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इंदिरा और खाद्यान्न व्यापार का राष्ट्रीयकरणः 'कट्टर समाजवाद' की नाकामी

अप्रैल 1973 में अनाज के थोक व्यापार का 'राष्ट्रीयकरण' करने का फैसला उनकी सबसे कम चर्चित बड़ी भूलों में से एक थी.

यशवंत देशमुख & सुतानु गुरु
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>अनाज के थोक व्यापार का 'राष्ट्रीयकरण' करने का फैसला इंदिरा गांधी की कम चर्चित भूल थी</p></div>
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अनाज के थोक व्यापार का 'राष्ट्रीयकरण' करने का फैसला इंदिरा गांधी की कम चर्चित भूल थी

(फोटो: क्विंट हिंदी) 

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(यह चार-भाग की सीरीज का दूसरा पार्ट है. इस सीरीज में हम ऐसी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं या नीतियों पर गौर करेंगे, जिनसे मिले सबक मौजूदा वक्त की राजनीति और समाज में भी प्रासंगिक हैं. इसका पहला पार्ट यहां पढ़ें.)

1971 में स्वर्गीय इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) का देवी दुर्गा जैसी शख्सियत से 1975 में आपातकाल लागू करने वाली एक अलोकप्रिय निरंकुश शख्सियत में बदलाव ऐतिहासिक भूलों से सबके सीखने वाला अध्याय है. उनके गलत राजनीतिक फैसलों, जिनके चलते उनकी सरकार का बड़े पैमाने पर विरोध हुआ, को लेकर समकालीन इतिहासकारों और विद्वानों ने काफी कुछ लिखा है. लेकिन 1971 में उनकी ऐतिहासिक चुनावी जीत के बाद उन्होंने जो असल गलतियां कीं — वो उनकी आर्थिक नीतियां थीं.

निश्चित रूप से अप्रैल 1973 में खाद्यान्न के थोक व्यापार का "राष्ट्रीयकरण" करने का फैसला उनकी ऐतिहासिक भूलों में सबसे कम चर्चा में रहा. उस फैसले की गूंज 50 साल बाद भी भारत में महसूस की जाती है. इसके तीन पहलू थे.

पहली धारणा यह है कि व्यापारी और जमाखोर किसानों का जायज हक मारकर लूटते-खसोटते हैं. दूसरा, कई भारतीयों का ऐसा पक्का यकीन है कि कारोबारी ताकतें किसानों और उपभोक्ताओं के प्रति ईमानदार नहीं हैं. तीसरा है भारतीय खेती में हमेशा संकट जैसे हालात का बना रहना.

नवंबर 2021 में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा तीन कृषि कानूनों (Farm Laws) को वापस लेना इस मानसिकता की विरासत की बहुत बड़ी निशानी है.

खाद्यान्न की ‘आपूर्ति’ समस्या

अप्रैल 1973 में असल में क्या हुआ था? यह सब जानते हैं कि इंदिरा गांधी ने आर्थिक नीति के क्षेत्र में "कट्टर समाजवाद" को अपनाया. 1947 में आजादी के बाद से निजी क्षेत्र के लिए रोपा गया अविश्वास का बीज उनके मन में गहरी जड़ें जमा चुका था. उनके सलाहकारों का मानना था कि सरकार के पास हर आर्थिक समस्या का इलाज है. ऐसे में जब बार-बार मॉनसून की नाकामी से खाद्यान्न "आपूर्ति" की बहुत बड़ी समस्या पैदा हो गई, तो इंदिरा गांधी और उनके सलाहकारों ने गेहूं और चावल की कमी के लिए निजी क्षेत्र के "जमाखोरों" को जिम्मेदार ठहराया और सोचा कि "सरकार" हालात को दुरुस्त कर सकती है.

संकट हकीकत में था. 1970-71 में भारत में खाद्यान्न उत्पादन 108.4 मिलियन टन था. 1972-73 में यह घटकर 97 मिलियन टन रह गया; 1973-74 में किसी तरह 104 मिलियन टन तक पहुंच गया और 1974-75 में फिर गिरकर 99.8 मिलियन टन पर पहुंच गया.

राशन की दुकान के सामने गेहूं और चावल के लिए बेकाबू लाइनों में घंटों खड़े रहना अब भी लोगों को याद होगा. कम भाग्यशाली लोगों को अक्सर गेहूं या चावल नहीं मिल पाने पर बिना खाए रहना पड़ता था; आज के पाकिस्तान के लाचार नागरिकों की तरह. तंगहाली ने मुद्रास्फीति को दो अंकों में पहुंचा दिया. पाकिस्तान के खिलाफ 1971 के युद्ध और बांग्लादेश बनने के बाद इंदिरा गांधी की आसमान पर पहुंची लोकप्रियता 1973 में गिरने लगी थी.

वरिष्ठ पत्रकार-लेखक खुशवंत सिंह ने 1973 में द न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए लिखा था: "जल्द बफर स्टॉक करीब-करीब खत्म हो गया था, लेकिन सरकार अमीर देशों, खासतौर से संयुक्त राज्य अमेरिका, जिसने बांग्लादेश मामले में भारत के खिलाफ पाकिस्तान का समर्थन किया था, से मदद मांगने की ख्वाहिशमंद नहीं थी. एक बार फिर इस बसंत में, भारत का खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर होने का सपना दुःस्वप्न में बदलता लग रहा है; सूखा और अकाल खेतों में पसरा है और पुरानी कहावत दोहराई जा रही है: भारत की खेती बारिश पर निर्भर जुआ है."

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स्टालिन और माओ की नकल

प्रधानमंत्री ने जवाब में खाद्यान्नों के थोक व्यापार का "राष्ट्रीयकरण" कर दिया; यह उनके "गरीबी हटाओ" नारे की चरम परिणति थी, जिसके चलते उन्हें 1971 के लोकसभा चुनाव में भारी जीत मिली थी. आसान तर्क था: निजी व्यापारियों ने गरीब किसानों को धोखा दिया और उनका शोषण किया जिससे खाद्यान्न की कमी हो गई. "सरकार" न केवल किसानों को ज्यादा फायदेमंद कीमतों का भुगतान करेगी, बल्कि जमाखोरी की बुराई को भी खत्म करेगी, जिसके चलते खाद्यान्नों की कमी हुई और दाम बढ़े, खासतौर से गेहूं के.

सोवियत संघ में जोसेफ स्टालिन और चीन में माओत्से तुंग ने ऐसा ही किया था. अचंभा नहीं कि मार्क्सवादियों ने इस "क्रांतिकारी" फैसले की तारीफ की. ध्यान रहे कि इस कदम के लिए भारी जनसमर्थन था, क्योंकि व्यापारी वर्ग नफरत का पात्र था जैसा कि उस दौर की बॉलीवुड फिल्मों में उन्हें दिखाया जाता था. लेकिन इंदिरा गांधी शायद भूल गईं कि अच्छाई के पीछे-पीछे बुराई भी चलती है. राष्ट्रीयकरण के बाद खाद्यान्न संकट असल में और गहरा गया और कमी ज्यादा गंभीर हो गई.

खाद्यान्न कारोबार का राष्ट्रीयकरण करने के एक महीने के अंदर, खाद्यान्न मुद्रास्फीति बढ़ गई, क्योंकि गेहूं की रबी फसल उम्मीद से बहुत कम हुई थी. आजाद भारत में मुद्रास्फीति के सबसे खराब चार महीनों में से एक "क्रांतिकारी" फैसले के फौरन बाद 1973 में अप्रैल से जुलाई तक था.

1973 के अंत में अरब-इजरायल युद्ध और OPEC (पेट्रोलियम निर्यातक देशों का संगठन) द्वारा क्रूड ऑयल की कीमतें बढ़ाने का फैसला ताबूत में अंतिम कील साबित हुआ. दिसंबर 1973 में मुद्रास्फीति दिसंबर 1972 की तुलना में 26 फीसद ज्यादा थी. बहुत से विश्लेषक अब कहते हैं कि गुजरात और बिहार में छात्रों का बड़े पैमाने पर प्रदर्शन, जो जयप्रकाश नारायण की "सम्पूर्ण क्रांति" में तब्दील हुआ और नतीजे में इमरजेंसी लागू करने का फैसला, राजनीतिक वजहों के बजाय आर्थिक कठिनाइयों से ज्यादा प्रेरित था. इस लेख के लेखकों को भी लगता है कि विश्लेषकों का यह आकलन सही है, और आंकड़े इसकी गवाही देते हैं.

पुरानी सोच अभी भी कायम है

एक साल के अंदर कठोर इंदिरा गांधी को अपने "क्रांतिकारी" फैसले की बेवकूफी का एहसास हुआ, और पॉलिसी का त्याग कर दिया गया. निजी व्यापारी गरीब किसानों को "ठगने और लूटने" के अपने परंपरागत काम पर वापस लौट आए. हरित क्रांति की देन है कि इसके 50 साल बाद भारत में खाद्यान्न की कमी बीते जमाने की बात हो चुकी है. लेकिन 50 साल पुराना नजरिया और पूर्वाग्रह आज भी कायम है.

बहुत से भारतीय अभी भी मानते हैं कि भारतीय किसान "माई बाप" सरकार की बैसाखी के बिना जी और फल-फूल नहीं सकते हैं. यह एक रहस्य है कि अभी भी ऐसी सोच क्यों कायम है.

इसमें कोई शक नहीं है कि निजी कारोबारी फरिश्ते नहीं हैं या न ही उनके दिल में नेकी का दरिया बहता है. फिर भी 1991 के बाद से यह दिखाने के लिए काफी सबूत हैं कि उन्होंने कई क्षेत्रों में बहुत शानदार काम किया है.

1980 के दशक की शुरुआत से हम सभी एक अनुत्तरित प्रश्न पूछ रहे हैं: अगर बजाज भारत में कहीं भी दोपहिया वाहन बेच सकता है, तो भारतीय किसान अपनी उपज के साथ ऐसा क्यों नहीं कर सकता है?

(यशवंत देशमुख और सुतानु गुरु CVoter Foundation में काम करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यह लेखकों के अपने विचार हैं. द क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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