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संसद के मॉनसून सत्र में कमजोर स्थिति में हैं पीएम नरेंद्र मोदी?

बदलते राजनीतिक परिदृश्य की तस्वीर है मानसून सत्र, जहां इन चार मुद्दों के तिलिस्म में घिर गई है मोदी सरकार!

आरती जेरथ
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p><strong>बैकफुट पर मोदी सरकार</strong></p></div>
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बैकफुट पर मोदी सरकार

फोटो: PTI

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मोदी सरकार 2.0 का तीसरा मॉनसून सत्र पहले के दो मॉनसून सत्र ( 2019 और 2020 में ) से अलग हो रहा है. प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापस आने के बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) अपनी सियासत में शीर्ष पर थे क्योंकि उन्होंने हिंदुत्व के एजेंडे के मुख्य मुद्दों और विवादास्पद सुधारों के साथ राम के उग्र विरोध पर कठोर रुख अपनाया.

यह सिर्फ एक संयोग हो सकता है, लेकिन यह दिलचस्प है कि उन्होंने लगातार दो मॉनसून सत्रों का इस्तेमाल ताकत दिखाने के लिए किया, जिसके परिणामस्वरूप अनुच्छेद 370 को रद्द कर दिया गया, लद्दाख को अलग करने के बाद जम्मू और कश्मीर को एक केंद्र शासित प्रदेश में बदल दिया गया, तीन तलाक पर प्रतिबंध लगा दिया गया और विवादित कृषि और श्रम कानूनों को बिना बहस के पारित किया गया. जिससे विपक्ष हैरान रह गया.

इस साल हालात बदल गए हैं. यह मोदी सरकार ही है जो पहले दिन से ही उग्र विपक्ष के साथ मानसूनी तूफान में फंस गई है, जिसकी वजह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने नए नवेले मंत्रियों का परिचय नहीं करा पाए.

बैकफुट पर सरकार

अनुभव मोदी के लिए अनोखा और अप्रिय दोनों रहा होगा. उन्होंने हमेशा संसद में अपना दबदबा कायम रखा है और अच्छे-अच्छे चुटकुलों से विपक्ष का मुंह बंद कर दिया है. लेकिन इस बार वैसा कुछ नहीं हो पाया. उन्होंने कुछ नहीं कहा, यहां तक कि विपक्ष के खिलाफ जाति और लिंग कार्ड का इस्तेमाल करने की उनकी कोशिश भी कामयाब नहीं हुई.

संसद वह मंच है जिस पर राष्ट्रीय राजनीति की गतिशीलता चलती है. प्रत्येक सत्र सत्ताधारी और विपक्षी दलों के बीच यह निर्धारित करने के लिए एक लड़ाई है कि कौन एजेंडा सेट करता है या नैरेटिव सेट करता है. चल रहे मॉनसून सत्र के शुरूआती संकेत से साफ नजर आता है कि विपक्ष मोदी सरकार से एक कदम आगे है. और सरकार बैकफुट पर नजर आ रही है.

अभी शुरुआती दिन हैं लड़ाई अभी भी जारी है. लेकिन पहली बार, जब से मोदी एक अपराजेय शक्ति के रूप में उभरे हैं, उनके कवच में दरारें दिखाई दी हैं.

सत्र शुरू होने से पहले, विपक्ष ने सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए तीन मुद्दों को अपना हथियार बनाया. इनमें पेट्रोल की कीमतों में भारी बढ़ोतरी से प्रेरित मुद्रास्फीति, कोविड महामारी के कुप्रबंधन और नए कृषि कानूनों पर किसानों का प्रदर्शन है.

पेगासस से अनजान बनी मोदी सरकार

पेगासस स्पाइवेयर विवाद विपक्ष के लिए अप्रत्याशित बोनस के रूप में आया है, जो इसे चौथा मजबूत मुद्दा बनाता है. ये मुद्दा वैसा ही है जैसा कि वॉटरगेट घोटाले में फंसने के बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को 1974 में इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा था.

पेगासस स्नूपगेट के खुलासे अभी उतने विस्फोटक नहीं हैं, लेकिन सरकार की असंगत रक्षा और "विदेशी हाथ" के उस घिसे-पिटे राग से पता चलता है कि यह न केवल घरेलू प्रभाव बल्कि अंतरराष्ट्रीय प्रभाव के बारे में भी चिंतित है.

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पेगासस जासूसी के लिए टार्गेट नामों की सूची में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और पाकिस्तानी प्रधान मंत्री इमरान खान सहित दुनिया के कई नेताओं के शामिल होने की खबरों से इसकी चिंता और बढ़ गई है.

मॉनसून सत्र में मोदी सरकार के मंत्री और सांसद कोविड कुप्रबंधन, बढ़ती महंगाई और किसानों के आंदोलन के मुद्दों पर विपक्ष का मुकाबला करने के लिए तैयारी करके आए थे. सच्चाई तो यह है कि, खुद मोदी द्वारा महामारी को कंट्रोल करने के लिए सरकार के कदमों पर पावर-पॉइंट ब्रीफिंग की पेशकश करके विपक्षी हमले को पहले ही रोकने की कोशिश की गई. लेकिन अचानक एक ऐसा मुद्दा सामने आ गया जो सरकार के लिए आउट ऑफ सिलेबस साबित हो रहा है.

ऐसा लगता है कि सत्र की पूर्व संध्या पर पेगासस के खुलासे से वे अनजाने में फंस गए. सरकार की तैयारियों को भांपते हुए विपक्ष अपना फायदा उठाने की कोशिश कर रहा है. बहुत हद तक यह आगे के खुलासे पर निर्भर करता है और साथ ही आतंकवादियों के खिलाफ इस्तेमाल होने वाले स्पाइवेयर का सिविल सोसायटी, विपक्षी नेताओं और पत्रकारों के खिलाफ दुरुपयोग पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की प्रतिक्रिया पर निर्भर करता है.

विपक्ष को अपनी किस्मत पर विश्वास नहीं

मोदी सरकार के लिए चिंता की बात यह है कि पेगासस रिपोर्ट में लगे आरोपों की जांच फ्रांस के साथ ही साथ इजराइल भी कर रहा है. एक ही साथ सरकार पर दो मुद्दों पर दबाव बनेगा.

पहला यह खुलासा करना है कि उसने इजरायल की कंपनी एनएसओ से पेगासस स्पाइवेयर खरीदा था या नहीं.

दूसरा देश में जांच शुरू करना है, और सुप्रीम कोर्ट के रूख को देखकर इस बात की संभावना है कि वह जांच का आदेश दे सकता है. जिसकी निगरानी संभवत: सुप्रीम कोर्ट कर सकता है.

विपक्ष का मानना है कि यह मॉनसून सत्र अच्छा होने वाला है. जैसा कि एक प्रमुख विपक्षी पार्टी के सदस्य ने बताया, यह मानसून सत्र चार सप्ताह का है और उनके पास सरकार को घेरने के लिए चार मुद्दे हैं.

"हमने पेगासस के मुद्दे पर आवाज उठाई है. हम सरकार के कोविड के कुप्रबंधन को भी बड़े पैमाने पर उठा रहे हैं. इसके अलावा मानसून सत्र में उठाने के लिए हमारे पास अभी भी दो मुद्दे हैं."

वहीं विपक्ष को अपनी किस्मत पर विश्वास नहीं हो रहा है कि सरकार की अपनी गलती के कारण विपक्ष को बैठे बिठाए उसकी गोद में एक बड़ा मुद्दा आ गिरा है.

मोदी जादू बनाम पवार और प्रशांत की ताकत

मनोवैज्ञानिक युद्ध शुरू हो रहा है. बीजेपी ने विपक्ष से निपटने के लिए राज्य के नेताओं और प्रवक्ताओं की एक जबरदस्त सेना तैनात की है ताकि अपने पुराने और जाने-पहचाने हथकंडों से इसे राष्ट्र विरोधी करार दिया जा सके.

हालांकि, लगता है कि विपक्ष ने अपने तिलिस्म को फिर से खोज लिया है. हाल के विधानसभा चुनावों में मोदी के नेतृत्व वाले बीजेपी अभियान पर ममता बनर्जी की प्रचंड जीत के साथ यह बंगाल का प्रभाव हो सकता है, जिससे विपक्ष को उम्मीद है.

यह भारतीय राजनीति के वरिष्ठ नेता शरद पवार की सक्रिय रुचि भी हो सकती है, जो 2024 में मोदी के खिलाफ एकजुट लड़ाई लड़ने की तैयारी कर रहे हैं. यह चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की रणनीति भी हो सकती है, जिन्होंने मोदी विरोधी पार्टियों को अपनी सेवाएं दी हैं.

मॉनसून सत्र हमें बदलते राजनीतिक परिदृश्य में आकर्षक अंतर्दृष्टि दे कर सकता है. जैसे कि मोदी कोविड-19 से हुए नुकसान की भरपाई के लिए लड़ रहे हैं. गिरती हुई अर्थव्यवस्था हो या सबसे बढ़कर पेगासस खुलासे.

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