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झारखंड (Jharkhand) में हेमंत सोरेन (Hemant Soren) कैबिनेट ने 14 सितंबर को ‘झारखंड स्थानीय निवासी बिल’ के ड्राफ्ट को मंजूरी दे दी जोकि स्थानीयता की परिभाषा तय करता है. इस बिल में जमीन के रिकॉर्ड्स के सबूत के लिए 1932 को कट-ऑफ ईयर घोषित किया गया है. इस बिल के मुताबिक 1932 के खतियान (यानी जमीन के रिकॉर्ड्स) राज्य में डोमिसाइल या रिहाइश का मुख्य सबूत होंगे.
झारखंड के आदिवासी और मूलनिवासी काफी लंबे समय से इस बात की मांग कर रहे थे कि राज्य में निवास के सबूत के तौर पर 1932 के रिकॉर्ड्स का इस्तेमाल किया जाए.
इस बिल के साथ ही सोरेन कैबिनेट ने राज्य सरकार की नौकरियों में अनुसूचित जातियों (एससी), अनुसूचित जनजातियों (एसटी), अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) और राज्य के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 77% आरक्षण को भी मंजूरी दी है. सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि ओबीसी आरक्षण को मौजूदा 14% से बढ़ाकर 27% कर दिया गया है.
बिल एसटी और एससी आरक्षण को भी वर्तमान 26% और 10% से बढ़ाकर क्रमशः 28% और 12% करता है. यह फैसला वर्तमान झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM)- कांग्रेस-राष्ट्रीय जनता दल (RJD) सरकार के चुनावी वादे को पूरा करता है.
वैसे डोमिसाइल बिल और ओबीसी आरक्षण को बढ़ाना, दोनों को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता. इससे पहले 11 नवंबर 2020 को सोरेन सरकार ने सरना धर्म प्रस्ताव पास करने का फैसला किया था जिसके तहत जनगणना 2021 में अनुसूचित जनजातियों के सरना धर्म के लिए अलग से एक कॉलम बनाने की बात कही गई है.
मेरा मानना है कि बीजेपी के बढ़ते राजनैतिक प्रभुत्व को कमजोर करने के लिए ये तीनों फैसले सामूहिक रूप से लिए गए हैं. जैसा कि देखा जा सकता है, झारखंड की आदिवासी-मूलवासी आबादी में बीजेपी ने अपनी पहुंच बढ़ाई है.
2021 में हेमंत सोरेन सरकार ने सरना आदिवासी धर्म प्रस्ताव पारित किया जो बीजेपी-आरएसएस के इस दावे की धज्जियां उड़ाता है कि आदिवासी असल में हिंदू हैं. हिंदुत्व ब्रिगेड को हमेशा से यह समस्या रही है कि आदिवासी लोग खुद की पहचान विशिष्ट सामाजिक-राजनैतिक समूह के रूप में करते हैं. जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) भारत में अनुसूचित जनजातियों को वनवासी कहना पसंद करता है.
वनवासी शब्द के जरिए यह दावा किया जाता है कि आदिवासी लोग और कुछ नहीं, ‘पिछड़े हिंदू’ हैं और जरूरी सुधारों के जरिए उन्हें बाकी हिंदुओं के स्तर पर लाया जाएगा.
आरएसएस ने आदिवासी इलाकों की तरफ इसलिए ध्यान दिया क्योंकि वहां ईसाई मिशनरीज़ बहुत बड़ी संख्या में हैं और आदिवासी ईसाई धर्म अपनाना रहे थे. इसलिए पिछले काफी वर्षों से उन्होंने ईसाई मिशनरीज़ की नकल पर आदिवासियों को एकजुट करना शुरू किया और उन्हें हिंदू धर्म में आत्मसात करने की कोशिश की. इसके लिए उन्होंने हर हथकंडा अपनाया और कुछ हद तक कामयाबी भी हासिल की.
इसके अलावा आजादी के बाद प्रशासन ने जनगणना में आदिवासियों के धर्म को अलग कॉलम नहीं दिया. इसका नतीजा यह हुआ कि आदिवासियों को मुख्यधारा के धर्म में शामिल कर लिया गया और धर्म और संस्कृति की राजनीति करने वालों को फायदा हुआ.
कई एक्टिविस्ट्स इस बात की हिमायत करते हैं कि आदिवासियों के धर्म के लिए जनगणना में अलग से एक कॉलम बनाया जाए. इसके लिए वे कई वर्षों से आदिवासियों को संगठित और एकजुट कर रहे हैं ताकि जनगणना में एक अलग सरना कोड की मांग की जा सके.
आदिवासियों की इस मांग के मद्देनजर ही सोरेन सरकार 2021 में सरना कोड प्रस्ताव पास करने को मजबूर हुई लेकिन केंद्र सरकार ने इस पर अपनी मंजूरी की मुहर नहीं लगाई है. एक अलग स्वदेशी धर्म को मान्यता देने से न सिर्फ आदिवासियों को एकजुट किया जा सकेगा, बल्कि आदिवासियों को हिंदू साबित करने की कोशिशों पर भी पानी फेरा जा सकेगा.
झारखंड राज्य में प्रतिरोध का इतिहास हमें बताता है कि क्षेत्रीय 'झारखंडी' पहचान के निर्माण के लिए भीतरी-बाहरी का विभाजन महत्वपूर्ण रहा है. आजादी के बाद के दशक में करिश्माई आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में झारखंड पार्टी ने आदिवासियों और मूलवासियों को ‘दिकू’ लोगों के खिलाफ एकजुट किया और अलग राज्य की मांग के साथ एक बड़ी राजनैतिक ताकत बनी. दिकू लोग राज्य में ऐसे बाहरी लोगों को कहा जाता है जिन्होंने स्थानीय लोगों का शोषण किया.
हालांकि झारखंड पार्टी के खत्म होने के बाद से आदिवासियों और मूलवासियों के बीच मतभेद सामने आए हैं. पिछले तीन दशकों में बीजेपी ने धार्मिक पहचान के आधार पर झारखंडी एकजुटता को नुकसान पहुंचाया है. हाल के दिनों में हिंदू धर्म मानने वाले मूलनिवासियों के एक बड़े वर्ग ने बीजेपी की तरफ रुख किया है जिसकी वजह से बीजेपी ने कुछ हद तक चुनावों में जीत हासिल की है.
इसीलिए हेमंत सोरेन ने जो पहल की है, वह न सिर्फ जनता की मांग के मुताबिक है, बल्कि क्षेत्रीय झारखंडी पहचान को पुनर्निमित और पुनर्व्यवस्थित करने की कोशिश भी कही जा सकती है.
झारखंड में रिहाइश का मुद्दा राजनीतिक रूप से संवेदनशील रहा है. झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी 2002 में ऐसा ही एक बिल लेकर आए थे जो स्थानीय निवासियों की परिभाषा देता था. बड़े पैमाने पर इस बिल का समर्थन और विरोध किया गया. आखिर में, अदालत ने इसे खारिज कर दिया.
राजनैतिक खामियाजे के तौर पर मरांडी को अपना मुख्यमंत्री पद गंवाना पड़ा. फिर 2016 में रघुबर दास सरकार ने यह कोशिश फिर से की. इस बार उन्होंने निवास के सबूत के लिए 1985 को कट-ऑफ ईयर माना.
हेमंत सोरेन कैबिनेट ने 1932 के रिकॉर्ड्स के आधार पर स्थानीय निवासियों की परिभाषा तय करने का जो फैसला किया है, उससे एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश है. इससे मूलवासियों के बीच बीजेपी की सेंध को भरने का इरादा है जिन्हें लग रहा है कि झारखंड बनने के बाद भी उनके लिए कुछ नहीं बदला. डोमिसाइल नीति से मूलवासियों को सरकारी नौकरियों और राज्य के संसाधनों में एक बराबर हक मिलेगा और क्षेत्रीय झारखंडी पहचान पुख्ता होगी.
दूसरा, इससे आदिवासियों और मूलवासियों के बीच एक पुल कायम होगा. झारखंड आंदोलन के संघर्ष की यादें ताजा होंगी जब स्थानीय लोगों ने एक साथ मिलकर अलग राज्य की मुहिम चलाई थी और तकलीफें उठाई थीं. धार्मिक ध्रुवीकरण के मौजूदा राजनीतिक संदर्भों में स्थानीय लोगों की एकजुटता की ऐतिहासिक स्मृतियां, भविष्य में क्षेत्रीय एकता का भी आह्वान करती है.
1973 में जेएमएम के गठन के साथ झारखंड आंदोलन में पहचान और पुनर्वितरण की राजनीति शामिल थी. आजसू (ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन) के संस्थापक सदस्यों में से एक, ललित महतो का तर्क है कि आदिवासी और झारखंडी पहचान पर आधारित राजनीति उस आंदोलन का सिर्फ एक हिस्सा थी. उसका दूसरा हिस्सा था, पुनर्वितरण की राजनीति. यह जमीनी स्तर पर झारखंडी समाज का दोबारा से निर्माण करने की जद्देजेहद थी.
लेकिन 2000 में झारखंड के गठन के बाद से क्षेत्रीय दलों की राजनीति में पुनर्वितरण की नीति कहीं हाशिए पर पहुंच गई. इसने झारखंड के सामाजिक-राजनैतिक संदर्भों में बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति के लिए रास्ता तैयार किया जोकि सामाजिक बदलाव के लिए तैयार था.
अब राज्य सरकार की नौकरियों में ओबीसी आरक्षण को 14% से बढ़ाकर 27% प्रतिशत और एससी, एसटी, ओबीसी और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के कुल आरक्षण को 77% प्रतिशत करने से झारखंड की राजनीति में पुनर्वितरण का मुद्दा फिर से मुख्यधारा में आ गया है.
सियासी संकट के दौर में हेमंत सोरेन ने जेएमएम की मूल राजनीति का रास्ता पकड़ लिया है जोकि झारखंडी पहचान के दावे और पुनर्वितरण की राजनीति पर केंद्रित थी. 1932 की रिहाइश नीति, सरना कोड और व्यापक आरक्षण, इनके जरिए झारखंड की राजनीतिक जमीन को नए सिरे से तैयार किया जा रहा है.
स्थानीय लोग भी उम्मीद कर रहे हैं कि राज्य के गठन के समय जो वादे किए गए थे, शायद वे पूरे हो पाएं. यूं इस सरकारी पहल के सामने कानूनी अड़चनें भी मौजूद हैं.
(कुणाल नाथ सिंहदेव आईआईटी मुंबई में सोशियोलॉजी के पीएचडी स्टूडेंट हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यह लेखक के अपने विचार हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है. उनका ट्विटर हैंडल @kunalshahdeo1 है.)
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