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ताइवान की मदद से भारत हो सकता है सेमीकंडक्टर चिप्स के मामले में आत्मनिर्भर

वक्त आ गया है कि हम चीन से मुकाबला करने के लिए विदेशी और औद्योगिक नीतियों के बीच का फर्क मिटा दें.

अखिल रमेश
नजरिया
Updated:
<div class="paragraphs"><p>दुनिया भर में सेमीकंडर चिप्स की बढ़ी है मांग</p></div>
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दुनिया भर में सेमीकंडर चिप्स की बढ़ी है मांग

(फोटो- द क्विंट)

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पहले बीसवीं और अब इक्कीसवीं शताब्दी में भी दुनिया के शक्तिशाली देशों ने सहायता, व्यापार और वाणिज्य के जरिए विश्व मंच पर अपने पांव मजबूत किए हैं. ये आर्थिक शासन कला यानी स्टेटक्राफ्ट के औजार कहे जाते हैं. कई बार तो इन्हीं के जरिए देशों को बड़ी शक्ति का दर्जा भी हासिल हुआ है. भारत भी 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का सपना संजोये हुए है और अमेरिका, चीन और जापान जैसे ताकतवर देशों की श्रेणी में शामिल होना चाहता है. ऐसे में औद्योगिक और विदेशी नीतियों के बीच फर्क मिट रहा है और यह मुनासिब भी लग रहा है.

कुछ सालों के दौरान भारत ने समझा है कि अब हमें बचाव की नहीं, हमलावर की मुद्रा अपनानी चाहिए. विदेश नीति भी इसी तरह तैयार की जानी चाहिए. चीन भारत के पड़ोस में कर्ज में डूबे इंफ्रास्ट्रक्चर प्रॉजेक्ट्स पर मेहरबानी कर रहा है. उत्तरी सीमा में घुसपैठ हो रही है, देश में कोविड-19 महामारी ने हंगामा मचाया हुआ, अफगानिस्तान से अचानक अमेरिकी टुकड़ियां वापस लौट रही हैं. ऐसे में भविष्य के लिहाज से विदेश नीति बनाने की जरूरत है.

आर्थिक शासन कला विदेशी नीति की इसी श्रेणी में आती है और इसके जरिए विश्व के सबसे जीवंत लोकतंत्र और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र यानी ताइवान और भारत के बीच रिश्ते बेहतर हो सकते हैं.

एक चीन नीति से परे

आजाद और लोकतांत्रिक दुनिया में ताइवान को विश्व के प्रतिनिधि देशों में गिना जाता है, लेकिन विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत उसे आधिकारिक देश नहीं मानता. हालांकि विदेशी या सांस्कृतिक दफ्तरों के जरिए दोनों के बीच रिश्ते बने हुए हैं, लेकिन भारत एक चीन की नीति पर अमल करता है और उस नीति की समीक्षा करने की कोई गुंजाइश भी नहीं है. फिर भी ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां ताइवान और भारत के रिश्ते पनप सकते हैं. खास तौर से आर्थिक क्षेत्र में, और उसके विकसित होने की जबरदस्त संभावनाएं हैं.

2019 में गलवान घाटी की झड़प के बाद मोदी सरकार ने चीन से दूर हटने के लिए कुछ उपाय करने शुरू किए और चीनी आयात पर निर्भरता को कम करना शुरू किया. इसके लिए ‘आत्मनिर्भर भारत’ और ‘मेक इन इंडिया’ अभियानों को तेज किया गया. फिर 2020 में कोविड-19 महामारी ने इस अति निर्भरता से जुड़े जोखिमों को बढ़ाया और उसकी कमजोरियों से परदा हटाया.

इलेक्ट्रॉनिक और संबंधित उद्योगों में चीन पर निर्भरता बहुत अधिक थी, तो इस खालीपन को भरने का काम ताइवान कर सकता है. ताइवान विश्व में इलेक्ट्रॉनिक्स का सबसे बड़ा निर्यातक है और सेमीकंडक्टर चिप्स बाजार में उसकी हिस्सेदारी 60 प्रतिशत से अधिक है. सेमीकंडक्टर चिप्स का इस्तेमाल कारों, मोबाइल फोन्स, कंप्यूटर्स, सीसीटीवी कैमरा और दूसरे हाई टेक्नोलॉजी प्रॉडक्ट्स में होता है.

सेमीकंडक्टर की कमी ने उद्योगों को बुरी तरह प्रभावित किया है

अगस्त के पहले हफ्ते में भारत सरकार अमेरिका, जापान और ताइवान में अपने राजनयिकों से संपर्क कर रही थी और उनसे कह रही थी कि ऑटो इंडस्ट्री के बदतर हालात को सुधारने के लिए सेमीकंडक्टर चिप्स का बंदोबस्त करें. चूंकि विश्व में कई जगहों पर सेमी कंडक्टर चिप्स का उत्पादन रुक गया है और वर्क फ्रॉम होम (Work From Home) जैसे हालात में उनकी मांग में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है. यानी मांग और आपूर्ति के बीच बिल्कुल भी तालमेल नहीं रहा है.

इसका असर ऑटोमोबाइल उद्योग पर पड़ा, जिसमें सेमी कंडक्टर चिप्स इस्तेमाल होती हैं. इस वर्ष की शुरुआत में अमेरिका के डेट्रॉयट में ऑटोमोबाइल प्लांट्स में उत्पादन रोकना पड़ा था क्योंकि सेमीकंडक्टर चिप्स की आपूर्ति नहीं हो रही थी. तो अगर राजनयिकों की कोशिशें रंग नहीं लातीं तो मानेसर, पुणे और चेन्नई के ऑटोमोबाइल प्लांट्स का भी यही हश्र होगा. तीसरी तिमाही मे 80 हजार से एक लाख कारों के उत्पादन का नुकसान होगा.

अमेरिका में जो बाइडेन प्रशासन ने अपने दक्षिण-पश्चिमी राज्य एरिजोना में काम शुरू करने के लिए सेमीकंडक्टर फैब्रिकेशन यूनिट्स को प्रोत्साहित किया. यह 100-दिन की सप्लाई चेन का नतीजा था जिसकी समीक्षा की गई और उन क्षेत्रों की पहचान की गई जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण थे और जो चीन पर अत्यधिक निर्भर थे.

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इसी तरह भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन उपक्रमों को 1 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नकद प्रोत्साहन देने का प्रस्ताव रखा जो देश में अपनी इकाइयां लगाने में दिलचस्पी रखते थे. अगर बाइडेन ‘बिल्डिंग बैक बेटर’ के एजेंडा के साथ स्वदेशी पहल कर सकते हैं तो भारत में कारखाने लगाकर मोदी सरकार भी अपने ‘आत्मनिर्भर’ और ‘मेक इन इंडिया’ के लक्ष्य को हासिल कर सकती है.

टाटा की मजबूत पहल

टाटा के एन. चंद्रशेखरन उन लोगों में शामिल हैं जिन्होंने मौके का फायदा उठाया. उन्होंने इक्षा जाहिर की थी कि टाटा ग्रुप भी सेमीकंडक्टर मैन्यूफैक्चरिंग की चाह रखता है. इस पहल से सेमीकंडक्टर चिप्स की जरूरत पूरी होगी और टाटा मोटर्स की सप्लाई चेन में आने वाली रुकावटों से भी छुटकारा मिलेगा.

1999 में टाटा को डेट्रॉइट में अपमान का सामना करना पड़ा था, जब उसने अपने यात्री वाहन कारोबार को बेचने के लिए फोर्ड से संपर्क किया था. लगभग एक दशक बाद किस्मत ने इंसाफ कर दिया और टाटा ने फोर्ड की जगुआर और लैंड रोवर को खरीद लिया है.

टाटा ने हमेशा से भारत का सिर गर्व से ऊंचा किया है. टाटा कंपनी पश्चिमी कंपनियों के मुकाबले में हमेशा खड़ी रही. उसने भारत की सबसे पहली देसी कार इंडिका को डिजाइन और मैन्यूफैक्चर किया, साथ ही उच्च लाभ कमाने वाली ग्लोबल कंपनी साबित हुई.

पिछले प्रदर्शनों को देखते हुए टाटा इस काम के लिए मुफीद है. हालांकि दुनिया में सेमीकंडक्टर चिप्स की मैन्यूफैक्चरिंग में ताइवान की कुशलता का कोई सानी नहीं है. अगर Tata Sons और Taiwan Semiconductor Manufacturing Company (TSMC) के बीच सहयोग कायम होता है तो भारत में हाई टेक मैन्यूफैक्चरिंग की दुनिया का इतिहास ही बदल जाएगा. यह ताइवान के लिए भी अच्छा सौदा होगा. भारत की टाटा जैसी कंपनी का पार्टनर बनना उसके लिए भी फायदेमंद होगा. इससे पहले उसे विस्ट्रन और फॉक्सकॉन के साथ बुरे अनुभव हो चुके हैं और इससे उस खामियाजे की भरपाई हो सकेगी.

मोबाइल हैंडसेट्स से सबक

‘मेक इन इंडिया’ अभियान के लिहाज से मोदी सरकार की एक सफलता यह है कि भारत में भारतीयों के लिए मोबाइल हैंडसेट्स बनाए जा रहे हैं. 2014 में भारत में सिर्फ 50 मिलियन मोबाइल हैंडसेट्स बनते थे जोकि घरेलू मांग का सिर्फ 19 प्रतिशत है. 2020 में भारत में 260 मिलियन मोबाइल हैंडसेट्स बनते हैं और घरेलू मांग का 96 प्रतिशत है.

हालांकि इसे पूरी तरह से स्वदेशी नहीं कहा जा सकता क्योंकि कंपोनेंट्स के लिए इसे अंतरराष्ट्रीय आपूर्तियों पर निर्भर रहना पड़ता है, जैसे सेमीकंडक्टर चिप्स, इन्हें हर मोबाइल में लगाया जाता है.

इसलिए चीन के साथ होड़ करनी है तो सप्लाई चेन के हर चरण में स्वदेशीकरण की जरूरत है और इसके लिए वैल्यू चेन में बढ़त बनानी होगी. यह उन पश्चिमी कंपनियों पर भरोसा किए बिना संभव होगा, जिन्होंने अतीत में भारतीय उद्यमों को नजरंदाज किया है और अपमानित भी.

भारत आर्थिक शासनकला का इस्तेमाल कर रहा है, और निजी कंपनियों की मदद से एशिया के एक जीवंत लोकतंत्र से बेहतर रिश्ते बना रहा है. इससे उसे आत्मनिर्भर होने में मदद मिलेगी. हाई टेक मैन्यूफैक्चरिंग में वह अग्रणी देश बनेगा. भविष्य में सप्लाई चेन में रुकावट नहीं आएगी.

अगर विदेशी मामलों का मंत्रालय सेमीकंडक्टर चिप्स को हासिल करने के लिए कूटनीतिक रास्ता अख्तियार कर रहा है, तो यह विदेश और औद्योगिक नीति के विलय का पहला चरण है. ‘आत्मनिर्भर भारत’ के लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ाना और ताइवान से साझेदारी इसका अगला कदम है.

(अखिल रमेश पेसेफिक फोरम यूएस में नॉन रेज़िडेंट वेसी फेलो हैं। वह अमेरिका, भारत और फिलीपींस में रिस्क कंसल्टिंग फर्म्स, थिंक टैंक्स और ब्लॉकचेन इंडस्ट्री में काम कर चुके हैं। उनका ट्विटर हैंडिल @akhil_oldsoul है। यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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Published: 18 Aug 2021,08:33 AM IST

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