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सेना और सोशल सर्विस: आर्मी को 'पक्षपातपूर्ण' कामों में घसीटने के क्या नतीजे होंगे?

सेना के मोटो 'स्वयं से पहले सेवा' को शायद ज्यों का त्यों मानने की गलती की जा रही है.

रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल भूपिंदर सिंह
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>सेना और सोशल सर्विस- दखल और दुरुपयोग का फिसलन भरा रास्ता</p></div>
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सेना और सोशल सर्विस- दखल और दुरुपयोग का फिसलन भरा रास्ता

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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क्या लोकतांत्रिक देशों में सेना के जवानों (Indian Army) को गैर पेशेवर कामों में जैसे सरकारी और सामाजिक नीतियों के प्रचार में लगाया जाना चाहिए ? क्या नागरिक-सामाजिक काम करने से सैनिकों के व्यवहार के अनुचित होने, या उनके अप्रभावी होने का खतरा नहीं पैदा होता? क्या ये सही भी है?

ये सवाल हाल की खबरों से उठने लगे हैं, जब सेना मुख्यालय ने सैनिकों से पेशकश की है कि जब सेना के जवान छुट्टी पर घर जाए तो विभिन्न सरकारी योजनाओं और नीतियों के बारे में लोगों को बताएं और इस प्रकार वे 'समाज की सेवा' करें.

क्या यह सिर्फ हमारी अटकलें हैं, या हम शुरू में सामान्य से लगने वाले उस विचार को लेकर कुछ ज्यादा ही फिक्रमंद हो रहे हैं, जो बाद में खतरनाक ‘प्रयोग’ में बदल जाते हैं और बदस्तूर रहते हैं (अग्निवीर तो याद ही होगा).

सैन्य बल अराजनैतिक होते हैं और सिर्फ संविधान के प्रति जवाबदेह

किसी भी लोकतंत्र में सेना पर नागरिक नियंत्रण और अधिकार, दोनों होता है. इसलिए, सैनिकों की 'संगीन में चमक' बरकरार रहे, इसलिए इन दोनों के बीच जानबूझकर पर्याप्त 'दूरी' रखी जाती है.

सैनिकों के लिए अलग छावनियां और बैरकें रखकर दूरी बरकरार रखी जाती है. उनके लिए तय होता है कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं? वे राजनैतिक/पक्षपातपूर्ण भाव नहीं दिखा सकते हैं और उनके लिए ओएलक्यू (ऑफिसर्स लाइक क्वालिटीज, यानी अधिकारियों जैसी विशेषताएं) जैसी अवधारणाओं को प्रोत्साहित किया जाता है.

भारतीय सेना बड़े अनूठे तरीके और कड़ाई से यह दूरी बरकरार रखती है, जोकि आचरण, संस्कृति, मानकों और क्षमता, सभी लिहाज से अन्य ‘वर्दीधारियों’ जैसे पुलिस बलों के मुकाबले बहुत अलग होता है. दूसरी तरफ, पुलिस बलों की संरचना ही ऐसी है कि वे सामाजिक और राजनैतिक वर्गों से जुड़े हुए होते हैं लेकिन सैन्य बलों के साथ ऐसा नहीं है.

वे ऐतिहासिक रूप से इस बात पर गर्व करते हैं कि वे अराजनैतिक हैं और सिर्फ भारत के संविधान के प्रति जवाबदेह हैं, बेशक!

आर्मी को पक्षपातपूर्ण कामों में घसीटने के क्या होंगे नतीजे?

बदकिस्मती से पुलिस बलों पर लगातार राजनीतिकरण और पक्षपात का आरोप लगता रहा है, इसलिए कथित रूप से अराजनैतिक, निष्पक्ष और ‘दूरी बनाए रखने वाले’ सेना को मणिपुर से लेकर नूंह तक पुलिस वालों की जगह पर तैनात किया गया.

प्रभावित इलाकों में स्थानीय लोग पुलिस वालों के मुकाबले भारतीय सैनिकों पर भरोसा करते थे (या उनसे डरते थे), इसलिए आम लोगों की नजरों में भारतीय सैनिक का ओहदा कुछ ऊंचा बना रहा (कई सर्वेक्षणों से यह पता चलता है) और इसमें हैरानी की कोई बात नहीं.

इन सबसे अलग, आम लोगों से भारतीय सैनिकों की एक खास किस्म की दूरी की वजह से यह माना जाता है कि पुलिस वालों के मुकाबले वे लोग अधिक अनुशासित होते हैं. उनका आचरण नियमबद्ध होता है. प्रशिक्षण और नेतृत्व में अंतर की वजह से यह ‘दूरी’ महत्वपूर्ण थी. अब, क्या भारतीय सैन्य सैनिकों के लिए सुझाए गए कदम से महत्वपूर्ण 'दूरी' से समझौता हो जाएगा? सीधा जवाब है- हां.

भारतीय सैनिक पहले ही दबाव में हैं- उन्हें यहां-वहां तैनात किया जा रहा है (आंतरिक स्तर पर भी, जबकि उन्हें सीमाओं पर ही तैनात किया जाना चाहिए) और उन्हें 'सामाजिक सेवा' का काम भी सौंपा जा सकता है, जिसके चलते वे अवांछित सामाजिक नैतिकता और पतन का शिकार हो सकते हैं.

एक ऐसे संगठन में जिसमें सैना जवानों की तैनाती के लोकेशन सहित अन्य पहलुओं को गोपनीय रखा जाता है (यानी कौन सी यूनिट कहां तैनात है). यह सवाल लाजमी है कि क्या अपरिचित लोगों के साथ कम्यूनिकेशन से गोपनीयता बरकरार रखेगी, या उस पर खतरा मंडराएगा?

'सामाजिक सेवा' करने वाले सैनिकों में भी सामाजिक राजनैतिक भावनाएं जन्म लेगी और वे इसमें फंस जाएंगे. परिवार और दोस्तों के साथ एक सीमा से परे ‘खुलने’ का खतरा, उन्हें नुकसान की तरफ धकेल सकता है.

अफसोस की बात है कि ‘खुलेपन’ की भावना लगातार जोर पकड़ रही है. छावनियों के दरवाजों को शाब्दिक रूप से खोला गया है (यहां तक कि छावनियों को खत्म भी किया गया है). सैनिकों को सियाचिन से कचरा समेटने में लगाया जा रहा है (जैसा कि वह करते ही, क्योंकि कई बार किसी आधिकारिक आदेश की जरूरत नहीं होती, लेकिन उनसे ऐसा करने को कहना, एक अलग ही बात है), योगा मैट बिछवाई जा रही है, या धर्मगुरुओं के लिए नदी पर पुल बनवाया जा रहा है और इन सबके लिए सफाई दी गई, जो काफी परेशान करने वाली है लेकिन यह सब पतन की तरफ ही इशारा करते हैं.

जब ढिलाई नियम बन जाए

ऐसी ढिलाई के साथ दिक्कत यह है कि यह भोली भाली जनता को भावुकता की तरफ धकेलती है, और उन्हें भविष्य की दूसरी ढिलाइयों में कोई नुकसान नजर नहीं आता, जैसे अग्निवीर योजना. राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण, रोजगार के अवसरों को बढ़ाना, खर्चे कम करना, इन सबको भारतीय सशस्त्र सेना के साथ जोड़ना न तो उचित है, और न ही सुविधाजनक, चूंकि सेना पहले ही काफी दबाव में है.

कई दिग्गजों ने भी 'बड़े मकसद' की दुहाई देकर, इस कदम का स्वागत किया था और कहा था कि प्रयोग करते रहना चाहिए. लेकिन क्या सशस्त्र बल इस मूर्खतापूर्ण उम्मीद के साथ प्रयोग का क्षेत्र हैं? जो लोग चार साल का प्रशिक्षण लेंगे और अपनी सेवाएं देंगे, वे वैसे ही काम कर पाएंगे, जैसे लंबे समय से अपनी सेवाएं देने वाले लोग करेंगे. (उस पर बैरक में यह बुरी भावना भी पैदा होगी, कि चार में से कौन एक शख्स सेना में लंबे समय तक अपनी सेवाएं देने के लिए चुना जाएगा).

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रेजिमेंटेशन की परंपरा और पवित्र भावना ने भारतीय सेना की आधारशिला रखी है, आज उसके साथ खिलवाड़ किया जा रहा है. आज, एक निश्चित रैंक के प्रस्ताव के बाद व्यक्तिगत रेजीमेंटेशन को दर्शाने वाले तत्वों को खत्म करने की बात की जा रही है. सचमुच? यह उन राजनैतिक वर्गों का पाखंड है, जो जन्म, जातीयता, धर्म और जातिवादी आधार पर लोगों को बांटते हैं, और राज करते हैं.

लेकिन फौजी मामलों पर मुल्की हाकिमों का अख्तियार शायद अब उस दूरी पर आधारित नहीं है, जैसा कि पहले समझा जाता था बल्कि सामाजिक-पक्षपातपूर्ण टकरावों, ‘बड़े मकसदों’ और परंपराओं और लोकचारों को खत्म करने पर टिका है.

सशस्त्र सेना को अंतिम उपाय के तौर पर जाना जाता था, इस्तेमाल किया जाता था और इसकी वाजिब वजहें थीं लेकिन अब यह प्रयोग और सार्वजनिक दिखावे का पहला उपाय बन गया है. इसका नतीजा यह हुआ है कि मैनपावर, मैटेरियल की कमी और बहुत ज्यादा प्रतिबद्धता दिखाने के चलते, सैनिकों पर अतिरिक्त दबाव है. इस कारण वे मानसिक और शारिरिक दोनों रूप से थक गए हैं. इससे निजात पाने के लिए सैनिकों को छुट्टी में आराम करने और अपना ध्यान रखने की जरूरत है, न कि सामाजिक सेवा करने की.

सेना का आदर्श वाक्य है, 'स्वयं से पहले सेवा' शायद इसे शब्दशः मानने की गलती की जा रही है.

भारतीय सशस्त्र बलों को आजादी से काम करने दिया जाए

हां, चाइनीज पीएलए (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) सामाजिक सेवा करती है. चूंकि वह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) की सशस्त्र शाखा है, किसी संप्रभु देश की सेना नहीं है लेकिन यह बात भारतीय सशस्त्र बलों पर लागू नहीं होती. वह साफ तौर से भारत की एक पेशेवर और सैन्य शाखा है, जिसकी संवैधानिक भूमिका स्पष्ट है.

इसी तरह, पाकिस्तानी 'इस्टैबलिशमेंट' (पाकिस्तान सेना) जैसे 'स्टेट विदइन अ स्टेट' भी अपने निहित एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए दिखावटी 'सामाजिक सेवा' कर सकती है (जैसा कि वे करते हैं) लेकिन भारतीय सेना का सिर्फ एक एजेंडा है- राष्ट्र की अखंडता.

सामाजिक सेवा' और यहां तक कि आंतरिक कानून और व्यवस्था जैसी जिम्मेदारियों के लिए कई दूसरी एजेंसियां भी हैं, और अगर वे खराब प्रदर्शन कर रही हैं तो उनके साथ प्रयोग किए जाएं. उनमें सुधार किया जाए और उन्हें अतिरिक्त काम सौंपे जाए- न कि सशस्त्र बलों को.

आखिर में यह सोचना कि सरकारी योजनाओं में कोई पक्षपातपूर्ण नजरिया नहीं होता, नासमझी ही होगी. इसका उदाहरण है मनरेगा बनाम 'स्वच्छ भारत', दोनों जारी हैं लेकिन अलग-अलग व्यवस्थाओं के लिए उत्तरदायी और जिम्मेदार हैं.

कभी-कभी नीतियां स्पष्ट रूप से ब्रांडिंग और ग्राफिकल प्रेजेंटेशन के साथ पक्षपातपूर्ण हो सकती हैं, जो राजनीतिक नेताओं की छवि और पदों की तरफ इशारा करती हैं. ऐसे में सैनिकों को उनके साथ 'सामाजिक सेवा' क्यों करनी चाहिए, जहां मकसद सियासी है?

सालों पहले, एक विवादास्पद आर्मी जनरल जो उन दिनों सत्तासीनों के काफी करीबी माने जाते थे, ने भी एक ‘प्रयोग’ किया था. उन्होंने सैनिकों को ‘प्रॉजेक्ट अमर’ में कंस्ट्रक्शन साइट्स पर मजदूरों की तरह इस्तेमाल किया था (जिसका उन्हें इनाम भी मिला था)- इतना कहना काफी होगा कि 1962 की जंग में उनका अपना अपमानजनक व्यवहार हैरान करने वाला नहीं था.

जैसी घटनाएं हो रही हैं, उसे देखते हुए आने वाले वक्त में राजनेता यह पेशकश भी कर सकते हैं कि सैनिकों को चुनावों में भी अपनी ‘सामाजिक सेवाएं’ देनी होंगी. कुछ भी मुमकिन है. कयामत का दिन कभी भी आ सकता है! सोचिए कि 'सामाजिक सेवा' की यह अवधारणा पुलिस बलों, रेलवे, नौकरशाही, पीएसयू आदि के सामने क्यों नहीं रखी गई, क्योंकि उनकी तरफ से कड़ा विरोध हो सकता है.

हां, कोई कह सकता है कि यह छुट्टी पर जाने वाले सैनिकों के लिए एक ‘स्वैच्छिक’ सुझाव है, लेकिन फिर भी हमें यह समझना होगा कि सेना में व्यावहारिक रूप से कुछ भी ‘स्वैच्छिक’ नहीं होता, जिंदगी भी नहीं. ये सैनिक ‘अंतिम बलिदान’ भी देते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि अपनी ‘इच्छा’ से करते हैं. वे अपनी कर्तव्य की भावना से ऐसा करते हैं.

सेना स्पष्टवादी और ‘जोशीली काबिलियत’ वाली होती है क्योंकि वह खुद को सौंपा गया हर काम पूरा करती है, भले ही वह 'स्वैच्छा' के दायरे में आता हो, और यहीं राह भटकने का खतरा पैदा होता है, जिसका नतीजा दखल, दुरुपयोग और अंततः गैरवाजिब गिरफ्त है.

(लेखक अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और पुद्दूचेरी के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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