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मोहम्मद अली जिन्ना आज भी जिंदा हैं, हालांकि 11 सितंबर 1948 को कराची यात्रा के दौरान टीबी की लंबी बीमारी से लड़ते-लड़ते उन्होंने दम तोड़ दिया. कराची तब उस देश की राजधानी थी जिसकी एक साल पहले जिन्ना ने स्थापना की थी. वो पाकिस्तान के निर्माता थे इसलिए वहां बतौर नायक उनका जिंदा रहना समझ में आता है.
लेकिन आजाद हिंदुस्तान में, खासकर मोदी-शासन वाले हिंदुस्तान में, बार-बार जिन्ना का नाम क्यों लिया जा रहा है? उन्हें खलनायक क्यों बताया जा रहा है? खास तौर पर नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी पर तीखी बहस के बीच उनके अतीत को क्यों खोदा जा रहा है?
नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के समर्थक, जिनमें ज्यादातर बीजेपी और संघ परिवार के लोग हैं, जिन्ना (और उनके साथ कांग्रेस को) मजहब के नाम पर देश के बंटवारे के लिए जिम्मेदार बता रहे हैं. दरअसल, गृह मंत्री अमित शाह ने नागरिकता संशोधन कानून पेश करते समय संसद में जो कहा उसका मर्म भी यही था. शाह ने कहा,
CAA-NRC के ज्यादातर विरोधी, खासकर जो कांग्रेस में हैं, वो भी बीजेपी और संघ परिवार पर निशाना साधने के लिए जिन्ना के नाम का इस्तेमाल करते हैं. वो भी ‘दो-राष्ट्र के सिद्धांत’ - जिसके मुताबिक हिंदू और मुसलमान एक साथ एक देश में नहीं रह सकते - के आधार पर बंटवारे के दोष से जिन्ना को मुक्त नहीं करते. बल्कि वो तर्क के साथ बहस करते हैं कि हिंदुत्वावाद के प्रतीक विनायक दामोदर सावरकर ने मुस्लिम लीग के सुप्रीमो से काफी पहले इस सिद्धांत की वकालत कर भारत के मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र पाकिस्तान के निर्माण की मांग की थी.
इसलिए CAA-NRC पर घमासान में शामिल दोनों पक्षों के लिए जिन्ना खलनायक हैं.
दिलचस्प बात यह है कि एक तीसरा पक्ष भी है – पाकिस्तान – जो कि CAA-NRC पर बहस के साथ-साथ 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 के हटाये जाने के बाद कश्मीर में प्रजातांत्रिक अधिकारों के हनन के संदर्भ में जिन्ना का इस्तेमाल कर रहा है. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपने देश की संसद में कहा,
CAA-NRC के भेदभावपूर्ण नियमों के खिलाफ भारतीय मुसलमानों के उग्र प्रदर्शन का हवाला देते हुए, कई पाकिस्तानी बुद्धिजीवी भी दावा करने लगे हैं कि मुसलमानों के लिए अलग देश की जिन्ना की मांग बिलकुल ठीक थी.
हालांकि भारत में उनके विरोधी और पाकिस्तान में उनके समर्थक दोनों यह जानकर हैरान होंगे कि जिन्ना ने बंटवारे से कुछ साल पहले ‘दो राष्ट्र के सिद्धांत’ की वकालत जरूर की थी (जो कि उनके राजनीतिक जिंदगी की सबसे बड़ी भूल साबित हुई), लेकिन अपनी राजनीतिक सफर में बहुत लंबे अंतराल तक वो ‘एक साथ दो-राष्ट्र’ के सिद्धांत के हिमायती रहे थे.
जानकारी के लिए यह बताना जरूरी होगा कि अल्लामा इकबाल भी, जिन्हें पाकिस्तानी अपने देश के ‘वैचारिक राष्ट्रपिता’ मानते हैं, ‘एक साथ दो-राष्ट्र’ के सिद्धांत में यकीन रखते थे.
हाल में एक इंटरव्यू के दौरान इकबाल के बेटे, जावेद इकबाल, ने दोहराया कि मशहूर कवि (जिन्होंने ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां’ हमारा लिखा) वैसा पाकिस्तान नहीं चाहते थे जैसा बनाया गया. जहां भारत और पाकिस्तान के लोग इस वक्त इतिहास और ऐतिहासिक शख्सियतों को ब्लैक एंड व्हाइट में देखना चाहते हैं, यह जानना जरूरी है कि जिन्ना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे गलत समझे जाने वाले नेताओं में से एक हैं. यह - विपरीत वजहों से, लेकिन - भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए सच है.
दोनों देशों में जिस बात को नासमझी और पूर्वाग्रह की वजह से लोग भूल जाते हैं, वो यह है कि जिन्ना ने भारत के बंटवारे को रोकने की हर कोशिश की. लगातार मुसलमानों के हक और ब्रिटिश राज के बाद सत्ता में सम्मानजनक साझेदारी की लड़ाई लड़ते हुए, उन्होंने आखिरी वक्त तक अपनी सारी मांगें भारत के अंदर ही पूरी करने की बात रखी थी. खासकर अपनी सियासी सफर की शुरुआत में (1930 के दशक के बीच तक) वो हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए पूरी शिद्दत और यकीन के साथ कोशिश करते रहे. जिन्ना कभी मजहबी कट्टरवादी नहीं रहे.
जब पाकिस्तान की स्थापना हुई तब भी उन्होंने सहनशील, मिश्रित, धर्म-निरपेक्ष और प्रजातांत्रिक पाकिस्तान की कल्पना की थी. पाकिस्तान का इस्लामीकरण जिन्ना के बाद की घटना थी.
लखनऊ संधि के दो रचयिता, तिलक और जिन्ना, को यकीन था कि हिंदुस्तान की आजादी के लिए हिंदू-मुस्लिम एकता निहायत जरूरी है. उन दिनों कांग्रेस में भी जिन्ना ‘हिंदू-मुस्लिम एकता के दूत’ – जो विशेषण कांग्रेस नेता गोपाल कृष्ण गोखले को हासिल था - माने जाते थे.
लाहौर प्रस्ताव के अपनाए जाने से ठीक दो महीने पहले (जिसे पाकिस्तानी – ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ कहते हैं), जिन्ना ने कहा था कि भारत हिंदू और मुसलमान ‘दोनों की मातृभूमि’ है. 19 जनवरी 1940 को लंदन के टाइम एंड टाइड में छपे अपने लेख में जिन्ना ने लिखा:
पाकिस्तान में जन्मी इतिहासकार आयशा जलाल ने अपनी मशहूर किताब ‘द सोल स्पोक्समैन – जिन्ना, द मुस्लिम लीग एंड द डिमांड फॉर पाकिस्तान’ में लाहौर प्रस्ताव के समय जिन्ना और मुस्लिम लीग के दूसरे नेताओं की सोच के बारे में कई खुलासे किए हैं.
उदाहरण के तौर पर, ब्रिटिश अधिकारी एच वी हॉडसन - 1941 में भारत के सुधार आयुक्त - ने मुस्लिम लीग के नेताओं से बातचीत के बाद अपनी रिपोर्ट में लिखा कि ‘वो पाकिस्तान को भारतीय संघ का हिस्सा मानते हैं.’
मुस्लिम लीग के नेता और जिन्ना के भरोसेमंद रहे, इस्माइल इब्राहिम चुनद्रिगर - जो कि 1957 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने - ने कहा,
सभी साक्ष्यों से जाहिर है कि जिन्ना की असली नीयत वैसा पाकिस्तान बनाने की नहीं थी जैसा बना – जिसे वो निराशा में एक परछाई, एक छिलका, एक अपाहिज और कीड़ा-लगा पाकिस्तान कहा करते थे – बल्कि उन्हें एक साथ हिंदुस्तान-पाकिस्तान जैसा महासंघ चाहिए था जिसे वो भारत कहते थे. गौर करने की बात यह है कि बंटवारे की हर बहस में वो पाकिस्तान से अलग पूरे हिस्से को ‘हिंदुस्तान’ कहा करते थे और दोनों हिस्से को एक साथ ‘भारत’ या ‘मातृभूमि’ कहा करते थे.
कैबिनेट मिशन प्लान का मतलब था कोई अलग पाकिस्तान नहीं होगा. जून 1947 में, जिन्ना ने दिल्ली में हिंदुस्तान और पाकिस्तान की संयुक्त संविधान सभा की बैठक का प्रस्ताव रखा ताकि कैबिनेट मिशन प्लान को अंजाम दिया जा सके.
यह भारत को एकजुट रखने का आखिरी मौका था. और जिन्ना इसे मंजूर करने के लिए तैयार थे. इसलिए इतिहास गवाह है कि भारत के बंटवारे के लिए दोनों पक्ष जिम्मेदार हैं, हालांकि मुस्लिम लीग का दोष ज्यादा है क्योंकि इसने पाकिस्तान की मांग मजहब के आधार पर बांटने वाली ‘दो-राष्ट्र के सिद्धांत’ पर रखी. इससे भी बड़ा दोष ब्रिटिश सरकार का है जिसने बेकार की हड़बड़ी दिखाते हुए संवेदनहीन और अनियोजित तरीके से बंटवारे को अंजाम दे दिया.
कम्यूनिस्ट नेता एम एन रॉय, जो कि बाद में कट्टरपंथी मानवतावाद के समर्थक बने, जिन्ना के समकालीन थे. जिन्ना पर उनका आकलन पूरी तरह सच है: ‘मोहम्मद अली जिन्ना सबसे बदनाम और गलत समझे जाने वाले नेता थे. इस अनुभव ने उन्हें कड़वा बना दिया और द्वेष की भावना में उन्होंने एक लक्ष्य तैयार कर लिया, जिसे हासिल करने के बाद उनका नाम और खराब हुआ. अगर दूरदर्शिता की बात की जाए तो जिन्ना कोई आदर्शवादी नहीं थे. वह एक व्यावहारिक इंसान थे जिनमें चतुराई भरी थी और औसत से ज्यादा अक्लमंद थे. ऐसा इंसान मुश्किलों से भरी कामयाबी के बाद होने वाली परेशानियों से अनजान नहीं हो सकता था. अपनी जीवन यात्रा के बाद के हिस्से में सियासत उनके लिए जुआ थी, जिसमें बड़ा दांव लगाने के बाद वो पीछे नहीं हट सके. उन्हें हर हाल में कड़वे छोर तक पहुंचना था. कड़वा इसलिए क्योंकि तब वो कामयाबी के साये से भी घबराने लगे होंगे, खासकर तब जब सफलता हासिल होने वाली थी. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. सत्ता की चाहत नहीं रखने वाला इंसान सियासत में बहुत बुरी तक जकड़ चुका था. इस बात से बहुत कम लोग इत्तिफाक रखेंगे लेकिन निष्पक्ष और गंभीर इतिहासकार इस तथ्य को इनकार नहीं कर सकते.
जिन्ना के कई करीबी हिंदू मित्र थे. इनमें से एक, रामकृष्ण डालमिया, कराची के बड़े उद्योगपति, के सामने उन्होंने कुछ ऐसे अपना दुख और दर्द बयां किया था: ‘देखो यह क्या हो गया, मैं कभी पाकिस्तान नहीं चाहता था! इसे सरदार पटेल ने मुझ पर थोप दिया. और अब यह चाहते हैं कि मैं चुप हो जाऊं और हार मानकर अपने हाथ खड़े कर दूं.’ (संयोग से, पाकिस्तान जाने से पहले जिन्ना ने दिल्ली के 10 औरंगजेब रोड पर मौजूद अपना आलीशान बंगला डालमिया को ही बेचा था. इस बंगले में अब नीदरलैंड का दूतावास मौजूद है.)
‘दो-राष्ट्र के सिद्धांत’ पर पाकिस्तान की स्थापना के बाद भी जिन्ना ने इसे ठुकरा दिया. संविधान सभा में उन्होंने घोषणा की कि हिंदू और मुसलमान दो मुल्क नहीं, दो कौम हैं. 11 अगस्त 1947 को पाकिस्तान के संविधान सभा का उद्घाटन करते हुए उन्होंने ऐलान किया:
जिन्ना के भाषण से साफ था कि वो पाकिस्तान को धर्म-निरपेक्ष और प्रजातांत्रिक देश बनाना चाहते थे. लेकिन पाकिस्तानी प्रशासन में मौजूद कट्टरपंथी को यह पसंद नहीं था.
दरअसल, वो जिन्ना के भाषण के इस हिस्से को हटा देना चाहते थे. डॉन के एडिटर अल्ताफ हुसैन को इसकी भनक लग गई और उन्होंने खुद जिन्ना से इसकी शिकायत करने की धमकी दे दी. यह धमकी काम आई और अखबार में जिन्ना के भाषण को बिना कांट-छांट के पूरा छापा गया.
1948 में, पूर्वी पाकिस्तान की राजधानी ढाका की यात्रा के दौरान, जिन्ना ने अल्पसंख्यकों को भरोसा दिया कि उनके साथ कभी नाइंसाफी नहीं होगी. संविधान सभा में विपक्ष के नेता और कांग्रेस के लीडर शिरीष चन्द्र चटोपाध्याय से बातचीत में जिन्ना ने कहा:
जिन्ना के भरोसेमंद साथी महमूदाबाद के राजा, जो कि 1948 में उन्हें कराची में मिले, ने लिखा कि कायद-ए-आजम बहुत दुखी और परेशान दिख रहे थे. ‘वो पुराने दिनों में वापस लौटना चाहते थे, वो लौटकर हिंदुस्तान आना चाहते थे. सच तो यह है कि वह खुद को भारतीय मानते थे और भारत लौटना चाहते थे.’
दिसंबर 1947 में कराची में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग काउंसिल की बैठक में उन्होंने वो बातें कहीं जिसपर आज यकीन नहीं होता:
जिन्ना का दिल कराची के सरकारी मकान में नहीं बल्कि बॉम्बे के मालाबार हिल्स में बनाए अपने खूबसूरत बंगले में बसता था. पाकिस्तान में भारत के पहले राजदूत श्री प्रकाश ने अपनी किताब ‘पाकिस्तान: बर्थ एंड लास्ट डेज (मीनाक्षी प्रकाशन; मेरठ 1965)’ में इसका विश्वसनीय और अद्भुत जिक्र किया है. विभाजन के बाद भारत और पाकिस्तान की सरकार ने घरबार छोड़कर जा चुके लोगों की संपत्ति जब्त करना शुरू कर दिया था. आपसी सद्भावना की वजह से प्रधानमंत्री ने फैसला लिया कि मुंबई का जिन्ना हाउस जैसा था वैसा ही रहना दिया जाए.
हालांकि दूतावासों के लिए जगह की कमी होने की वजह से, सरकार ने श्री प्रकाश से कहा कि वो जिन्ना से उनकी मर्जी जान लें और इसका किराया पता कर लें. श्री प्रकाश लिखते हैं कि “जिन्ना यह सुनकर हैरान हो गए और गुजारिश के लहजे में कहा: ‘श्री प्रकाश, मेरा दिल मत तोड़ो. जवाहर को बोलो मेरा दिल ना तोड़े. मैंने ईंट-ईट जोड़कर इसे बनाया है. ऐसे घर में कौन रहता है? कितने शानदार बरामदे? यह एक छोटा सा घर है जिसमें या तो यूरोप का कोई परिवार या कोई भारतीय राजकुमार ही रह सकता है. तुम्हें पता नहीं है मुझे मुंबई से कितनी मोहब्बत है. मैं अब भी वहां लौटने का इंतजार कर रहा हूं.’
जिन्ना ने जो हासिल किया उसे लेकर अपने जीवन के आखिरी समय में वो बहुत दुखी थे. उनके डॉक्टर के मुताबिक, क्वेटा में जिन्ना ने लियाकत अली खान से कहा ‘पाकिस्तान मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल थी.’ आगे जिन्ना ने यह भी कहा:
वक्त आ गया है कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान के लोग इतिहास के सही तथ्यों की रोशनी में जिन्ना को समझें – और भारत में पाकिस्तान की बुराई, और पाकिस्तान में भारत की बुराई में उनका दुरुपयोग ना करें.
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Published: 25 Dec 2019,02:01 PM IST