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फिलिस्तीन के हक पर साथ, यहूदी संकट पर सहानुभूति.. भारत की विदेश नीति में नेहरू की भूमिका

इजरायल-फिलिस्तीन विवाद में भारत का स्टैंड हमेशा दोनों पक्षों को नाजुक ढंग से संतुलित करना रहा है

तारिका खट्टर
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>इजरायल-हमास युद्ध: जवाहरलाल नेहरू और फिलिस्तीन से जुड़े सवाल</p></div>
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इजरायल-हमास युद्ध: जवाहरलाल नेहरू और फिलिस्तीन से जुड़े सवाल

(फोटो- कामरान अख़्तर/क्विंट हिंदी)

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पिछले कुछ हफ्तों के दौरान हमने मिडिल ईस्ट में चल रहे संघर्ष में इजरायल (Israel) के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के स्पष्ट समर्थन को देखा है. 1990 के दशक के आर्थिक उदारीकरण के बाद, इजरायल पर भारत की बढ़ती व्यापार और रक्षा निर्भरता ने धीरे-धीरे उनके द्विपक्षीय संबंधों को बदल दिया है. मोदी सरकार में वैचारिक मतभेद और भी दूर होते नजर आ रहे हैं.

लेकिन पिछले हफ्ते विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा कि इजरायल के साथ भारत की एकजुटता जाहिर करने का मतलब यह नहीं है कि भारत "फिलिस्तीन के एक संप्रभु और स्वतंत्र राज्य" की अपनी लंबे समय से चली आ रही मांग को खारिज कर रहा है.

इजरायल-फिलिस्तीन विवाद में भारत का स्टैंड हमेशा इन दो स्थितियों को नाजुक ढंग से संतुलित करना रहा है- यह एक ऐसी नीति है जिसका पता सबसे पहले जवाहरलाल नेहरू द्वारा तैयार की गई विदेश नीति से लगाया जा सकता है.

'हमारा यकीन हमें बताता है कि फिलिस्तीन...'

14 फरवरी 1947 को, भारत से अपनी वापसी का ऐलान करने से ठीक एक सप्ताह पहले, ब्रिटेन ने फिलिस्तीन की जमीन पर आगामी अरब और यहूदी संघर्ष को संयुक्त राष्ट्र में भेजने का फैसला किया. इस इलाके पर 1918 से ब्रितानी हुकूमत का कब्जा था.

इसके जवाब में, इस मुद्दे को संबोधित करने और संभावित समाधान प्रस्तावित करने के लिए फिलिस्तीन की संयुक्त राष्ट्र विशेष समिति (UNSCOP) का गठन किया गया था. भारत अभी भी ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अधीन था, लेकिन उसकी अपनी अंतरिम सरकार थी और उसे UNSCOP के सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया था.

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व करने वाले, विशेष रूप से नेहरू, गांधी और मौलाना आजाद हमेशा फिलिस्तीन के मुद्दे के प्रति सहानुभूति रखते थे. वो अरब की मांग को आत्मनिर्णय के अधिकार के उसी सिद्धांत में निहित मानते थे, जिसने उनके खुद के राष्ट्रवादी आंदोलन को प्रेरित किया था.

साल 1938 में 'हरिजन' के एक लेख में महात्मा गांधी ने रूप से लिखा था- "फिलिस्तीन अरबों का उसी तरह है जैसे इंग्लैंड अंग्रेजी का या फ्रांस फ्रांसीसियों का है."

वे धार्मिक पहचान पर आधारित दो-राष्ट्र सिद्धांत की अवधारणा के भी विरोधी थे.

मई 1947 में नेहरू (जो अंतरिम सरकार में विदेश मंत्री थे) ने मशहूर जस्टिस सर अब्दुर रहमान को UNSCOP में भारत के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया. 24 मई को रहमान को लिखे एक पत्र में, नेहरू ने विवाद पर अपने विचार प्रस्तुत किए. उन्होंने लिखा,

“फिलिस्तीन मुद्दा बहुत जटिल है. स्वाभाविक रूप से, हमारी सामान्य सहानुभूति अरबों के साथ है और न केवल हमारी सहानुभूति, बल्कि हमारा बौद्धिक विश्वास हमें बताता है कि फिलिस्तीन मूलतः एक अरब देश है. इसे जबरन किसी और चीज में बदलने की कोशिश करना न केवल गलत है बल्कि मुमकिन भी नहीं है. इसके साथ ही अनिवार्य रूप से हमें यहूदियों के भयानक संकट में उनके प्रति गहरी सहानुभूति है. मुझे लगता है कि यह भी बिल्कुल सच है कि यहूदियों ने फिलिस्तीन में बहुत अच्छा काम किया है और रेगिस्तान से जमीन वापस हासिल की है.''

एक तरफ तो नेहरू ने फिलिस्तीनी अरबों के साथ गठबंधन किया था. दूसरी तरफ वे यहूदी दावों को एकतरफा खारिज करने के विरोध में थे. उन्होंने एक संघीय राज्य का समर्थन करते हुए सुझाव दिया- "आजाद फिलिस्तीन के अंदर एक स्वायत्त यहूदी क्षेत्र से समाधान निकल सकता है."

उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारत को जरूरी तौर पर "दोनों पक्षों के प्रति दोस्ताना" रहना चाहिए, साथ ही उन्होंने संकेत दिया कि किसी भी समझौते को अरब की मंजूरी मिलनी चाहिए.

यह संयुक्त राष्ट्र में नेहरू के शुरुआती कोशिशों जैसा था, जिनकी विशेषता पक्षपात के प्रति घृणा और परस्पर विरोधी समूहों के बीच आम सहमति बनाने की महत्वाकांक्षी इच्छा थी. आजाद हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू की नियुक्ति ने फिलिस्तीन नीति में निरंतरता तय की. यह आजाद भारत की विदेश नीति के मूल सिद्धांतों के भी अनुरूप था- उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों के लिए समर्थन, नस्लीय समानता और सैन्य कब्जे के बजाय बातचीत के जरिए अंतरराष्ट्रीय विवादों के समाधान के लिए गांधीवादी वकालत.

नेहरू और संयुक्त राष्ट्र की भूमिका

एक और विदेश नीति विचार था, जिसने भारत के रुख को निर्धारित किया. एक उभरती हुई उत्तर-औपनिवेशिक शक्ति के रूप में, भारत खुद को एशियाई और अरब गुट के नेता के रूप में स्थापित करना चाह रहा था.

अरब पक्ष के लिए पाकिस्तान का स्पष्ट समर्थन उन्हें भारत की स्थिति को खत्म करने में मदद कर सकता है. संयुक्त राष्ट्र से नेहरू को लिखे एक टेलीग्राम में विजया लक्ष्मी पंडित ने लिखा- "अगर हम इस मौके को चूक जाते हैं, तो हम खुद को पूरी तरह से अलग-थलग और एशिया में संदिग्ध महत्व और प्रभाव वाली शक्ति और मध्य और निकट पूर्व में व्यावहारिक रूप से कोई प्रभाव नहीं पाएंगे."

मई 1947 में UNSCOP विचार-विमर्श के लिए रहमान का न्यूयॉर्क आगमन एक अहम मोड़ था. जबकि समिति फिलिस्तीन के विभाजन की ओर झुकी थी, रहमान ने धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए समान अधिकारों के साथ एकात्मक फिलिस्तीनी राज्य के विचार का समर्थन किया.

नेहरू ने इस विचार की खूबियों को स्वीकार किया, जो आजाद भारत के लिए कांग्रेस के नजरिए को स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित करता था, लेकिन इसकी व्यवहार्यता के बारे में संदेह व्यक्त किया. घरेलू स्थिति की तुलना करते हुए, उन्होंने रहमान से कहा कि "भारत और अन्य जगहों की तरह फिलिस्तीन में भी हमें जो सैद्धांतिक रूप से उचित हो सकता है और जो तथ्यात्मक रूप से व्यावहारिक हो, उसके बीच एक रास्ता निकालना होगा."

नेहरू की कल्पना में एक संघीय समाधान बड़ा दिख रहा था. यह भारत में विफल हो गया था लेकिन शायद यह फिलिस्तीन में सफल होगा.
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UNSCOP ने आखिर में दो योजनाओं का प्रस्ताव दिया...

मोजॉरिटी प्लान ने फिलिस्तीन को एक अरब और एक यहूदी राज्य में बांटने की सिफारिश की और यरूशलम को संयुक्त राष्ट्र के अधिकार क्षेत्र में रखा. भारत, ईरान और यूगोस्लाविया द्वारा प्रस्तुत अल्पसंख्यक योजना में स्वायत्त अरब और यहूदी इकाइयों के साथ एक संघीय राज्य और यरूशलम को राष्ट्रीय राजधानी के रूप में प्रस्तावित किया गया था. 29 नवंबर 1947 को, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने बहुमत योजना के पक्ष में 33 वोट पड़े जबकि 13 वोट इसके विपक्ष में पड़े. 10 देशों ने इसमें हिस्सा है लिया. भारत ने संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव 181(II) और फिलिस्तीन के विभाजन के खिलाफ अरब राज्यों के साथ मतदान किया.

गुटनिरपेक्षता पर अड़े रहना

संयुक्त राष्ट्र के वोट को प्रभावित करने में अपनी विफलता के बावजूद, भारत ने अपनी ओर से अरब दुनिया में कद बढ़ाया है. बहुमत योजना कभी लागू नहीं की गई और भारत एक संघीय फिलिस्तीनी राज्य के समर्थन में दृढ़ रहा. वैचारिक स्थिरता और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के अलावा, भारत के पास अपनी रणनीति पर कायम रहने की अन्य वजहें भी थीं.

साल के आखिरी तक, भारत कश्मीर पर संघर्ष के साथ अपने खुद के संकट का सामना कर रहा था. वो मुस्लिम-बहुल देशों की सद्भावना को खोने का जोखिम नहीं उठा सकता था. शीत युद्ध तेज होने के साथ, भारत गुटनिरपेक्ष देशों का एक तीसरा मोर्चा विकसित करने के लिए भी उत्सुक था, जो मिस्र जैसे अरब देशों के समर्थन पर निर्भर था.

इसलिए, जब इजरायल ने अगले साल संयुक्त राष्ट्र में प्रवेश के लिए आवेदन किया, तो भारत उन देशों में से एक था जिन्होंने इसके खिलाफ वोट किया.

हालांकि, वक्त बीतने के साथ अंतरराष्ट्रीय गतिशीलता में बदलाव और क्षेत्र में मध्यस्थ की भूमिका निभाने की उसकी आकांक्षाओं के जवाब में इजरायल पर भारत का रुख नरम हो गया. 17 सितंबर 1950 को भारत ने इजरायल राज्य को मान्यता दी. नेहरू ने इस बात पर जोर दिया कि मान्यता का मतलब समर्थन नहीं है.

अगले पचास सालों में, भारत ने काफी हद तक नेहरू की मूल स्थिति को बरकरार रखा.

साल 1974 में, भारत फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (PLO) को फिलिस्तीनी लोगों के वैध प्रतिनिधि के रूप में मान्यता देने वाला पहला गैर-अरब देश बना.

1988 में भारत, फिलिस्तीन राज्य को मान्यता देने वाले पहले देशों में से एक बना.

आज, भले ही भारत, इजरायल के करीब आ रहा है, लेकिन वह अपने ऐतिहासिक रुख को पूरी तरह से त्यागने के लिए तैयार नहीं दिखता है. वजह है कि वह एक बार फिर खुद को अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में शांतिदूत के रूप में स्थापित करना चाहता है.

(तारिका खट्टर कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में इतिहास में PhD कैंडिडेट हैं. वह @tarikakhttar पर ट्वीट करती हैं. यह आर्टिकट एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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