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करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि इजरायल और फिलीस्तीन दोनों ने पीड़ित होने की चादर ओढ़ ली है. यह सच है कि दोनों को आत्मरक्षा का अधिकार है. उनके विचार भी सही हैं. उन्हें लगता है कि दूसरे ने उनके साथ बहुत गंभीर रूप से गलत किया है. वे यह मानने को तैयार नहीं कि उनकी गलती दूसरे के बराबर है. यही कारण है कि वे एक-दूसरे को दुश्मन की तरह देख रहे हैं.
लेखक को लगता है कि दो समुदाय एक ही जमीन पर रहते हैं निस्संदेह एक-दूसरे से झगड़ते और संघर्ष करते हुए, लेकिन इनकी मौजूदगी दूसरी जमीन पर भी हैं. ऐसे ही खानों में बंटकर उनके मित्र और सहयोगी पीड़ित बनाए जा रहे हैं. पश्चिम के देश इजराइली विचारों को तरजीह देते हैं तो अरब और पश्चिम एशिया के मुस्लिम देश फिलीस्तीनी समझ के साथ हैं.
करन थापर लिखते हैं न तो वाशिंगटन और लंदन और न ही अरब स्ट्रीट सही मायने में समझौते के लिए प्रयास कर रहे हैं. एक निराशा का दौर है. ऐसा लगता है जैसे इजराइल-फिलीस्तीनी संघर्ष को समाप्त करना असंभव है. अगला दिन दुनिया के लिए अलग हो सकता है लेकिन इन दोनों के लिए इसमें कोई फर्क नहीं नज़र आता.
हमास के हमलने इजरायल के आत्मविश्वास को हिला दिया है तो जवाबी लड़ाई ने उस आत्मविश्वास को जीवित किया है. ऐसी ही बातें हमास के साथ भी है.
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि हमास ने इजराइल में किया वह युद्ध नहीं, आतंकवाद था. जानबूझकर हमास ने अपने आतंकवादियो को भेजा ऐसे लोगों को जान से मारने जो निहत्थे थे, बुजुर्ग थे, महिलाएं थीं, चोटे बच्चे थे. अबी तक उनके पास कोई दो सौ इजराइली बंधक हैं, जिनको अगर पहले दिन ही इजराइल के हवाले कर दिए होते तो न गाजा पर बमबारी होती और न स्थिति ऐसी बनती कि लाखों फिलीस्तीनियों को अपना घर-बार छोड़ कर गाजा के उत्तरी हिस्से में जाना पड़ता. सवाल यह है कि हमास अभी तक उन बंधकों को क्यों नहीं रिहा कर रहा है?
भारत के संदर्भ में चाहे कश्मीर हो, चाहे मुंबई हो- हर आतंकवादी घटना में पाकिस्तानी सेना की उंगलियों के निशान मिलते हैं. अगर हमास के आतंकवाद को हम सही कहना शुरू करेंगे तो लश्कर-ए-तैयबा को भी सही कहना होगा. हिज्बुल मुजाहिदीन को भी सही कहना होगा और खालिस्तान के तंकवादियों को भी सही ठहराना पड़ेगा. क्या ऐसा करने को तैयार हैं हम? कभी नहीं.
अफसोस की बात है कि इस्लामी देशों के जाने-माने बुद्धिजीवी भी हमास का साथ कुलकर दे रहे हैं, जिनमें कई पाकिस्तानी भी हैं. अफसोस की बात है कि लाखों की तादाद में मुसलमान सड़कों पर निकल कर आए हैं हमास के समर्थन में.
पी चिदंबरम ने लिखा है भारतीय संसद ने ऐसा कोई कानून नहीं बनाया है, जो LGBTQIA+ (लेस्बियन, गे, बायसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर, क्वीर, इंटरसेक्स, एसेक्सुअल, अन्य) के बीच किसी भी संबंध को मान्यता देता हो. इसके उलट भारतीय दंड संहिता की धारा 377 अभी भी अस्तित्व में है और ‘अप्राकृतिक संभोग’ को दंडित करती है.
17 अक्टूबर 2023 को सुप्रीम कोर्ट जवाब लेकर आया. पांच न्यायाधीशों ने कुछ मुद्दों पर सहमति व्यक्त की और अन्य पर असहमति जतायी. अंतत: न्यायमूर्ति रवींद्र भट द्वारा दिया गया निर्णय देश के कानून के मुताबिक ही रहा. जिसमें न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा ने सहमति व्यक्त की.
विषम लैंगिंक संबंधों में ट्रांसजेंडर को शादी करने का अधिकार है, समलैंगिकों को नहीं. गेंद विधायिका के पाले में फेंक दी गयी है. लेखक को ऐसा नहीं लगता कि संसद जल्द ही समान लिंगी ‘विवाह’ को मान्यता देने के लिए एक कानून पारित करेगी. हालांकि ‘संबंध का अधिकार’ मौलिक अधिकार है.
जस्टिस रवींद्र भट ने इस बारे में बताया है....
जस्टिस चंद्रचूड़ और कौल समलैंगिक जोड़ों के बीच ‘संबंध का अधिकार’ को नागरिक संघ का अधिकार कहने के लिए तैयार थे, लेकिन जस्टिस भट, कोहली और नरसिम्हा उस हद तक जाने के लिए तैयार नहीं थे. एलजबीटीक्यूआइए+ समुदाय में गुस्सा, निराशा और उदासी है.
रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में लिखा है कि क्रिकेट में गेंदबाजों के लिए दो छोर होते हैं. लॉर्ड्स में पवेलियन और नर्सरी एंड हैं तो ओवल में मेंबर्स पैवेलिनय और वॉक्सहॉल जो अंडरग्राउंट स्टेशन के नाम पर हैं.
दर्शक अपनी जगह समझ लेते हैं, कमेंट्री में नई जुबान मिलती है और तीसरा टीम के कप्तानों के लिए स्थानीय भौगोलिक स्थिति की समझ बनती है.
गुहा लिखते हैं कि चेन्नई का चेपॉक स्टेडियम कभी वालाजाह रोड एंड कहलाता था. रिक्शा पर चलते हुए कभी उन्हें पता चला था कि वालाजाह रोड भी है. इसका नाम क्रिकेट प्रशासक वी पटाभिरमन के नाम से हो गया है.
जब 2021 में नरेंद्र मोदी स्टेडियम का लोकार्पण हुआ और पहला टेस्ट मैच उसी साल फरवरी मे खेला गया तो यहां दो छोरों के नाम अडानी और अंबानी थे. पहले सरदार वल्लभ भाई पटेल स्टेडियम का नाम मोदी के नाम से और फिर अब अडानी और अंबानी का प्रोमोशन. हाल के वर्षों में इन दोनों कारोबारियों ने गलत कारणों से सुर्खियां बटोरी हैं.
भारत सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रहमण्यम ने पूंजीवाद का टू ए मॉडल भी बताया है. राहुल गांधी मोदी-शाह सरकार को ‘हम दो हमारे दो’ की सरकार बताते रहे हैं. बहुत संभव है कि अडीनी और अंबानी एंड्स का विचार प्रधानमंत्री ऑफिस से निकला हो. स्वयं कारोबारियों की तरफ से नहीं. अब अंबानी एंड को जिओ एंड कहा जाने लगा है.
टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि वेलकम पार्टी का चलन काफी समय से बाहर है लेकिन विभिन्न देश जब आय और विकास के खास स्तर पर पहुंचते हैं तो वे आज भी दुनिया को बताने के लिए ऐसा करते हैं. ऐसा लगता है कि प्रति व्यक्ति आय के लगभग 4 हजार डॉलर पहुंचने के बाद ऐसा आग्रह आता है.
उसके आगे क्रमश: फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन, स्वीडन और फिर जर्मनी मेजबान रहे. एंगस मैडिसन का आकलन है कि 1913 में पश्चिमी यूरोप की औसत प्रति व्यक्ति आय 3,473 डॉलर थी. इसमें दक्षिणी यूरोप के गरीब देश भी शामिल हैं.
पश्चिमी यूरोप और अमेरिका से बाहर दूसरे क्षेत्रों के देशों को ओलंपिक की मेजबानी का मौका तब मिला जब उनकी प्रति व्यक्ति आय ने 4 हजार डॉलर का स्तर छू लिया. मेजबानी का समय आते-आते आय और बढ़ गई. भारत 2036 के ओलिंपिक की मेजबानी का तगड़ा दावेदार है.
भारत की प्रति व्यक्ति आय 9 हज़ार डॉलर से अधिक है. सन 1990 के अंतरराष्ट्रीय डॉलर के हिसाब से यह 4 हजार डॉलर से अधिक है. 2036 तक यह आंकड़ा इससे दोगुना अधिक हो सकता है. चीन ने 2008 में ओलिंपिक की मेजबानी में 44 अरब डॉलर की राशि खर्च करके दुनिया चौंका दिया था लेकिन उस,के बाद के मेजबानों ने इसकी एक तिहाई या उससे कम ही राशि खर्च की.
जब नई दिल्ली ने 2010 में राष्ट्र मंडल खेलों का आयोजन किया था, तब कुल लागत 9 अरब डॉलर आयी थी. इसका 80 प्रतिशत से अधिक हिस्सा गैर खेल अधोसंरचना में लगा था.
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