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जो बात पसंद नहीं,उसका विरोध और विरोधियों का सम्मान करते थे नेहरू  

नेहरू को जहां जिनकी बातें उचित नहीं लगती थी, वो खुलकर असहमति व्यक्त करते थे.

शिवाषीश तिवारी
नजरिया
Updated:
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की पूण्यतिथि
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भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की पूण्यतिथि
( फोटो: PTI )

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जब पंडित जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) का उदय भारतीय राजनीति में हुआ, तब तक गांधी भारत सहित दुनिया भर में अपनी अमिट छाप छोड़ चुके थे. गांधी का प्रभाव भारतीय समाज पर तो था ही लेकिन अंग्रेजों ने भी गांधी की बात सुननी प्रारंभ कर दी थी. ऐसे में उनसे 20 वर्ष छोटा, विदेश में पढ़ा-लिखा और विलायती सभ्यता से प्रभावित युवक (नेहरू) हमेशा गांधी के साथ तर्क-वितर्क करता रहा, चाहे वह आजादी के मसले पर हो, या विदेश नीतियों पर, या फिर आर्थिक मामला ही क्यों न रहा हो. उस युवक ने कभी भी गांधी की हां में हां नहीं मिलाई. खुलकर बोला, और जब तक वह प्रस्तावित विषय के तर्कों से संतुष्ट नहीं हुआ, तब तक अपनी बात पर ही अडिग रहा.

अपनी बात खुलकर कहना

चाहे वह बात गांधी ने कही हो या उनके साथी पटेल-बोस ने कही हो चाहे प्रतिष्ठित वकील, प्रभावशाली नेता और नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू ही ने क्यों न कही हो. नेहरू को जहां जिनकी बातें उचित नहीं लगी, उन्होंने खुलकर असहमति व्यक्त की. जब वह किसी के विचारों से असहमत हुए तो उन्होंने अपने पिता से लेकर गुरू गांधी तक का विरोध किया, 

जिसका एक बड़ा उदाहरण कांग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन था. जब वह अपने दोस्त सुभाषचन्द्र बोस के लिए अपने पिता सीनियर नेहरू से भिड़ गए थे और गांधी के मसोदे को नामंजूर किया था, उन्हीं सुभाष को आज के दौर में ऐसे प्रस्तुत किया जाता है कि वह न सिर्फ नेहरू के प्रतिद्वंद्वी थे, बल्कि दुश्मन थे.

बोस का समर्थन, पिता का विरोध

बात साल 1928 की है, जब कांग्रेस के अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू थे, देश का विधायी कामकाज (संविधान निर्माण) मोतीलाल नेहरू कर रहे थे. उस ऐतिहासिक काम को ‘नेहरू रिपोर्ट’ के नाम से जाना जाता है. इस रिपोर्ट को अंतिम रूप दिया जाना था, यह वही रिपोर्ट थी जिसमें ब्रिटिश ताज के मातहत भारत को किस तरह से सीमित आजादी दी जाए और उसमें भारत कैसे काम करे, ये तय हो रहा था. इसे आसान भाषा में कहें तो यह रिपोर्ट ‘डोमिनियन स्टेटस’ की वकालत करती थी. पर जैसे ही बोस ने इस रिपोर्ट पर ऐतराज जाहिर किया, तो उन्हें पहला साथ मिला जवाहलाल नेहरू का. इन दोनों नेताओं ने इस विषय पर अपनी बात रखी और काफी जद्दोजहद के बाद मद्रास अधिवेशन में यह रिपोर्ट रद्द हुई. यही से हमें संपूर्ण आजादी का सपना मिला.

विरोधियों का सम्मान

1947 में विश्व इतिहास के पटल पर दो देश बने थे, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान. दोनों ने लोकतंत्र को चुना था. पर आप खुद ही देख लीजिए कि पाकिस्तान आज हर पैमाने में कहां है और हिन्दुस्तान कहां पहुंच गया है. इसके पीछे नेहरू का अहम योगदान है. यह नेहरू की ही देन है कि हम लोकतंत्र के इतने पास आए हैं. पर संकट कम नहीं हुआ है.

हम वही सब कर रहे हैं, जो इस देश को कमजोर करते हैं, जिसकी नेहरू ने ताउम्र नसीहत दी. चाहे सांप्रदायिकता का मुद्दा हो, या फिर संविधान को मजबूत करने वाली संस्थाएं ही क्यों न हों, सभी सवालों के घेरे में हैं. जब बिखरे हुए देश की बागडोर नेहरू के हाथों में सौंपी गई होगी, तो क्या लक्ष्य रहे होंगे और वह व्यक्ति किस प्रकार से सोच रहा होगा. राजनीतिक दलों ने नेहरू की काफी आलोचना उनके जीते-जी की. पर उन्होंने कभी किसी को जेल नहीं भेजा और न ही जांच बिठाई. 
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नेहरू का विरोध और नेहरू जैसा बनने की चाह

यह नेहरू की सफलता ही है कि नेहरू की बुराई करते-करते लोग प्रधानमंत्री बन गए पर दिल में चाहत नेहरू बनने की ही है. जानकार उठने-बैठने से लेकर पहनावे तक में नेहरू की कॉपी होते देखते हैं. देश के सियासी इतिहासकार नेहरू के लाल किले की प्राचीर से अपने आपको प्रधानमंत्री की जगह ‘प्रथम सेवक’ बताने और आज के पीएम का खुद को ‘प्रधानसेवक’ कहने में भी समानता ढूंढते हैं.

देश के दिवंगत नेताओं को फॉलो करना कोई बुरी बात नहीं ,लेकिन फॉलो करने लायक और भी बातें हैं. जैसे विपक्षियों को दुश्मन मानने वाली प्रवृत्ति छोड़ना. सीखना पड़ेगा कि नेहरू लोहिया, जेपी, अंबेडकर, मुखर्जी और शेख अब्दुल्ला से किस प्रकार के संबंध रखा करते थे और वह किस प्रकार से अपने फैसलों पर पुनः विचार किया करते थे.

नेहरू की आप चाहे जितनी बुराई कर लीजिए या करवा दीजिए, नेहरू इतनी आसानी से लोगों की स्मृतियों से नहीं जाने वाले हैं, क्योंकि भारत की आत्मा ही नेहरू की आत्मा है. ऐसे ही नहीं भगत सिंह ने पंजाब के लोगों से गुजारिश की थी कि वह नेहरू और सुभाष में से नेहरू को तरजीह दें. और कुछ बात तो रही होगी तभी गांधी ने कहा था-‘वह निःसंदेह एक चरमपंथी हैं, जो अपने वक्त से कहीं आगे की सोचते हैं, लेकिन वह इतने विनम्र और व्यावहारिक हैं कि रफ्तार को इतना तेज नहीं करते कि चीजें टूट जाएं. वह स्फटिक की तरह शुद्ध हैं. उनकी सत्यनिष्ठा संदेह से परे है. वह एक ऐसे योद्धा हैं, जो भय और निंदा से परे हैं। राष्ट्र उनके हाथों में सुरक्षित है.

(शिवाषीश तिवारी लेखक और पत्रकार हैं. इस लेख में दिए गए विचार उनके अपने हैं, क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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Published: 27 May 2021,01:06 PM IST

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