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ताइवान (Taiwan) के राष्ट्रपति चुनाव में भारत इससे बेहतर नतीजे की उम्मीद नहीं कर सकता था. मौजूदा उपराष्ट्रपति लाई चिंग-ते की जीत के बाद डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (DPP) को लगातार तीसरा कार्यकाल मिला है. सत्तारूढ़ पार्टी का फिर से चुनाव जीतना एक नीतिगत निरंतरता सुनिश्चित करता है. इसका उपयोग भारत हाल ही में ताइवान के बाद बढ़ते संबंधों को और मजबूत करने के लिए कर सकता है.
ताइवान के साथ भारत के संबंध सतर्क जुड़ाव और रणनीतिक अस्पष्टता की एक जटिल कहानी रही है. फिर भी, भारत-ताइवान साझेदारी में अपार संभावनाएं हैं. यह आर्टिकल उनके संबंधों की टोह लेता है और ताइवान के प्रति भारत की नीति पर पुनर्मूल्यांकन की जरूरत क्यों है, इसपर तर्क देता है.
भारत-ताइवान संबंधों की नींव ऐतिहासिक सावधानी पर आधारित है. चियांग परिवार के साथ अपने व्यक्तिगत संबंधों के बावजूद, जवाहरलाल नेहरू ने शुरुआती सालों में कुओमितांग के नेतृत्व वाले चीन गणराज्य (ROC) का समर्थन नहीं किया.
नेहरू के इस रुख को सन यात-सेन के सिद्धांतों से कुओमितांग के विचलन और जनता के साथ उनके बढ़ते अलगाव की उनकी धारणा से आकार मिला. इसी वजह से कुओमितांग को मेनलैंड चीन से बाहर कर दिया गया था. इसके अलावा, गुटनिरपेक्षता को लेकर नेहरू की प्रतिबद्धता चियांग काई-शेक के कम्युनिस्ट विरोधी धर्मयुद्ध के साथ विरोधाभासी थी.
ROC का दावा था कि 1962 का भारत-चीन युद्ध अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आक्रामकता का सबूत था. लेकिन दरअसल मैकमोहन रेखा की अस्वीकृति की वजह से वह भारत के हिस्से की भूमि दावा करता और इस मुद्दे पर दोनों के बीच बातचीत सफल नहीं हुई.
1990 के दशक में ताइवान का जब लोकतंत्रीकरण हुआ तब जाकर इन दावों को अंततः त्याग दिया गया. फिर भी, कूटनीतिक विवेक को ध्यान में रखते हुए भारत और ताइवान ने कुछ क्षेत्रीय मुद्दों पर साझा दृष्टिकोण का संकेत देते दिया और दोनों तिब्बती मुद्दे का समर्थन करने में एक साथ दिखे.
औपचारिक राजनयिक संबंधों की अनुपस्थिति के बावजूद, 1995 में व्यापार कार्यालयों की स्थापना ने भारत-ताइवान के बीच राजनयिक कार्यों के लिए आधार तैयार किया. विशेष रूप से उस साल भारत-ताइपे एसोसिएशन (ITA) और ताइपे आर्थिक सांस्कृतिक केंद्र (TECC) की स्थापना हुई.
दोनों के बीच द्विपक्षीय व्यापार में सराहनीय बढ़ोतरी देखी गई है, जो 2001 में 1.19 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 2022 में 8.45 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया है. विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने, निवेश और आर्थिक सहयोग को लगातार बढ़ाने के लिए कई समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किए गए हैं.
भारत की लुक/एक्ट ईस्ट (Look/Act East) पॉलिसी और ताइवान की न्यू साउथबाउंड नीति (New Southbound Policy) के बीच तालमेल संभावित रणनीतिक साझेदारी की नींव का संकेत देता है. भले ही मुख्य रूप से आर्थिक और लोगों से लोगों के संबंधों पर ध्यान केंद्रित किया गया है, लेकिन भारत की लुक/एक्ट पॉलिसी के विकास का इतिहास बताता है कि ये स्तंभ संबंधों को गहरा करने के लिए एक मजबूत मंच बनाते हैं.
फिर भी, जब दबाव बढ़ता है, तो भारत ने पीछे हटने का विकल्प चुना है. डोकलाम गतिरोध के बाद भारत की ओर से ताइवान में कोई संसदीय प्रतिनिधिमंडल नहीं गया (आखिरी बार जैसा कि 2017 में गया था). इसके अलावा, ताइवान के आसपास चीन के सैन्य अभ्यास की अन्य क्वाड सदस्यों की आलोचना के बीच भारत की चुप्पी से एक सतर्क नजरिया पता चलता है. यह असंगति भारत की ताइवान पॉलिसी का पुनर्मूल्यांकन करने, इसकी स्थिरता की जरूरत को रेखांकित करती है.
व्यापार और टेक्नोलॉजी: भले ही द्विपक्षीय व्यापार में बढ़ोतरी देखी गई है, लेकिन पूरी क्षमता का दोहन नहीं हुआ है. नई दिल्ली में ताइपे आर्थिक और सांस्कृतिक केंद्र (TECC) के अलावा, अब चेन्नई और मुंबई में कार्यालयों के साथ ताइवान ने भारत में अपनी संस्थागत उपस्थिति बढ़ा दी है. भारत-ताइवान मुक्त व्यापार समझौता, विशेष रूप से भारत में सेमीकंडक्टर विनिर्माण सुविधा की संभावना के साथ, अहम होगा.
भारत की ताइवान समर्थक व्यापार नीति भी जापान, दक्षिण कोरिया, संयुक्त राज्य अमेरिका और ताइवान के 'Fab 4' चिप गठबंधन के उद्भव के साथ पूरी तरह से मेल खाती है. जब भारत हरित ऊर्जा को अपना रहा है, ताइवान से टेक्नोलॉजी का ट्रांसफर क्रांतिकारी साबित हो सकता है. दोनों देश पहले से ही स्पेस टेक्नोलॉजी में सहयोग कर रहे हैं.
थ्रेट परसेप्शन/मैनेजमेंट: चीन, भारत-ताइवान संबंधों को खराब करने वाले संभावित कारक के रूप में उभर रहा है. भले ही चीन के खिलाफ 'ताइवान कार्ड' खेलने का प्रलोभन सामने हो, लेकिन यह स्थायी रणनीति नहीं है. रिश्ते को वास्तविक अहमियत और विश्वसनीयता देने के लिए पर्याप्त परस्पर निर्भरता बनाना अहम है. एक मजबूत भारत-ताइवान साझेदारी चीनी खतरे की वास्तविक क्षमता के लिए लिटमस टेस्ट के रूप में काम कर सकती है और जबरदस्ती की रणनीति के खिलाफ सामूहिक रुख पेश कर सकती है.
ट्रांसनेशनलिज्म: ताइवान में भारतीय प्रवासी भले ही संख्या में छोटे हैं, लेकिन उन्होंने 1970 के दशक से एक जीवंत समुदाय स्थापित किया है. उनकी मजबूत सामाजिक-आर्थिक स्थिति अंतरराष्ट्रीय संबंधों को व्यक्त करने का जरिया हो सकती है, जिसे नई दिल्ली को संबंधों को मजबूत करने के लिए संस्थागत बनाना चाहिए. इसके अलावा, ताइवान को कार्यबल की कमी का सामना करना पड़ रहा है, इसलिए भारत से ज्यादा कुशल श्रमिकों की मांग है, जो मानव पूंजी के माध्यम से संबंधों को मजबूत करने का मौका प्रदान करता है.
जैसे-जैसे भारत अपनी भू-राजनीतिक रणनीति पर आगे बढ़ रहा है, उसे अपनी ताइवान नीति पर फिर से विचार करना होगा. अदूरदर्शी चीन के चश्मे से रहित एक सुसंगत और व्यावहारिक नजरिया, सहयोग के नए रास्ते खोल सकता है. विशेष रूप से व्यापार, प्रौद्योगिकी और लोगों से लोगों के आदान-प्रदान में सहयोग.
राष्ट्रपति त्साई इंग-वेन से लेकर निर्वाचित राष्ट्रपति लाई चिंग-ते तक, DPP का ताइवान की सत्ता में बने रहना भारत के लिए एक सुनहरा मौका है. उभरती वैश्विक व्यवस्था यह मांग करती है कि भारत ताइवान जैसे देशों के साथ सार्थक साझेदारी बनाकर अपनी रणनीतिक स्वायत्तता पर जोर दे. ऐसा करके, भारत न केवल क्षेत्रीय स्थिरता में योगदान दे सकता है, बल्कि इंडो-पैसिफिक थिएटर में एक अहम खिलाड़ी के रूप में अपनी स्थिति को भी मजबूत कर सकता है.
(चेतन राणा, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में डॉक्टरेट कैंडिडेट (कूटनीति और निरस्त्रीकरण) और 9DASHLINE में एसोसिएट एडिटर हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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