बीच विदेश मंत्री ने इस यात्रा से पहले भारतीय संबंधों पर बयान जारी किया और ऐलान किया कि "रूस और भारत एक अधिक न्यायपूर्ण और समान बहुकेंद्रित विश्व व्यवस्था के सक्रिय गठन के लिए खड़े हैं और विश्व स्तर पर साम्राज्यवादी शासन को मान्यता देने से इनकार करते हैं." हां, इस पूरे वक्तव्य में यूक्रेन का कोई जिक्र नहीं था.
भारत में विदेश मंत्रालय ने उस वक्तव्य पर टीका-टिप्पणी की होगी. इसीलिए मास्को में रूसी विदेश मंत्री से मुलाकात के समय जयशंकर ने जो बयान दिया, उसमें "असाधारण रूप से स्थिर और समय के साथ जांचे गए रिश्तों" की गर्मजोशी का संकेत और 'बहु-ध्रुवीय दुनिया' का जिक्र तो था लेकिन यूक्रेन संघर्ष के गंभीर परिणामों की चेतावनी भी थी.
जयशंकर ने हाल की द्विपक्षीय यात्राओं की प्रशंसा की, लेकिन सच बात यह है कि युद्ध शुरू होने के बाद यह पहली औपचारिक यात्रा है. यह यात्रा खुद व्यापार, आर्थिक, वैज्ञानिक, तकनीकी और सांस्कृतिक सहयोग (आईआरआईजीसी-टीईसी) पर भारत-रूस अंतर-सरकारी आयोग की बैठक के बारे में है.
रूस के साथ यह रिश्ता तब बना था, जब उसे कारोबार के मुख्य भागीदार के रूप में देखा जा रहा था. 2011 में उसके साथ 8.9 बिलियन USD का व्यापार किया गया था. यह आंकड़ा अब 18 बिलियन USD पार कर गया है लेकिन यह ज्यादा खुश होने वाली बात नहीं. चूंकि यह इजाफा तेल और उर्वरकों की सख्त जरूरत की वजह से हुआ. तेल का हमारा शेयर फरवरी में महज एक प्रतिशत से बढ़कर सितंबर में 21 प्रतिशत हो गया है. यह लगभग 100,000 बैरल प्रति दिन है.
यूरोप प्रतिदिन एक मिलियन बैरल लेता है. इसी आंकड़े के कारण जयशंकर की दलील मजबूत होती है. इसके अलावा रिफाइनर अंतरराष्ट्रीय बाजार से तेल खरीदते हैं, जब और जहां भी यह सस्ता उपलब्ध होता है.
अगर रूस अपनी कीमतें बढ़ाता है, तो ये रिफाइनरियां कहीं और चली जाएंगी. यह बहुत आसान है. लेकिन आगे रास्ता मुश्किल है. रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि रूस के तेल कार्गो क्षेत्र से जब पश्चिमी बीमा कंपनियां बाहर निकलीं तो गतिरोध कायम हो गया. रूस की सबसे बड़ी शिपिंग कंपनी सोवकॉमफ्लोट को एक विकल्प के रूप में स्वीकार नहीं किया जा रहा है.
इसका असर भारतीय रिफाइनरियों पर भी पड़ सकता है. इसके अलावा अमेरिकी फर्म एक्सॉन के बाहर निकलने का मतलब है कि परियोजना में भारत के स्वामित्व वाली 21 प्रतिशत हिस्सेदारी अटक गई है. फिर पूर्वी साइबेरियाई तेल में भारत ने हाल ही में हिस्सेदारी बढ़ाई है जो वाडिनार, सिक्का, पारादीप और मुंद्रा जैसे बंदरगाहों में जाता है. यहां रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड और नायरा एनर्जी लिमिटेड जैसी निजी कंपनियां प्लांट्स चला रही हैं. दांव बड़े हैं, और इसमें कोई शक नहीं है. यूक्रेन जंग का मतलब कुछ समय के लिए सस्ता तेल हो सकता है लेकिन प्रतिबंधों के खत्म होते ही इसकी लागत खतरनाक तरीके से बढ़ सकती है.
रूस शंघाई सहयोग संगठन (SCO) में अपने दबदबे को फिर से कायम करने पर जोर लगाएगा. इसकी शुरुआत 1996 में हुई थी जब रूस से 'पूर्व की ओर मुड़ने' का फैसला किया था. इसके बाद 'शंघाई फाइव' (चीन, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, रूस और ताजिकिस्तान) का गठन हुआ था; पुतिन के अपना ध्यान एससीओ की तरफ लगाया था, हां एक महत्वपूर्ण बदलाव जरूर था. 2000 के दशक के अंत तक रूस के लिए इसकी कमान संभालनी मुश्किल हो गई.
न ही कोई वास्तविक आर्थिक दर्जा है. उदाहरण के लिए उज्बेकिस्तान शायद ही चीन जैसे विशाल देश के बराबर आ पाए. फिर, जैसा कि भारत संगठन का अध्यक्ष बनेगा, वह व्यापार संबंधों को मजबूत करना चाहेगा, खासकर अंतरराष्ट्रीय उत्तर दक्षिण व्यापार गलियारे के जरिए, ताकि वह 'चीन का मार्केट स्पेस' न बन जाए.
लेकिन अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे (आईएसटीसी) का मकसद माल को यूरोप ले जाना है, जो असली बाजार है. अब यह कट चुका है. फिर एक 'चेन्नई-व्लादिवोस्तोक' गलियारा है, जो खास तौर से रूस के लिए है. आंशिक रूप से परिवर्तनीय रुपए के बावजूद यह एक चुनौती है, लेकिन बढ़ते व्यापार घाटे को पूरा करने का यही एकमात्र तरीका है जो नीति निर्माताओं को चिंतित करने लगा है.
तालिबान के साथ रूस के कहीं अधिक ठोस संबंध हैं. उसने तालिबान अधिकारियों के मास्को दौरे के बाद उन्हें एक वर्चुअल पहचान दी है. रूस महिलाओं के अधिकारों की बात नहीं करता है, लेकिन 'जातीय संतुलन' पर जोर देता है (जिसे वह उज़्बेक और ताजिकों को और अधिकार देना कहता है) लेकिन अब ऐसा निश्चित रूप से नहीं हो रहा है. वास्तव में इन समूहों के तालिबान कमांडरों को निशाना बनाया जा रहा है और उन्हें बदला जा रहा है, जिससे एक और दौर के संघर्ष की उम्मीद है.
रूस के लिए एक और विवादित सरहद सबसे बुरी संभावनाओं में से एक है, इसलिए वह काबुल और कंधार में स्थिरता के लिए चीन और भारत से सहयोग चाहता है.
भारत के लिए यह बड़ा मुद्दा है लेकिन इसके बारे में सबसे कम बात की जाती है. कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा परियोजना (केकेएनपीपी) का निर्माण एक अनूठा द्विपक्षीय उदाहरण है जिसका विस्तार जारी है. फिर गगनयान परियोजना है- जो भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन के लिए एक हाई प्रोफ़ाइल प्रॉजेक्ट. इसके तहत चार भारतीयों को रूस में प्रशिक्षित किया गया, जिसका नतीजा 2023 में नजर आएगा. इस बीच रूस खुद को अमेरिका समर्थित अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष मिशन से अलग कर रहा है, इसके बावजूद कि वह कई दूसरे एशियाई देशों को लुभाता है.
इसरो और रोस्कोसमोस ने इस मिशन में सहयोग के लिए महत्वपूर्ण क्षेत्रों की पहचान की है. रक्षा क्षेत्र में जबकि रूसी उपकरणों का भारतीय आयात 2012-17 में 67% से घटकर 2017-21 में 46% हो गया है, इससे निर्भरता कम नहीं हुई है- वह भी उस समय जब खास तौर से चीन सरहद पर घात लगाए बैठा है.
असल समस्या यह है. रूस-भारत संबंधों के गहरे होने में यूक्रेन ही सबसे बड़ी दिक्कत है. जयशंकर के साथ जत्थे में दूसरे विभागों के मंत्री भी शामिल थे (जैसे वाणिज्य और उद्योग, कृषि, बंदरगाह और नौवहन और रसायन और उर्वरक सहित सात मंत्रालयों के वरिष्ठ अधिकारी), और यह बताता है कि परंपरागत क्षेत्रों के अलावा कई अन्य क्षेत्रों में भी द्विपक्षीय संबंधों की उम्मीद है.
इसलिए जबकि प्रेस में यूक्रेन के मुद्दे का सिर्फ उल्लेख भर रहा, जयशंकर ने स्पष्ट रूप से भारतीय पक्ष को पेश किया और अपील की कि संघर्ष के 'खतरे' को टालने के लिए बातचीत का बढ़ावा दिया जाए. मध्यस्थता का कोई भी कदम बेहद मौन होगा, लेकिन यह बहुत संभव है कि दिल्ली ने मास्को से बातचीत शुरू करने के लिए कहा हो, साथ ही राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की को भी उसी दिशा में आगे बढ़ने को कहा हो.
किसी भी औपचारिक वार्ता में भारतीय उपस्थिति की संभावना नहीं है. लेकिन उसका असर जबरदस्त है. चीन से अलग, वह रूस पर वर्चस्व कायम करने की गुप्त महत्वकांक्षा नहीं रखता, या उसके प्रभाव क्षेत्र में दबे पांव कब्जा नहीं जमाना चाहता. कूटनीति में यही महत्वपूर्ण होता है. सद्इच्छा और कोई अप्रकट इरादा नहीं.
(डॉ. तारा कार्था Institute of Peace and Conflict Studies (IPCS) में एक प्रतिष्ठित फेलो हैं. उनका ट्विटर हैंडल @kartha_tara है. ये ओपिनियन आर्टिकल है और इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखिका के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.
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