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23 अप्रैल से, कई भारतीय पहलवान, जिनमें कई ओलंपियन हैं, दिल्ली के जंतर-मंतर पर भारतीय कुश्ती महासंघ (WFI) के अध्यक्ष और BJP सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. 66 वर्षीय बृजभूषण सिंह पर महिला पहलवानों ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है.
आखिरकार 28 अप्रैल को बृजभूषण सिंह के खिलाफ FIR दर्ज की गई. FIR दर्ज होने के बाद जांच पड़ताल भी शुरू हुई है. लेकिन इससे महिला पहलवानों के विरोध प्रदर्शन पर सवाल उठाए गए. उन्हें नीचा दिखाने की तमाम कोशिशें की गई.
पहलवानों के जंतर मंतर पर विरोध प्रदर्शन करने से पहले, मैंने नरेगा संघर्ष मोर्चा के मंच के तहत उसी स्थान पर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) के श्रमिकों के 60 दिनों के शांतिपूर्ण विरोध की अगुवाई की थी. जिस दिन नरेगा मजदूरों का धरना समाप्त हुआ, उसी दिन से पहलवानों का विरोध भी शुरू हो गया.
दशकों से, जंतर-मंतर विरोध प्रदर्शन के लिए एक लोकतांत्रिक स्थान रहा है, जहां देश भर से नागरिक अपनी समस्याएं सरकार को बताते और सरकार के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं. पहले यह 'केरल हाउस' लेन से तक जंतर-मंतर लेन में फैला काफी बड़ा क्षेत्र था. लोग धरना स्थल पर रात को भी रुकते थे. धरना देने के बारे में पुलिस को जानकारी देना जरूरी होता था.
अब विरोध प्रदर्शन करने के लिए तय यह इलाका सिकुड़कर छोटा रह गया है. अब दोनों तरफ से यह क्षेत्र 500 मीटर से भी कम का बच गया है. साथ ही कई बैरिकेड्स भी लगाए गए हैं. विरोध प्रदर्शन का समय भी अब सिर्फ सुबह 10 बजे से शाम 4 बजे तक रह गया है.
वर्तमान में जंतर-मंतर धरना स्थल पर धरना देने के लिए धरना के दिन से 10 दिन पहले संसद मार्ग पुलिस थाने से अनुमति लेनी पड़ती है. यह इजाजत 10 दिन में सिर्फ एक बार विरोध प्रदर्शन के लिए मिलती है. इन सभी कठिनाइयों और जटिलताओं की वजह से अब जो लोग या संगठन दिल्ली के नहीं हैं उनके लिए दिल्ली में विरोध प्रदर्शन करना काफी मुश्किल हो गया है.
नरेगा प्रत्येक ग्रामीण परिवार को 100 दिनों के काम की गारंटी देता है. इसने काम के अधिकार को स्थापित करने, गांव से बाहर जाने वाले मजदूरों को गांव में ही काम के मौके मुहैया कराने और ग्रामीण क्षेत्र में ही स्थायी संपत्ति बनाने के इको सिस्टम को मजबूत करने में अहम रोल निभाया है. हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में, नरेगा को केंद्र सरकार ने अपनी नीतियों से लगातार कमजोर कर दिया है.
इस साल नरेगा के लिए सबसे कम बजट मिला. ऊपर से 'सुशासन', पारदर्शिता और भ्रष्टाचार हटाने के लिए नए तकनीकी 'समाधान' की बात करके पूरे कार्यक्रम को और कमजोर बना दिया है.
देश भर के कार्यकर्ता नरेगा के बजट बढ़ाने के साथ-साथ दैनिक वेतन में बढ़ाने की मांग कर रहे हैं, जो कि अभी बहुत कम है. फिलहाल मजदूरी दर 221 रुपये से लेकर 357 रुपये प्रति दिन तक है. राष्ट्रीय मोबाइल निगरानी प्रणाली (एनएमएमएस-डिजिटल उपस्थिति प्रणाली) और आधार-आधारित भुगतान प्रणाली जैसे नरेगा में तकनीकी उपायों को हटाने की श्रमिकों की मांग को समर्थन भी मिला है.
इसके लिए ही पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़ और अन्य राज्यों के कार्यकर्ता 13 फरवरी से जत्थों में जंतर-मंतर पहुंचे.
हालांकि, दिल्ली पुलिस और नई दिल्ली में संबंधित अधिकारियों के रवैये और रुकावटों की वजह से विरोध काफी हद तक बाधित हो गया. लेकिन इस कड़वे सच को देश के साथ साझा करना जरूरी है, क्योंकि विरोध करने वाले लोगों के लोकतांत्रिक अधिकार को माना नहीं जा रहा है. इनमें से कई तो ऐसे निर्दोष नागरिक हैं, जो सरकारी दमन के शिकार हैं, उन्हें तो अधिकारी अपराधी की तरह मानते हैं.
जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन करने के लिए 10 दिन पहले पास के संसद मार्ग पुलिस स्टेशन से अनुमति लेनी होती है. नरेगा मजदूरों के 60 दिनों के विरोध के दौरान, हमने हर दिन इजाजत ली जो काफी जटिल प्रक्रिया थी. चूंकि मैंने पूरे 60 दिनों के लिए विरोध प्रदर्शन की अनुमति का प्रबंधन किया था, मुझे लगभग हर दिन किसी भी समय पुलिस फोन कर देती थी. पहले वो अनुमति पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों को बुलाते थे और उसके बाद मुझे.
पांरपरिक तौर पर नई दिल्ली में गुरुद्वारे शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों के लिए एकमात्र उम्मीद रहे हैं. बड़े पैमाने पर गरीब और हाशिए पर रहने वालों के लिए खाने और रहने का इंतजाम वर्षों से गुरुद्वारे में होता रहा है. लेकिन अब ऐसा नहीं है. जंतर-मंतर से 10 किमी दूर किसी रैन बसेरे में जरूरी सुविधाओं के अभाव में रहना, दिल्ली की बसों में रोज का संघर्ष, स्थानीय यात्रियों का गाली-गलौज और अपमानजनक व्यवहार ने कष्ट को और बढ़ा दिया है.
सरकार जो खुद को 'लोकतंत्र की जननी' के रूप में प्रचारित करती है, देश में हर उस रास्ते को बंद कर रही है, जहां कोई व्यक्ति स्वतंत्र रूप से और लोकतांत्रिक रूप से खुद को अभिव्यक्त कर सकता है. सरकार बेफिक्र पड़ी रही. मजदूरों का 60 दिनों तक का धरना जारी रहा. श्रमिकों ने केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री से छह बार मुलाकात की, जिसका कोई सार्थक परिणाम या सरकार की ओर से कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखाई गई.
जंतर-मतर जैसे सार्वजनिक स्थलों को फिर से हासिल लड़ने की लड़ाई लड़नी होगी. हाशिये पर पड़े लोगों को विरोध प्रदर्शन जहां एक ताकत का उदाहरण है. वहीं, यह केंद्र सरकार की अमानवीय प्रकृति को दर्शाता है जिसने जान-बूझकर उन्हें कोने में धकेलने के बाद आंखें मूंद ली हैं.
यहां तक कि वर्तमान में जंतर-मंतर पर विरोध कर रहे पहलवानों तक को धरना स्थल पर हिंसा और बिजली-पानी की परेशानी झेलनी पड़ी. जंतर-मंतर विरोध स्थलों के दोनों सिरों पर दिल्ली पुलिस के बैरिकेड्स सिकुड़ते लोकतांत्रिक स्थान को दर्शाते हैं. हर दिन अधिक प्रतिबंधों के साथ, फ्री स्पीच के हर दायरे में दीवारें बंद हो रही हैं और बंद होती जा रही हैं.
वर्तमान में, किसी भी लोकतांत्रिक आंदोलन के प्रति सरकार का जो नजरिया है उससे लगातार एक न्यायपूर्ण प्रणाली में किसी व्यक्ति की उम्मीद और भरोसा को कमजोर कर रहा है.
देश के हर हिस्से में जंतर-मंतर जैसे-जैसे सार्वजनिक विरोध स्थानों को फिर से हासिल करना महत्वपूर्ण है. और यह सिर्फ जनता की नजरों के लिए ही नहीं बल्कि देश के प्रत्येक नागरिक और कार्यकर्ताओं के लिए जरूरी है.
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