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मई 2020 की शुरुआत में, 2100 मील लंबी चीन-भारत सीमा और वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) के कई प्वाइंट्स पर दुर्भाग्यपूर्ण घुसपैठ और खतरनाक झड़पें (India-China Border Clash) हुईं. दोनों ही परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों को अलग करने वाली विवादित सीमाओं पर आपसी मारपीट और क्रूर मुठभेड़ हुआ और कई लोगों की जान चली गई. हालांकि किसी भी पक्ष ने फायरआर्म का इस्तेमाल नहीं किया.
फिर दोनों ही पक्षों ने मिलिटरी बिल्डअप बढ़ाया और किसी ने भी पीछे हटने का कोई संकेत नहीं दिखाया. सिर्फ एक कदम और स्थिति अकल्पनीय रूप से हिंसक और विनाशकारी स्तर तक आगे बढ़ सकती थी. और इस बीच दुनिया ने सांसें थामकर इस सबको देखा.
पिछले कुछ वर्षों में वाशिंगटन डीसी ने बीजिंग को अपना 'दुश्मन नंबर एक' करार दिया और इससे भारत-चीन रिश्ते, जो पहले से ही तनावपूर्ण थे वो और भी ज्यादा तनाव से खींच गए हैं. इस चीन-भारत तनाव से पहले, कड़वे व्यापार युद्ध, हांगकांग विवाद और दक्षिण चीन सागर में युद्ध आदि को लेकर अमेरिका ने चीन को निशाने पर लिया था.
30 मई 2020 को, तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने व्हाइट हाउस में टिप्पणी की, "चीन के दुर्व्यवहार का पैटर्न सर्वविदित है". राजनीतिक नेता होने के नेता ट्रंप ने इसके लिए अमेरिका के पहले के प्रशासन पर दोष भी मढ़ दिया.
उन्होंने कहा, “पिछले अमेरिकी नेताओं और, स्पष्ट रूप से, पिछले राष्ट्रपतियों के कारण वे (चीन) ऐसी चोरी से बच निकलने में सफल रहे, जैसी पहले कोई नहीं कर पाया था."
भाषण में वुहान लैब, हांगकांग, नौपरिवहन की स्वतंत्रता आदि जैसी बातें शामिल होने से बातचीत ज्यादा तनावपूर्ण हो गई थी. हालांकि, अजीब बात यह है कि इसमें हिमालय की ऊंचाइयों पर चल रहे आमने-सामने के टकराव का कोई उल्लेख नहीं था.
यह सब किसी हैरान से भरी स्क्रिप्ट में बड़ी चूक की तरह थी, क्योंकि इससे कुछ महीने पहले ही डोनाल्ड ट्रंप ने जबरदस्त 'हाउडी, मोदी' इवेंट का मंचन कराया था. उन्होंने बड़े बड़बोलेपन से कहा था, "व्हाइट हाउस में भारत को एक सच्चा और महान दोस्त मिल गया है.. यह मैं आपको बता सकता हूं, राष्ट्रपति के रूप में आपके पास राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से बेहतर कोई मित्र नहीं है.., हां मैं यह आपको बता सकता हूं."
इसके बाद ट्रंप ने संयुक्त सुरक्षा प्रतिबद्धताओं की बारीकियों का जिक्र किया, जब उन्होंने तालियों की गड़गड़ाहट के साथ कहा, “नवंबर में, संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत हमारे देशों के बीच पहली बार त्रि-सेवा सैन्य अभ्यास आयोजित करके हमारे रक्षा संबंधों में जबरदस्त प्रगति का प्रदर्शन करेंगे. इसे "टाइगर ट्रायम्फ" कहा जाता है.
फिर आखिर किसलिए, प्रेसिडेंट डोनल्ड ट्रंप आखिर 30 मई के भाषण में डिमेंशिया के शिकार हो गए जबकि दुनिया की एक तिहाई आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले दो परमाणु ताकतों से संपन्न देशों के बीच तनाव चरम पर था और इनके बीच खतरा अपने चरम उबाल पर था.
आखिर ट्रंप ने कोरोना वायरस को चीनी वायरस कहने की हिम्मत दिखाई और चीन पर टैरिफ लादने में अपनी ताकत का इस्तेमाल किया. ऐसी ही कड़ाई उन्होंने तब क्यो नहीं दिखाई जब भारत के साथ चीन गलत कर रहा था. तब उन्होंने चीन पर क्यों नहीं सख्ती की.. चीनी विस्तारवाद और भारत के साथ झड़प के वक्त आखिर ट्रंप खामोश क्यों रहे.. आखिर व्हाइस हाउस में कथित तौर पर भारत के सबसे भरोसेमंद मित्र ने मुश्किल घड़ी में भारत का साथ क्यों नही दिया ? वो सतर्क और सावधानी वाला रुख क्यों अख्तियार किए रहे. ट्रंप की जबान को तब क्या हो गया था ?
वास्तव में, अमेरिका ने कुछ सैन्य हार्डवेयर में तेजी लाने के लिए भारत की फौरी मांग पर ध्यान दिया (जैसा कि कुछ अन्य मित्र देशों के साथ शुरू किया गया था) लेकिन इस खरीद में , टेक ट्रांसफर और इन्फॉर्मेशन एक्सचेंज की व्यवस्था पहले से ही थी और यह कोई बड़ी चीज नहीं थी.
इसके अलावा एक तेज तर्रार बिजनेसमैन ट्रंप ने इसकी जगह अपना ऑफर दिया कि, "हमने भारत और चीन दोनों को सूचित किया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका उनके अब बढ़ते सीमा विवाद में मध्यस्थता करने के लिए तैयार, इच्छुक और सक्षम है".
ट्रंप को ऐसे शख्स के रूप में जाना जाता है जो बात बात पर अपनी ताकत और जोर आजमाइश करते रहते हैं, नाम लेकर निंदा करते रहते हैं.. लेकिन वो भारत के मुश्किल वक्त में काफी नरम और अपने हल्के फुल्के बयान देकर काफी बेफिक्र रहे.
अब इसके विपरीत आज के हालात और अमेरिकी प्रशासन की प्रतिक्रिया को देखिए. इजरायल पर हमास के आंतकी हमले को लेकर अमेरिका के रुख को देखिए. अमेरिका के राष्ट्रपति और प्रशासन लगातार इजरायल के साथ डटकर खड़े रहे. बार बार सफाई देते रहे (मैं यहां सिर्फ एक मैसेज के साथ आया कि इस मुश्किल वक्त में हम इजरायल के साथ हैं- आप अकेले नहीं हैं) , हमास की निंदा करते हुए जरूरत पड़ने पर सभी तरह के आर्थिक और मिलिटरी सपोर्ट देने के लिए अमेरिका पूरी तरह से इजरायल के पक्ष में झुका रहा.
भले ही राष्ट्रपति जो बाइडेन अभिव्यक्ति और भाषण के मामले में डोनाल्ड ट्रंप की तरह नहीं हैं, लेकिन उन्होंने भी इजराइल के पक्ष में एक स्पष्ट स्टैंड दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. यहां तक कि इजराइल-फिलिस्तीन इतिहास की बारीकियों और जटिलता की फिक्र भी नहीं की. उन्होंने दोहराया, "जियोनिस्ट बनने के लिए आपको यहूदी होना जरूरी नहीं है".
निःसंदेह, अमेरिकी सत्ता में चाहे किसी की भी या कोई भी सरकार हो, इजराइल के पक्ष में वीटो करने वाले प्रस्तावों की अमूल्य 'कवर-फायर' हमेशा से अमेरिका देता रहा है. अमेरिका आर्थिक, सैन्य और कूटनीतिक रूप से इजरायल का सबसे शक्तिशाली समर्थक रहा है. कॉन्सपिरेसी थ्योरी यानि साजिश के सिद्धांतों में यकीन रखने वाले तो यह कहते हैं कि 'यहूदी हर चीज को नियंत्रित करते हैं' - जबकि इसमें से कुछ यहूदी विरोधी बयानबाजी, कुछ बढ़ाचढ़ाकर कही गई बात या पूर्वाग्रहपूर्ण तर्क हो सकते हैं, लेकिन निश्चित रूप से अमेरिका में इजरायल के प्रति जबरदस्त आकर्षण और प्रतिबद्धता है.
( लेखक अंडमान & निकोबार के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर हैं . यह एक ओपिनियन पीस है. लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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