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1 जुलाई 2017 से जीएसटी सिस्टम लागू होने के बाद से दरों और स्लैब्स से लेकर इसके पूरे स्ट्रक्चर पर विवाद और शिकायतों का सिलसिला नहीं थमा है. अब शिकायतकर्ताओं में राज्य सरकारों का नाम भी जुड़ गया है. इन सरकारों की शिकायत है कि उन्हें मुआवजा नहीं मिल रहा है. टैक्स वसूली हर महीने अनुमान से काफी कम है. इस साल करीब 1 लाख करोड़ रुपए का अनुमान से कम वसूली हो सकती है. कारोबारी लगातार हो रहे बदलाव से कंफ्यूज्ड हैं. आखिर जिस टैक्स को क्रांतिकारी बताया गया अब उसे सब पूरी तरह से बदलने की बात क्यों हो रही है.
जाने माने स्तंभकार टीएन नाइनन ने तो जीएसटी को फेल्ड एक्सपेरिमेंट बता दिया है और इसमें तत्काल बड़े परिवर्तन की बात कही है.
पिछले ढाई साल में इस टैक्स में 38 बड़े बदलाव हुए हैं. फिलहाल करीब 1300 सामानों और करीब 500 सेवाओं को 7 कैटैगरी में रखा गया है. एक बड़ी कैटेगरी है जिसपर जीएसटी नहीं लगता है और उसे 'exempt' कैटैगरी में रखा गया है. कीमती पत्थरों पर 0.25 परसेंट और गोल्ड पर 3 परसेंट टैक्स है. इसके अलावा प्रोडक्ट्स और सर्विसेज को 5, 12, 18 और 28 परसेंट टैक्स की कैटैगरी में रखा गया है. इतने बड़े देशव्यापी टैक्स में इतने बदलाव की वजह से कारोबारियों के लिए इसे पालन करना मुश्किल हो रहा है. जानकारों का मानना है कि इसी वजह से टैक्स कलेशन में भी कमी आई है.
जीएसटी के तीन हिस्से होते हैं- स्टेट जीएसटी, इंटीग्रेटेड जीएसटी और कंपनसेशन सेस. स्टेट जीएसटी राज्य सरकारें खुद वसूलती है. इंटीग्रेटेड जीएसटी एक राज्य से दूसरे राज्यों में जाने वाले सामानों और सेवाओं पर लगता है. इसे केंद्र और राज्य सरकारें आपस में बांटती है. कंपनसेशन सेस सिन गुड्स जैसे गुटका, सिगरेट और विलासिता के सामानों, जिसमें कार भी शामिल है पर लगता है. इसे वसूलने की वजह ये है कि अगर राज्य सरकारों की रेवेन्यू में कमी आती है तो उससे पूरा किया जा सके. जीएसटी कानून में तय है कि राज्यों के पांच साल तक रेवेन्यू में कमी की भरपाई केंद्र सरकार करेगी. कानून के तहत राज्यों के रेवेन्यू में हर साल 14 परसेंट की बढ़ोतरी होनी चाहिए. ऐसा नहीं होने पर इस कमी को केंद्र सरकार पूरा करेगी.
इस साल के पहले 8 महीने में जीएसटी का कलेक्शन पिछले साल के मुकाबले महज 2 परसेंट ज्यादा है. ऐसे में केंद्र सरकार को राज्यों के राजस्व में आई कमी की भरपाई करना मुश्किल हो रहा है. राज्य सरकारें इसीलिए नाराज हैं और कुछ ने कानूनी कार्रवाई की बात की है.
इसके लिए लोकलुभावन पॉलिसी जिम्मेदार है. कुछ सालों पहले वित्त मंत्रालय की एक कमेटी बनी थी, जिसका अनुमान था कि जीएसटी की औसत दर 16-17 परसेंट रहनी चाहिए. जिससे ना तो सामानों के दाम बढ़ेंगे और ना ही टैक्स कलेक्शन में कमी आएगी. इतने सारे बदलावों के बाद फिलहाल जीएसटी की औसत दर 11.6 परसेंट है. ऐसे में टैक्स कलेक्शन में कमी स्वाभाविक ही है
अधिकांश देश जहां जीएसटी जैसी कर प्रणाली लागू की गई है, वहां इसकी एक ही दर है. अपने देश में 7 स्लैब हैं. इसकी वजह से लीकेज बढ़ी है, फर्जी बिल की पूरी इंडस्ट्री चालू हो गई. इसको रोकने के लिए जरूरी है कि जितना संभव हो सके उतने कम स्लैब रहने चाहिए.
जीएसटी कानून में यह तय हुआ था कि राज्यों को केंद्र सरकार रेवेन्यू गिरने की हालत में 5 सालों तक यानी 2022 तक मुआवजा देगी. राज्यों को कहा गया कि वो आय बढ़ाने के दूसरे स्त्रोतों को तलाशें. फिलहाल ऐसा होता दिख नहीं रहा है. राज्यों की तरफ से पांच साल की अवधि बढ़ाने की मांग हो सकती है. लेकिन केंद्र की दलील ये हो सकती है कि 14 परसेंट सालाना रेवेन्यू बढ़ने के वादे को पूरा करना संभव नहीं है. वो भी ऐसे समय में जब टैक्स कलेक्शन में बढ़त मामूली ही है. क्या राज्य सरकारें इसके लिए राजी होंगी? अगर नहीं तो इस महत्वाकांक्षी प्रणाली में झोल और भी बढ़ सकते हैं.
कई स्लैब्स की हम चर्चा कर ही चुके हैं. इतने सारे बदलाव ने भी पूरे सिस्टम को डिस्टॉर्ट किया है. इसके अलावा राज्यों को हर साल 14 परसेंट रेवेन्यू बढ़ंने की गारंटी ने सिस्टम को नुकसान पहुंचाया है. राज्यों को रेवेन्यू की गारंटी है, इसकी वजह से उसका तंत्र रेवेन्यू लीकेज को दुरूस्त करने में ठीक से काम नहीं कर पा रहा है. सारी जिम्मेदारी केंद्र पर आने की वजह से टैक्स कलेक्शन एफिशिएंट तरीके से नहीं हो पा रहा है.
(मयंक मिश्रा वरिष्ठ पत्रकार हैं.)
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