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“मैं हुगली जा रहा था. उस वक्त कम्पार्टमेंट में लोगों का एक समूह ‘जय श्री राम ’के नारे लगा रहा था. उन्होंने मुझसे भी यह नारा लगाने को कहा. जब मैंने ऐसा करने से इनकार कर दिया तो वो मुझे पीटने लगे.
ये बयान नहीं शिकायत है मदरसा टीचर हाफिज मोहम्मद शाहरुख हलदार का, जिन्हें ट्रेन में पीटा गया और फिर चलती ट्रेन से धक्का दे दिया गया. और ये शिकायत सिर्फ उन लोगों से नहीं है जो उस वक्त ट्रेन में मूकदर्शक बने रहे, पूरे देश से है. और मोहम्मद अकेले शिकायत नहीं कर रहे.
ये शिकायत उन सबसे है जो खामोश हैं. मैं ये मानने को तैयार नहीं हूं कि जब मोहम्मद शाहरुख की पिटाई हो रही थी तो उस कंपार्टमेंट या पास के कंपार्टमेंट्स में मौजूद तमाम लोग इस तरह उनसे ‘जय श्री राम’ के नारे लगवाने और पीटने को सही मानते होंगे.
मैं ये भी मानने को तैयार नहीं हूं कि जब झारखंड के सरायकेला-खरसांवा में तनजेब अंसारी को 18 घंटों तक पीटा गया (जिससे उसकी मौत हो गई) तो वहां कुछ लोग ऐसे नहीं होंगे जिन्हें लगा होगा कि कुछ गलत हो रहा है. इस भीड़तंत्र से असहमत, लेकिन खामोश लोगों को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने एक चेतावनी दी है.
और जिन लोगों को ऐसा लगता है कि ये सिर्फ हिंदू-मुसलमान का मामला है, वो सावधान हो जाएं. लोकतंत्र ऐसे ही चुपचाप, भीड़तंत्र के अतिक्रमण को देखता रहा तो किसी की भी बारी आ सकती है.
‘अल्प’ पर ‘संख्या’ का हमला, सिर्फ शक पर सजा.... जून में इस तरह की न जाने कितनी घटनाएं हुई हैं. किसी ने संख्या 6 बताई, किसी ने 11. सच्चाई ये है कि सही संख्या कितनी है, किसी को पता नहीं.
और ऐसा भी नहीं है कि ‘न जिरह, न सुनवाई, सीधे फैसला’ की ये बीमारी सिर्फ हुड़दंगी भीड़ को लगी है. पिछले महीने एक सांसद और केंद्रीय मंत्री ने कबूल किया था कि उन्होंने झारखंड में मॉब लिंचिंग के आरोपियों की आर्थिक मदद की थी. 26 जून को बीजेपी के बड़े नेता कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश विजयवर्गीय इंदौर में नगर अतिक्रमण हटाने गए एक निगम अधिकारी को सड़क पर पीटने लगे. नेता जी जोश में थे, तो उनके समर्थक भी होश खो बैठे, सभी उस अफसर पर टूट पड़े. यहां भी सड़क पर लगी अदालत की नाइंसाफी देख, बाकी ‘भले लोग’ खामोश खड़े रहे.
असंवैधानिक अदालतें सिर्फ सड़क पर नहीं लग रहीं, सोशल मीडिया पर देखिए क्या हो रहा है. खबर सच्ची हो या झूठी, ‘वायरल वीर’ अपना फैसला सुना देते हैं. पर्सनल अटैक देश में न्यू नॉर्मल है. एक फिल्म है 'आर्टिकल-15'. अभी ट्रेलर ही आया था कि सोशल मीडिया के भीड़तंत्र ने फैसला सुना दिया-ये फिल्म खास समुदाय के खिलाफ है. डायरेक्टर के साथ नाइंसाफी देखिए कि उनकी मां-बहन को रेप की धमकी दे डाली. इससे पहले फिल्म ‘पद्मावत’ के साथ भी यही सब हुआ. ये सब देख भौंचक्के 'आर्टिकल-15' के डायरेक्टर अनुभव सिन्हा ने एक ओपन लेटर लिखकर कहा- भाइयों फिल्म देख तो लो.
अगर किसी को ये लगता है कि डेढ़ अरब की आबादी वाले देश में ऐसी इक्की-दुक्की घटनाएं हो जाती हैं तो पूरे देश के चरित्र पर बट्टा लगाना ठीक नहीं तो ये भी समझ लीजिए कि इन घटनाओं में एक कड़ी दिखती है. और साफ समझना चाहते हैं तो इन घटनाओं (वारदात) का सियासी नतीजा क्या होना है, ये सोच लीजिए. कोई ताज्जुब नहीं कि ऐसी घटनाओं पर सत्ता से प्रतिक्रिया या तो नहीं आती, या बहुत बवाल मचने के बाद किंतु, परंतु के साथ आती है. लेकिन जैसे देर से मिला इंसाफ भी अन्याय है, उसी तरह इन मामलों में देर से आए आधे-अधूरे बयान भी बेअसर हो जाते हैं.
संसद से सड़क तक ऐसी घटनाओं की प्रतिक्रिया एक सी है, ये समझने के लिए जरा सोशल मीडिया पर मॉब लिंचिंग की खबरों पर प्रतिक्रिया देखिए. ढेर सारे ऐसे पोस्ट मिलेंगे-‘अच्छा जब फलां शहर में किसी हिंदू को मारा गया तब तो हंगामा नहीं मचा...’आखिर ये कैसी दलील है? एक गलत को दूसरा गलत कैसे सही बना सकता है?
टीएमसी की सांसद हैं. महुआ मोइत्रा. अमेरिका में बैंकर थीं. पहली बार सांसद बनी हैं. 25 जून को संसद में 10 मिनट के अपने भाषण में उन्होंने बताया कि किस तरह देश में फासीवाद बढ़ रहा है. उन्होंने कहा- ''कट्टर राष्ट्रवाद से देश के सामाजिक ताने-बाने को आघात पहुंचा है. इस तरह के राष्ट्रवाद का नजरिया काफी संकीर्ण और डराने वाला है.’’
जिस भारत ने दुनिया को धर्म का पाठ पढ़ाया है, उसी को आज दुनिया धार्मिक आजादी पर लेक्चर दे रही है. जब अमेरिकी सरकार ने भारत में अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ते हमलों पर रिपोर्ट निकाली तो हमारा जवाब था- मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है. लेकिन ऐसा कह देने से कुछ नहीं बदला. इसके तुरंत बाद भारत आए अमेरिकी विदेशी मंत्री माइक पोंपियो ने फिर मामला छेड़ दिया.
26 जून को देश के कई शहरों में झारखंड मॉब लिंचिंग के खिलाफ प्रदर्शन हुए. दिल को छू लेने वाले प्लेकार्ड थे. अपनों से अपनी बात कहना चाह रहे थे. कोई सुन रहा है क्या?
मैं मानता हूं जो हो रहा है उसे गलत मानने वाले ज्यादा हैं लेकिन जो इसके खिलाफ बोल रहे हैं वो कम. चुप्पी से काम नहीं चलेगा. फुसफुसाने से भी नहीं. जोर से बोलिए, एक साथ बोलिए. एक शेर के साथ छोड़ जाता हूं. अमल करने लायक लगे तो शायर को दाद दे दीजिएगा और मायने को याद कर अमल कीजिएगा.
खामोशी तेरी मेरी जान लिए लेती है
अपनी तस्वीर से बाहर तुझे आना होगा!
- मोहम्मद अली साहिल
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Published: 26 Jun 2019,10:29 PM IST