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31 अक्टूबर 1984 की उस दुर्भाग्यपूर्ण सुबह इंदिरा अपनी पोती प्रियंका को स्कूल जाने नहीं दे सकती थीं क्योंकि वह खुद उसे स्कूल के लिए तैयार किया करती थीं. उन्होंने राहुल को कसकर गले लगाया और मौत होने पर न रोने की बात याद दिलाई.
इसके दो दिन पहले इंदिरा भुवनेश्वर में थीं. अपना आखिरी भाषण दे रही थीं. वरिष्ठ आईएएस अधिकारी वजाहत हबीबुल्लाह उनके साथ थे.
हाल में प्रकाशित संस्मरण माइ ‘ईयर्स विद राजीव गांधी- ट्राइम्फ एंड ट्रैजेडी’(वेस्टलैंड पब्लिकेशन्स) में हबीबुल्लाह याद करते हैं कि इंदिरा का भाषण किस तरह प्रधानमंत्री के तौर पर किए गये उनके कामों का सार था, “देश को एकजुट रखने का उनका अथक प्रयास, राष्ट्रहित में उनके विचार, जिस आधार पर विदेश नीतियां तैयार हुईं और अब वह मान रही थीं कि यह भारत के लोगों की जिम्मेदारी है. वह कुछ इस तरह अपनी विरासत उन लोगों को बता रही थीं मानो वे उनके अपने हों जिन्हें वह बहुत प्यार करती थीं.”
उस भाषण में, जो 90 मिनट से ज्यादा चला, पूर्वाभास था,
हबीबुल्लाह और दूसरे अधिकारियों ने महसूस किया कि ‘मैडम’, जिस नाम से उन्हें बुलाया जाता था, बहुत उदास लग रही थीं जब वह लीक से हटकर इन भावनाओं को व्यक्त कर रही थीं.
उस महीने की शुरुआत में उन्होंने लिखा था कि अगर वह किसी हिंसा में मारी जाती हैं तो वो हिंसा हत्या के इरादे से होगी. वो सामान्य मौत नहीं होगी, ''कोई नफरत देश और जनता के प्रति मेरी मोहब्बत पर भारी नहीं पड़ सकती, कोई ताकत मुझे इस मकसद और देश को आगे ले जाने के उद्देश्य से भटका नहीं सकती.”
29 अक्टूबर 1984 को भुवनेश्वर में इंदिरा के भाषण में आपातकाल को भी छुआ गया था जिस आधार पर तात्कालिक तौर पर एक तानाशाह और अत्याचारी के रूप में उन्हें आंका गया था.
पाकिस्तानी तानाशाह जिया उल हक का समर्थन कर रहे अमेरिका की परोक्ष रूप से आलोचना करते हुए इंदिरा ने टिप्पणी की थी, “मुझे बहुत छोटी अवधि के लिए आपातकाल का सहारा लेना पड़ा. लेकिन आज भी मेरी आलोचना होती है. मुझे एकाधिकारवादी और तानाशाह बताया जा रहा है. लेकिन यही लोग दूसरे एकाधिकारवादी दौर में पैसों से, बाहुबल से और दूसरे तमाम संसाधनों से उनकी मदद कर रहे थे. इसलिए हमें उन सभी चीजों से सबक लेना है और समझना है कि आखिरकार वे चाहते क्या हैं. ऐसा वे क्यों चाहते हैं कि भारत आगे नहीं बढ़े. कोई बाहरी हमारे हितों का ख्याल नहीं करेगा या फिर हमारे बारे में नहीं सोचेगा. हमें खुद अपनी देखभाल करनी है. यह सिर्फ मेरी जिम्मेदारी नहीं है.”
इसके बजाए ऑपरेशन ब्लू स्टार के कारण बड़ी संख्या में लोगों की मौत हुई और सिखों के पवित्र स्थल अकाल तख्त को नुकसान पहुंचा. मुख्य पवित्र स्थल हरमंदिर साहिब को बुरी तरह से नुकसान पहुंचा था.
1968 बैच के जम्मू-कश्मीर काडर के आईएएस अफसर हबीबुल्लाह मानते हैं कि इंदिरा स्वर्ण मंदिर के भीतर छिपे खालिस्तानी मिलिटेंट्स के खिलाफ सेना के इस्तेमाल में संकोच दिखा रही थीं. हबीबुल्लाह ने लिखा है कि जनरल सिन्हा के अड़ जाने के एक साल बाद उनके पास केवल सेना का विकल्प ही बचा था, “दुनिया में सिखों के पवित्र स्थल पर किसी भी चूक के बुरे अंजाम को वह बहुत अच्छे तरीके से समझती थीं. उन्हें थल सेना के वाइस चीफ लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा ने भी इस तरह का कोई कदम उठाने को लेकर आगाह किया था जिनके बारे में चर्चा थी कि वे तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल कृष्णा राव की जगह लेने वाले थे. यह तर्क दिया जाता है कि जनरल सिन्हा की जगह अपने लिए जनरल अरुण श्रीधर वैद्य चापलूसी कर रहे थे और संकेत दिया जाता है कि गांधी पहले ही सैन्य समाधान का फैसला ले चुकी थीं.
हबीबुल्लाह खुलासा करते हुए बताते हैं कि यह बात अहम है कि जब जनरल वैद्य को अपनी योजना पर अमल के लिए कहा गया तो इंदिरा गांधी को कथित तौर पर आश्वस्त किया गया था कि जबरदस्त ताकत के जरिए आत्मसमर्पण कराया जाएगा और किसी भी सूरत में परिसर के भीतर भारी हथियारों की तैनाती नहीं होगी.
लेकिन पश्चिम कमान के सैन्य कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल कृष्णास्वामी सुंदरजी ने जो ऑपरेशन ब्लू स्टार की योजना बनाई, उसमें व्यावहारिक भूल हुईं और कई बातों की अनदेखी की गई.
हबीबुल्लाह बिना किसी लाग-लपेट के महसूस करते हैं, “यह बात चौंकाती है कि ऑपरेशन ब्लू स्टार शुरू करने के लिए सिखों के महान गुरुओं में एक गुरु अर्जुन देव के शहादत दिवस के मौके को चुनने की भूल कैसे सेना ने की, जिन्होंने सिखों के पवित्र आदि ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब का संकलन किया था.“
आईएएस बनने से पहले सेंट स्टीफेंस कॉलेज में इतिहास पढ़ा चुके हबीबुल्लाह ने ग्राफिक के जरिए बताया है,
दूसरे शब्दों में मुख्य सचिव को अंधेरे में रखा गया.
बहरहाल 5 जून 1984 की दोपहर तक ऑपरेशन ब्लू स्टार शुरू कर दिया गया. यह साफ हो गया कि मिलिटेंट्स से परिसर खाली कराने और उनसे आत्मसमर्पण कराने की कोई कोशिश नहीं दिखी. लेफ्टिनेंट जनरल सुंदरजी ने इंदिरा से गुहार लगाई कि उन्हें बख्तरबंद गाड़ियां मंदिर परिसर में भेजने की अनुमति दी जाए ताकि अकाल तख्त पर कब्जा किया जा सके जो भिंडरावाले के सैन्य ऑपरेशन का केंद्र बन चुका था. ऐसा न होने पर सेना की वापसी का विकल्प उन्होंने दिया था जिसका मतलब होता कि भारत की सेना अलगाववादी समूह के सामने हार गई है. इंदिरा के पास ‘हां’ कहने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.
हबीबुल्लाह लिखते हैं कि टैंक, आर्टिलरी, हेलीकॉप्टर और सशस्त्र वाहनों के पूरे तामझाम के साथ सैन्य कार्रवाई हुई. आधिकारिक रिकॉर्ड के मुताबिक भारतीय सेना के 83 जवान मारे गए और 492 नागरिकों की मौत हुई. हबीबुल्ला मुख्य सचिव एसएस धनोआ के आंकड़ों पर भरोसा करते हैं जिन्होंने 2004 में लिखा था, “पंजाब के मुख्य सचिव के तौर सभी सूचनाएं इकट्ठी करने के बाद वे कह सकते हैं कि भारतीय सेना के हाथों 1000 से 1200 लोगों की जानें गईं.”
“मैं उनकी सुरक्षा में हमेशा की तरह था. अपने भाषण में उन्होंने हाल की घटना को लेकर अपना दुख व्यक्त किया. खुद को ऐसी मां के तौर पर व्यक्त किया जो दुख की घड़ी में बच्चों के साथ होती है. अपने सामने मौजूद सैन्य टुकड़ी की ओर मुखाबित होते हुए उन्होंने समस्त भारतीयों को अपनी संतान माना और उन सभी सिखों को भी, जिन्होंने अमृतसर में अपनी जानें गंवाई थीं. यह ऐसा भाषण था जिसमें वाकपटुता नहीं थी, केवल भावना थी और बहुत ज्यादा वेदना थी.”
हबीबुल्लाह ने महसूस किया, “31 अक्टूबर 1984 की दोपहर तक इंदिरा तीन मूर्ति भवन में स्थिर पड़ी थीं, कोई गति नहीं थी. वही जगह जहां उन्होंने राजनीतिक घटनाओं के बीच और प्रधानमंत्री नेहरू के आवास के तौर पर, जिनकी वे आधिकारिक परिचारिका थीं, अपने जीवन के कई साल बिताए थे. अब वहां उनके परिवार के लोग थे. वे उमड़ रही भीड़ को नियंत्रित करने में लगे थे. पीएमओ से हम सब विदेश मंत्रालय के अधिकारियों के साथ विभिन्न सरकारों के प्रमुखों और दुनिया भर से आए राष्ट्राध्यक्षों की मेजबानी में जुटे थे.”
(राशिद किदवई ‘24, अकबर रोड, बैलट' और 'सोनिया : ए बायोग्राफी’ के लेखक हैं. वह ओआरएफ में विजिटिंग फेलो भी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @rasheedkidwai है. यह एक ओपिनियन लेख है. इसमें दिए गए विचार लेखक के अपने हैं, क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 31 Oct 2020,02:25 PM IST