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अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस(International Women's Day) पर सेमिनार आयोजित हो रहे हैं, वेबिनार में महिलाएं व्याख्यान दे रही हैं, मेट्रो सिटी के किसी बड़े सभागार में हो रही संगोष्ठी में महिला अधिकारों पर विमर्श हो रहे हैं, लेकिन इन विमर्श में और इन सेमिनारों में एक विशेष वर्ग का एकाधिकार साफ दिखाई दे रहा है.
महिलाओं की समस्या और उनके अधिकारों को मेट्रो सिटी के सभागार में बैठी महिलाएं 'अपने' अनुसार देख रही हैं और उसपर विमर्श कर रही हैं. अगर ये कहा जाए कि बड़े शहरों का ये एलीट वर्ग महिलाओं को लेकर अपना 'विमर्श' भारत के अन्य वर्ग की महिलाओं पर थोप रहा है तो ये गलत नहीं होगा.
भारत की भूमि विविधताओं से भरी हुई है, यही कारण है कि यहां के जो मुद्दे हैं वे भी इन विविधताओं से प्रभावित रहते हैं. चाहे उन मुद्दों का संबंध दलितों से हो, अल्पसंख्यकों से हो या महिला अधिकारों को लेकर हो.
जल-जंगल-जमीन की लड़ाई लड़ रहे झारखंड के आदिवासियों की महिलाओं के मुद्दे या राजस्थान की भील आदिवासी महिलाओं के मुद्दे को किसी मेट्रो सिटी के सभागार में व्याख्यान दे रही एलीट वर्ग की महिला तय नहीं कर सकती. यह संभव भी नहीं है, क्योंकि किसी भी मुद्दे का संबंध स्थान विशेष और वहां की संस्कृति से होता है.
विविधताओं वाली इस भारत भूमि पर जन्म लेने वाले मुद्दे काफी पेचीदा होते हैं, और उस पर जब किसी समस्या का सामान्यीकरण करके कोई संवाद या विमर्श किया जाता है तो वह दूसरी अन्य समस्याओं को जन्म देता है.
8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर स्त्री अधिकारों पर चर्चा करने के लिए सप्ताह भर पहले ही से सेमिनार, संगोष्ठी और वेबिनार आदि आयोजित हो रहे हैं. विभिन्न मंचों पर स्त्री अधिकारों पर सवांद हो रहे हैं. लेकिन स्त्री अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए क्या इस प्रकार की चर्चाएं काफी हैं? क्या ये मंच समावेशी हैं जो संवाद की हद तक ही सही, सभी वर्गों से सम्बन्ध रखने वाली महिलाओं को विमर्श में समान प्रतिनिधित्व दे पा रहे हैं?
अगर हम ईमानदारी से आकलन करें तो इन सब सवालों का जवाब नहीं में पाएंगे. आमतौर पर यही देखने में आता है कि भारत में स्त्री अधिकारों या नारीवादी चर्चाओं पर सिर्फ एलीट तबके से आने वाली महिलाओं का कब्ज़ा है.
अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में स्नातक की छात्रा और दलित आदिवासी शक्ति अधिकार मंच नामक संस्था के साथ काम करने वाली मोहिनी कहती हैं.
नारीवादी विमर्श या स्त्री अधिकारों पर चर्चा करने वाले तमाम समूह प्रतिनिधित्व के मामले में बहुत समग्र, समावेशी और लोकतांत्रिक नहीं है. जब कोई स्त्री अधिकारों की बात करने वाला विमर्श इन तीनों चीज़ों से खाली होता है तो उनके नज़रिए में भी यह ज़ाहिर होने लगता है.
स्त्री अधिकारों की चर्चा के लिए मंच सजाने वालों को इस पर भी गौर करना चाहिए कि किसी भी प्रकार के स्त्री अधिकारों पर होने वाले कार्यक्रमों में किसी समाज की स्त्री समस्या पर कौन बेहतर तरीके से और उस समाज की भाषा में मार्गदर्शन कर सकता है. हर देश और राज्य का ताना बाना अलग अलग होता है. वहां के लोगों के सोचने का तरीका अलग होता है. एक ही बात पर दो अलग राज्यों या देश के लोग अलग तरह से रिएक्ट कर सकते हैं. उत्तर भारत में भारत की विविधता को दर्शाने वाली एक लोकोक्ति बड़ी चर्चित है कि "कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी".
इस सम्बन्ध में अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की पोस्टग्रेजुएशन की छात्रा मोहिनी आगे कहती हैं कि, "भारतीय नारीवाद विमर्श करता है कि महिलाओं को नौकरी करने की आज़ादी हो. लेकिन यहां यह बात गौरतलब है कि जो दलित महिलाएं हैं वह तो हमेशा से ही घर से बाहर निकल कर काम करती रही हैं. इसलिए नौकरी करने दिए जाने की मांग उनकी नहीं हो सकती है, बल्कि उनकी मांग तो समानता या नौकरी के साथ आराम को लेकर होगी."
क्या भारतीय नारीवादी विमर्श में दलित महिलाओं के स्त्री अधिकारों की आवाज को स्थान मिल पाता है? इस पर बीबीसी की पूर्व पत्रकार और दलित मुद्दों को प्रमुखता से उठाने वाले न्यूज़ पोर्टल मूकनायक की संस्थापक मीना कोटवाल कहती हैं कि, "महिला होने की वजह से आप वैसे ही हाशिये पर होते हैं लेकिन उस पर भी यदि आप दलित महिला हैं तो आपकी चुनौतियां और अधिक बढ़ जाएंगी. इसीलिए किसी भी क्षेत्र में आपको उच्च जाति की महिलाओं से कम ही मौके मिलते हैं".
एक आम समझ यह कहती है कि किसी समस्या या सुधार पर वे लोग ज़्यादा व्यवहारिक मार्गदर्शन कर सकते हैं जो उस ज़मीन से जुड़े हों जहां समस्या पेश आ रही है.
भारतीय नारीवादी विमर्श में अल्पसंख्यक महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की पीएचडी स्कॉलर हिबा अहमद कहती हैं कि, "मुख्यधारा के विमर्श या मीडिया में आम मुस्लिम महिलाओं की अभिव्यक्ति को जगह नहीं मिलती, उनकी समस्याओं पर अक्सर संभ्रांत या गैरमुस्लिम महिलाएं विमर्श करती पाई जाती हैं."
भारत मे स्त्री अधिकारों को लेकर दम भरने वाला भारतीय नारीवाद एक संकुचित दायरे में रहकर विमर्श करता है. इसकी कुछ सीमाएं और परिभाषायें हैं जो पश्चिम ने तय की हैं.
मोहिनी भारतीय नारीवाद के वर्तमान स्वरूप को पश्चिम से प्रेरित बताती हैं.
कर्नाटक हिजाब विवाद का हवाला देते हुए मोहिनी कहती हैं, "नारीवादी विमर्श के नाम पर यहां कहा गया कि मुस्लिम महिलाएं हिजाब इसलिए पहनती हैं क्योंकि उनकी ऐसी कंडीशनिंग हुई है. लेकिन इस तरह का पक्षपाती विमर्श या तर्क अल्पसंख्यक या किसी अन्य वंचित तबके से आने महिलाओं की स्वायत्तता खत्म करता है."
वंचितों के अधिकार सुनिश्चित करने के सम्बंध में यदि हम भारतीय संविधान की बात करें तो यह काफी समग्र, समावेशी और लोकतांत्रिक नज़र आता है. भारतीय संविधान सभी वर्गों की जातीय, आर्थिक, सांस्कृतिक, भाषायी और क्षेत्रीय पहचान को महत्व देता है. लेकिन भारत में स्त्री अधिकारों की बात करने वाली विचारधारा नारीवाद का स्वरूप भारतीय संविधान की तरह लोकतांत्रिक नहीं है.
मोहिनी के अनुसार भारत में अक्सर यह मान लिया जाता है कि हिन्दू सवर्ण महिलाओं का जो नारीवाद है वही सबका नारीवाद है.
यही स्थिति आर्थिक विभिन्नता के आधार पर देखने को मिलती है कि आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग की महिलाओं का प्रतिनिधित्व उच्च धनाढ्य वर्ग से आने वाली महिला नहीं कर सकती, क्योंकि वो उस वर्ग की मूल समस्या और मनोविज्ञान से नावाकिफ होती है.
जेएनयू की हिबा अहमद के अनुसार, "भारतीय नारीवादी विमर्श मुस्लिम या अल्पसंख्यक महिलाओं की अभिव्यक्ति को स्थान नहीं देता है इसलिये इन तबको को यह स्थान लड़ कर लेना पड़ेगा."
स्त्री अधिकारों पर मुख्यधारा की चर्चा में सभी तबको की महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने पर ज़ोर देते हुए इसके लिए हम इन्टरसेक्शनल फेमिनिज़्म की बात करते हैं.
यदि कोई महिला दलित है या अल्पसंख्यक है या आदिवासी है तो यह दमनचक्र उसके लिए दोहरा हो जाएगा इसलिए बहुत ज़रूरी है कि यह बात मुख्यधारा के नारीवादी विमर्श में शामिल की जाए
मानव तस्करी और वेश्यावृति से मुक्त करवाई गई बच्चियों और महिलाओं के अधिकारों को लेकर एंटी चाइल्ड ट्रैफिकिंग एन्ड ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट पल्लबी घोष कहती हैं-
भारत में नारीवाद या महिला अधिकारों पर विमर्श का वर्चस्व मेट्रो सिटीज़ की महिलाओं से छीनकर उन वंचित तबके की महिलाओं के बीच लाना होगा जो ख़ुद अपनी समस्या को अभिव्यक्त भी करें और उसके हल पर मुखर होकर बात भी करें.
सुदूर देश की राजधानी में बैठी संभ्रांत परिवार की महिला को, राजस्थान की भील आदिवासी महिला के मुद्दे, झारखंड के पहाड़ों में जल-जंगल-ज़मीन की लड़ाई लड़ने वाली आदिवासी महिला के मुद्दे, हाथरस की दलित महिला के मुद्दे और कर्नाटक की हिजाबी छात्रा के मुद्दे पर विशेषज्ञ बनकर टिप्पणी करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता.
कौन सी महिला सशक्त है या कितनी सशक्त है इस बात को देश की राजधानी के किसी सभागार में बैठकर कोई महिला तय नहीं कर सकती, और यह तय करने का अधिकार किसी को दिया भी नहीं जा सकता. धरातल पर जाकर रोज़मर्रा के संघर्ष को देखने पर प्रकृति को बचाने की लड़ाई लड़ने वाली आदिवासी महिलाएं अक्सर सभागार में संगोष्टी करने वाली महिलाओं से अधिक सशक्त नज़र आती हैं.
(लेखिका गृहणी व स्वतंत्र पत्रकार हैं. लेखिका से ट्विटर पर @HumaMasih पर संपर्क किया जा सकता है)
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