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तीन तलाक पर नया कानून बना. नोटबंदी हुई. सरकार GST लेकर आई और इन सबके पीछे-पीछे मंदी भी आई. लाखों नौकरियां गईं. लेकिन मोदी सरकार 1.0 से लेकर 2.0 तक का ऐसा विरोध नहीं हुआ, जैसा आज देखने को मिल रहा है. लेकिन सत्ता में बैठे लोगों को या तो समझ नहीं आ रहा है कि नागरिकता कानून के खिलाफ उठ रही आवाजों में कितना दम है और इसकी गूंज कहां तक पहुंच रही है, या वो इस आवाज की इंटेनसिटी को समझकर भी ना समझने की नासमझी कर रहे हैं. लेकिन इस विरोध को डिस्क्रेडिट करने का नुस्खा, उल्टा पड़ सकता है. जिस तरह से आंदोलन हो रहे हैं, उससे ये भी सवाल उठता है कि क्या सरकार नागरिकता कानून को लेकर देश की कैसी प्रतिक्रिया होगी, इसे आंकने में चूक गई?
असम और पड़ोसी राज्यों में तो नागरिकता संशोधन कानून (CAA) का विरोध हो ही रहा है. कांग्रेस समेत विपक्ष की कुछ पार्टियों ने संसद के अंदर और बाहर प्रदर्शन किया है. लेकिन सरकार के इस दावे के उलट कि सारा कुछ विपक्ष का किया धरा है, ज्यादातर जगहों पर छात्रों का प्रदर्शन स्वत:स्फूर्त लग रहा है. जहां प्रदर्शन हुए हैं, उनमें से कुछ नाम भी देख लीजिए-
नागरिकता कानून के खिलाफ बोलने वालों में हिंदुत्व का झंडाबरदार उद्धव ठाकरे भी हैं. ठाकरे ने जामिया में पुलिस एक्शन की तुलना जालियांवाला बाग कांड से कर दी है. बीजेपी की सहयोगी पार्टी जेडीयू में इस मुद्दे को लेकर बड़े इस्तीफे की नौबत आ गई है.
बॉलीवुड लंबे समय से सियासी तौर पर दो खेमों में बंटा दिखता है. लेकिन इस बार मामला कुछ अलग है. ट्विंकल खन्ना, महेश भट्ट, शबाना आजमी, जावेद अख्तर कमल हासन ने ही जामिया के छात्रों के समर्थन में आवाज नहीं उठाई है. बल्कि परिणीति चोपड़ा बोल रही हैं, आयुष्मान खुराना बोल रहे हैं. राजकुमार राव, आलिया भट्ट और विकी कौशल आवाज उठा रहे हैं. ‘सावधान इंडिया’ के सुशांत राजपूत कह रहे हैं कि उन्हें CAA और जामिया में एक्शन के खिलाफ बोलने की कीमत चुकानी पड़ी है. उन्हें 'सावधान इंडिया' टीवी शो छोड़ना पड़ा है. परिणीति ने तो ट्वीट किया है- ‘देश में जुबां खोलने वालों के साथ ये होगा तो यहां लोकतंत्र नहीं.’
शायद सरकार को भी ये बात समझ आ रही है कि इस बार विरोध बड़ा है और तगड़ा है. जरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 16 दिसंबर के ट्वीट्स पर गौर कीजिए. इनमें हिदायत तो है लेकिन नरमी और सावधानी भी है.
और अब आखिरी सवाल. सरकार आंदोलन की व्यापकता को समझकर भी इसे नजरअंदाज कर रही है, इसे कुछ स्वार्थी तत्वों का काम बता रही है, तो इसके क्या नतीजे होंगे? क्या छात्रों के खिलाफ ताकत काम आएगी? क्या इससे आंदोलन रुक जाएगा या इसे और ऊर्जा मिलेगी?
हकीकत ये है कि छात्र आंदोलनों को दबाने की कोशिशें अक्सर नाकाम रही हैं. कई बार तो आंदोलन और बड़ा हो गया है. अफ्रीका में अश्वेत आंदोलन को बर्बरता से कुचलने की कोशिश का नतीजा ये हुआ कि रंगभेद के खिलाफ आंदोलन पूरे देश में फैल गया. चीन में थ्यानमेन चौराहे पर छात्रों पर गोले बरसाए गए लेकिन फिर ये जनआंदोलन बन गया. और सबसे बड़ा उदाहरण तो हमारे अपने देश का है. ‘संपूर्ण क्रांति’ की मशाल को आग छात्रों ने ही दिखाई थी. दमन हुआ. आपातकाल हुआ और आखिर कांग्रेस की सरकार को जाना पड़ा. रास्ता एक ही है-संवाद.
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Published: 17 Dec 2019,11:14 PM IST