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कोल्हान टाइगर के नाम से मशहूर पूर्व सीएम और झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के पूर्व नेता चंपई सोरेन (Champai Soren) ने कुछ हफ्ते पहले अपनी मूल पार्टी छोड़ कर बीजेपी (BJP) का दामन थाम लिया था. चुनाव से पहले उनका यह कदम बीजेपी के लिए एक बड़ा प्रोत्साहन है, क्योंकि वह नेतृत्व संकट का सामना कर रही है, खासकर आदिवासियों के बीच.
सोरेन के बीजेपी में शामिल होने से दो गंभीर सवाल सामने आ गए हैं. पहला- क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों का अपने नेताओं की आकांक्षाओं के बारे में सोचना, और दूसरा- हिंदुत्व को आदिवासियों के साथ जोड़ना.
झारखंड में, आदिवासी लोग आबादी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और राज्य की राजनीतिक को आकार देने में भी निर्णायक बने रहते हैं. पिछले कुछ सालों में जेएमएम राज्य में आदिवासी हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी के रूप में उभरी है. ऐसा इस आधार पर कहा जा रहा है क्योंकि जेएमएम के नेतृत्व वाले गठबंधन ने आदिवासी क्षेत्र में ज्यादा विधानसभा सीटें जीती और फिर सरकार भी बनाई.
हिंदुत्व की कल्पना में आदिवासी लोगों को वह हिंदू मानती है जो वन में रहते हैं, जिन्हें वनवासी कहा जाता है. कई संगठनों स्थापित कर और सांस्कृतिक गतिविधियों के माध्यम से, आरएसएस ने आदिवासी आबादी को सामाजिक सेवाएं दी और उनकी चिंताओं से जुड़ने की कोशिश भी की है.
अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम (ABVKA), जिसे वनवासी कल्याण केंद्र के नाम से भी जाना जाता है, यह संगठन इसीलिए बनाया गया ताकी आदिवासी तक पहुंच बढ़ सके. यह 1950 के दशक से देश के आदिवासी क्षेत्रों में काम कर रहा है.
ABVKA और जनजाति सुरक्षा मंच (JSM) जैसे संगठन अक्सर ईसाई आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति सूची में शामिल करने का विरोध करते हैं और उन्हें सूची से बाहर करने के लिए रैली निकालते हैं. उनका विरोध इस धारणा पर आधारित है कि केवल खुद को हिंदू बताने वाले आदिवासी ही राज्य की नीतियां और बाकी फायदों के हकदार हैं.
सीएम बनते ही हेमंत सोरेन ने एक सम्मेलन में ऐलान किया कि 'आदिवासी हिंदू नहीं हैं.' आदिवासियों की पहचान उनके इतिहास से परिभाषित होनी चाहिए, जैसे अंग्रेजों के खिलाफ उनकी लड़ाई, उनके नैतिक मूल्य, उनकी संस्कृति, उनका जंगल और जमीन से जुड़ाव जो कि किसी भी धर्म से बहुत अलग है.
यही कारण है कि झारखंड के आदिवासियों की एक पुरानी मांग सरना कोड को लागू करने की है, जो एक अलग धार्मिक कोड है, जिसका पालन झारखंड के कई आदिवासी करते हैं. इस मांग का मुख्य रूप से हिंदुत्व संगठनों द्वारा विरोध किया गया है क्योंकि इसे हिंदुओं को विभाजित करने वाले के रूप में देखा जाता है. सोरेन सरकार ने 2021 में सरना कोड के लिए एक प्रस्ताव भी पारित किया, जिसे केंद्र ने अभी तक मंजूरी नहीं दी है.
हिंदुत्व के सुर में सुर मिलाते हुए चंपई सोरेन ने दावा किया है कि संथाल परगना क्षेत्र में अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों से आदिवासी अस्तित्व और पहचान को खतरा है. हाल के दिनों में, बीजेपी-आरएसएस ने इस बात को भी बढ़ावा दिया है कि मुसलमानों की घुसपैठ आदिवासी महिलाओं से जबरन शादी करके और उनकी जमीन हड़प कर आदिवासी आबादी में कमी ला रही है.
लेकिन झारखंड में नागरिक समाज संगठनों ने हाल ही में एक तथ्यों से भरी रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें आदिवासी आबादी की धीमी वृद्धि के लिए जिम्मेदार कई कारकों पर प्रकाश डाला गया है. पूरी रिपोर्ट यहां पढ़ी जा सकती है. इस रिपोर्ट के एक हिस्से में बताया गया कि सरकार ने संसद में जो डेटा पेश किया वो गलत है. झारखंड में आदिवासियों की जनसंख्या में कमी के कई कारण हैं, जैसे कुपोषण, बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था, बिहार, बंगाल और झारखंड के हिंदू और मुसलमानों ने आदिवासियों की जमीन खरीदी हैं, ऐसे कई कारण हैं.
यहां तक कि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने हाल ही में झारखंड हाई कोर्ट में दायर अपने हलफनामे में कहा कि झारखंड के संथाल परगना में भूमि कब्जे से संबंधित मामलों में बांग्लादेशी प्रवासियों के संबंध "अब तक स्थापित नहीं हुए हैं."
आदिवासियों और मुसलमानों के बीच दुश्मनी पैदा करने के लिए, जनसंख्या के मुद्दे को हथियार बनाया जाता है.
इन सब बहसों से होता यह है कि सबसे महत्वपूर्ण सवाल जो आदिवासी समुदाय के सामने है - पूंजीवादी लूट - इसे धुंधला कर देता है, क्योंकि इसके प्रतिरोध में ही आदिवासी चेतना विकसित हुई है. विशेषज्ञों ने अक्सर चिंताजनक स्वास्थ्य संकेतकों, घोर गरीबी, बड़े पैमाने पर प्रवासन और बेदखली को चिह्नित किया है जो आदिवासियों की वर्तमान स्थिति और उनकी धीमी जनसंख्या वृद्धि के लिए प्रमुख रूप से योगदान दे रहे हैं, इन सभी का पूंजीवादी शोषण के साथ संबंध है.
हिंदुत्व खेमे में आदिवासी राजनीति में चंपई सोरेन का भविष्य दिलचस्प है, खासकर जब से उन्हें अपना दल बदल दिया है. बीजेपी को आदिवासियों के बीच जनसांख्यिकीय डर फैलाने के लिए एक बड़ा आदिवासी नेता भी मिल गया है. आदिवासियों का एक अंदरूनी सूत्र और जननेता होने के नाते इस मुद्दे पर काफी प्रभाव पड़ेगा और आदिवासियों के बीच अपील - और डर - पैदा हो सकता है.
(हिमांशु शुक्ला जेएनयू में सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में पीएचडी छात्र हैं. यहां व्यक्त किए गए विचार उनके हैं.)
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