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अप्रैल 2011, अन्ना आंदोलन और फिर UPA का पतन.. अतीत से BJP क्या सबक ले सकती है?

Anna Hazare का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अभी भी भारत के लोकतंत्र के बारे में कुछ पेचीदा सवाल उठाता है.

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(यह चार-भाग की सीरीज का पहला पार्ट है. इस सीरीज में हम ऐसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं या नीतियों पर गौर करेंगे, जिनसे मिले सबक मौजूदा वक्त की राजनीति और समाज में भी प्रासंगिक हैं.)

ग्यारह साल पहले अप्रैल 2011 की शुरुआत में भारत दो रास्ते पर एक साथ खड़ा था. 2 अप्रैल को भारतीय जनता पूरे सबाब पर थी. भारतीय क्रिकेट टीम के कैप्टन महेंद्र सिंह धोनी के एक बड़े हेलीकॉप्टर छक्के से भारत विश्व कप (World Cup) फाइनल में श्रीलंका को हरा दिया था. रविवार, 3 अप्रैल को लगभग पूरा देश जीत का जश्न मना रहा था.

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अगले दिन 5 अप्रैल को पटाखे फूटने बंद हुए ही थे कि गांधीवादी भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना हजारे ने नई मुहिम शुरू कर दी. उन्होंने 5 अप्रैल 2011 को शुरू होने वाले आमरण अनशन का ऐलान किया. यह अनशन तब तक चला, जब तक यूपीए शासन द्वारा लोकपाल को सशक्त बनाने वाला एक नया कानून संसद द्वारा पारित नहीं किया गया.

मिडिल क्लास शहरी भारतीय जनता का वही समूह जो धोनी, सचिन तेंदुलकर और युवराज सिंह की वाहवाही में व्यस्त था, वो अन्ना हजारे और कार्यकर्ताओं की आवाज में आवाज मिलाने लगा. अन्ना हजार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध का ऐलान किया था. लेखकों सहित कई विश्लेषकों के मन में इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं है कि अन्ना हजारे के आमरण अनशन ने यूपीए शासन के पतन का रास्ता तैयार किया.

"आमरण अनशन" केवल पांच दिनों तक चला. यूपीए सरकार द्वारा उनकी मांगे स्वीकार किए जाने के बाद अन्ना हजारे ने 9 अप्रैल को अपना अनशन बंद कर दिया. लेकिन इसकी गूंज इतनी तेज थी कि उसने 2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के अपमानजनक हार में बड़ी भूमिका निभाई. पावरफुल पार्टी कांग्रेस की पूरे देश में सिर्फ 44 लोकसभा सीटें बचीं. पार्टी उस हार के बाद से अभी तक उबर नहीं पाई है.

क्या भ्रष्टाचार करने वालों को वोटरों ने सजा दी?

अन्ना आंदोलन अभी भी भारत के लोकतंत्र के बारे में कुछ पेचीदा सवाल उठाता है. क्या वोटर्स उन राजनेताओं को दंडित करते हैं, जिन्हें भ्रष्ट माना जाता है? बिहार में लालू प्रसाद यादव, तमिलनाडु में दिवंगत जयललिता और यहां तक कि कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा भी इस सिद्धांत से असहमत होंगे.

क्या शिक्षित शहरी मिडिल क्लास भारतीय चुनाव के वक्त मतदान के व्यवहार को प्रभावित करता है? क्या कांग्रेस इस वजह से कमजोर हुई कि उसे भ्रष्ट माना गया था या उसे नुकसान हुआ क्योंकि उसे हिंदू विरोधी माना गया था?

सबसे अहम बात यह है कि आर्थिक संकट ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली मौजूदा एनडीए सरकार के खिलाफ बड़े पैमाने पर शहरी गुस्से को क्यों नहीं भड़काया है, जैसा कि इसने UPA के दूसरे कार्यकाल के दौरान किया था? इस पर कुछ आश्चर्यजनक सवाल उठते हैं.

मई 2009 में कोई भी इसकी कल्पना नहीं कर सकता था, जब यूपीए सरकार दूसरी बार सत्ता में आई थी. 15 साल में पहली बार कांग्रेस ने लोकसभा में 200 का आंकड़ा पार किया था. सभी राजनीतिज्ञों को यकीन हो गया था कि डॉ मनमोहन सिंह किसी भी वक्त भारत के प्रधान मंत्री की कुर्सी तक राहुल गांधी की पहुंच के लिए रास्ता बनाएंगे. लेकिन जल्द ही वह दावें ख्याली पुलाव साबित हुए.

एक साल के अंदर ही 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों से पहले यूपीए सरकार पर बड़े भ्रष्टाचार के आरोप लगे. इस "घोटाले" पर जनता का इतना गुस्सा देखा गया कि सीडब्ल्यूजी की आयोजन समिति के प्रमुख और कांग्रेस नेता सुरेश कलमाड़ी की 60 हजार दर्शकों ने हूटिंग की और मजाक उड़ाया. इस दौरान (अक्टूबर 2010) वो CWG के उद्घाटन समारोह में शामिल हुए थे. अजीब बात है कि यूपीए सरकार के बड़े पदाधिकारियों ने शहरी भारत में इस मुद्दे पर उठी आवाज को नजरअंदाज कर दिया.

अन्ना अकेले ने कैसे तोड़ी UPA की कमर?

यूपीए को बुरी तरह प्रभावित करने वाला सिर्फ राष्ट्रमंडल खेल घोटाला नहीं था. CWG के उद्घाटन के महीनों पहले, भारत के तत्कालीन नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (Comptroller & Auditor General of India) विनोद राय ने एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें UPA के पहले कार्यकाल के दौरान 2G टेलीकॉम लाइसेंस के आवंटन में बड़े पैमाने पर अनियमितताओं को उजागर किया गया था. इस दौरान DMK नेता अंदिमुथु राजा मंत्री थे.

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फरवरी 2011 में, RBI ने कथित दूरसंचार घोटाले के लिए अंदिमुथु राजा के साथ कई अन्य लोगों को गिरफ्तार किया. और अन्ना हजारे के आमरण अनशन की घोषणा के दो दिन पहले, सीबीआई ने 2जी घोटाले में न्याय देने के लिए विशेष रूप से स्थापित एक कोर्ट में अपनी पहली चार्जशीट दाखिल की.

"वक्त" इससे बेहतर नहीं हो सकता था क्योंकि UPA शासन के कथित भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता का गुस्सा सातवें आसमान पर था. भारत के प्रमुख शहरों में लोगों ने अन्ना हजारे और उनकी भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम के समर्थन में मार्च किया और रैली की थी.

आम लोगों ने दिल्ली में इंडिया गेट पर उस वक्त डांस किया और जश्न मनाया, जब खबर आई कि सरकार ने लोकपाल की एक स्वतंत्र संस्था बनाने की प्रक्रिया शुरू करने की मांग मान ली है. अगस्त 2011 में अन्ना हजारे एक और अनशन पर बैठे क्योंकि यूपीए के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप तेजी से बढ़ते जा रहे थे.

एक साल के अंदर "कोल गेट" घोटाला सामने आया, जब सीएजी ने प्राइवटे सेक्टर के खिलाड़ियों को कोयला खदानों के आवंटन में अनियमितताओं को उजागर करने वाली एक और रिपोर्ट जारी की. चूंकि यह सब लगभग हाल ही का इतिहास है, यहां तक कि भारत का युवा भी अन्ना आंदोलन के बड़े प्रभाव से परिचित हैं. इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता है कि अन्ना हजारे ने यूपीए को लालकृष्ण आडवाणी जैसे विपक्षी दिग्गजों की तुलना में अधिक नुकसान पहुंचाया.

लोकतंत्र में राजनीति विडंबनाओं से भरी होती है. अन्ना आंदोलन के कुछ सक्रिय भागीदार और समर्थक अब बीजेपी के सीनियर पदाधिकारी हैं.
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ज्यादातर लोगों ने अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी बनाने के लिए हाथ मिलाया. पार्टी अब दिल्ली और पंजाब में सरकारें चलाती है और इसके सुप्रीमो केजरीवाल भारत के प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखते हैं.

AAP के गठन की मूल वजह भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग थी. फिर भी, पार्टी के दो सबसे सीनियर लीडर मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन भ्रष्टाचार और मनी लॉन्ड्रिंग के आरोपों का सामना करते हुए सलाखों के पीछे हैं. कई कांग्रेस समर्थक अभी भी आश्चर्य करते हैं कि अन्ना आंदोलन क्या था.

(यशवंत देशमुख और सुतनु गुरु CVoter Foundation के साथ काम करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखकों के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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