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धर्म को साइड रखकर भी कांवड़ यात्रा से सीख सकते हैं ये 5 बड़ी बातें

अगर कांवड़ यात्रा के धार्मिक पहलुओं को एक ओर रख दें, फिर भी इस यात्रा से कई सबक सीखे जा सकते हैं.

अमरेश सौरभ
नजरिया
Updated:
(फोटो: शिव कुमार मौर्या/द क्‍विंट)
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(फोटो: शिव कुमार मौर्या/द क्‍विंट)

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हाल में कांवड़ियों से जुड़ी कुछ अप्रिय घटनाएं सामने आई हैं. इस वजह से कांवड़ियों की इमेज पर असर पड़ा है, साथ ही इस यात्रा पर भी सवाल खड़े किए जा रहे हैं.

अगर कांवड़ यात्रा के धार्मिक पहलुओं को एक ओर रख दें, फिर भी इस यात्रा से कई सबक सीखे जा सकते हैं. ये बात मैं सिर्फ एक बार की कांवड़ यात्रा से मिले अनुभव के आधार पर दावे से कह सकता हूं.

पहले बैकग्राउंड पर एक नजर

बिहार-झारखंड में लोग आम तौर पर सावन और इसके बाद के महीने भादो में कांवड़ लेकर यात्रा करते हैं. ये यात्रा बिहार के भागलपुर जिले के सुल्‍तानगंज से शुरू होती है और झारखंड के बैद्यनाथधाम में शिवलिंग पर जल चढ़ाने के बाद समाप्‍त होती है. कांवड़िए उत्तरवाहिनी गंगा से जल लेकर 120 किलोमीटर की यात्रा पैदल करते हैं, वह भी नंगे पांव. वैसे इस रास्‍ते पर कवड़ि‍ए छिटपुट पूरे साल नजर आ जाते हैं.

(फोटो: क्‍विंट हिंदी)

धर्म को परे रखकर इस यात्रा से क्‍या सीखा जा सकता हैं, जरा विस्‍तार से देखिए.

अनुशासन से कोई भी लक्ष्‍य कठिन नहीं

हर साल लाखों लोग पैदल ही 120 किलोमीटर की दूरी औसतन 72 घंटे में तय करते हैं, मतलब इरादे के पक्‍के लोगों ने 'वॉकिंग डिस्‍टेंस' का पैमाना बहुत ऊपर कर दिया है.

खैर, अपनी पहली कांवड़ की शुरुआत में मैं बेहद उत्‍साहित था. काफी तेज चलकर कम वक्‍त में लक्ष्‍य तक पहुंचने को बेताब नजर आ रहा था. एक बुजुर्ग कांवड़ि‍ए ने मुझे जो नसीहत दी, उसका सार इस तरह है:

ज्‍यादा तेज भागने की कोशिश करने वाले थोड़ी ही देर में बहुत ज्‍यादा थक जाते हैं. इसके बाद जब वे सुस्‍ताने बैठते हैं, तो देर तक पड़े ही रहते हैं. फिर उठकर तेज चलने की कोशिश करते हैं, इसके बाद उन्‍हें और ज्‍यादा थकान होती है. फिर और सुस्‍ती आती है. ऐसे में ये औसत चाल से बढ़ने वालों से भी पिछड़ जाते हैं. इसलिए सही रणनीति ये है कि सामान्‍य चाल से चला जाए, थकान होने से पहले ही थोड़ी देर आराम कर लिया जाए. फिर तुरंत आगे बढ़ जाया.

पूरी यात्रा में मैंने इस सुझाव पर अमल किया. इसे थकान बहुत कम हुई और वक्‍त भी कम लगा.

सबक क्‍या है

अब किसी परीक्षा की तैयारी करने वालों की ओर देखिए. जो लोग किसी दिन 16 घंटे पढ़ाई करते हैं, अगले ही दिन थकान और नींद की वजह से सिर्फ 3 घंटे, ऐसे लोगों की कामयाबी को लेकर संदेह बना रहता है. दूसरी ओर अनुशासित रूप में 6-8 घंटे रोज पढ़ने वाले कामयाब होते ज्‍यादा देखे जाते हैं. मतलब कामयाबी का सूत्र है 'अनुशासित निरंतरता'. इसे बुद्ध का 'मध्‍यम मार्ग' भी कह सकते हैं.

जीवन में हमेशा 'अभाव' का भाव क्‍यों बना रहता है?

लंबी यात्रा के दौरान कांवड़ियों के ठहरने के लिए कई जगह धर्मशाला या कैंप बने होते हैं. कई कैंप एकदम खुले मैदान में होते हैं. वैसे कई लोग समय बचाने के लिए देर रात तक चलते हैं, फिर सड़क किनारे कहीं भी 'आराम से' सो जाते हैं.

जीवन में पहली बार खुले आसमान के नीचे सड़क किनारे (एक भिक्षु की तरह) गेरुआ रंग की प्‍लास्‍ट‍िक की चादर पर सोने का एहसास बिलकुल अद्भुत था. उस वक्‍त घर की वैसी कई चीजें मेरी आंखों के सामने से गुजर रही थीं, जिनके बारे में घर में रहते हुए कभी सोचने का वक्‍त नहीं मिला. या जिनकी अहमियत का अंदाजा तब लगा, जब 2-3 दिनों के लिए उनका साथ छूटा. जैसे- घर का साफ पानी, टाइम पर नाश्‍ता और भोजन, घर की छत और आरामदायक बिस्‍तर.

सबक क्‍या है

इंसान धन-दौलत के अभाव की वजह से नहीं, बल्‍कि अपनी बेहिसाब जरूरतों और तृष्‍णा की वजह से हमेशा असंतुष्‍ट बना रहता है. अब जरा How to stop worrying and start living के लेखक डेल कारनेगी का सूत्र याद कीजिए: अगर हमारे पास पीने के लिए साफ पानी हो, भूख मिटाने लायक भोजन हो और सोने के लिए बिस्‍तर, तो जीवन में किसी और चीज के लिए शिकायत नहीं करनी चाहिए.

(फोटो: शिव कुमार मौर्या/द क्‍विंट)
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हर वर्ग के लिए 'धार्मिक पर्यटन' या फिटनेस टेस्‍ट जैसा

वैसे तो कांवड़ लेकर जाने वालों में हर वर्ग और तबके के लोग शामिल होते हैं, लेकिन इनमें बड़ी तादाद में वैसे लोग भी होते हैं, जो अभाव की वजह से पर्यटन के लिए शिमला-दार्जिलिंग या ऐसे किसी पर्यटन स्‍थान का रुख नहीं कर पाते हैं.

खेती-किसानी से जुड़ी प्रदेश की बड़ी आबादी सावन-भादो में धान की रोपाई खत्‍म करने के बाद फुर्सत में कहीं बाहर निकलने के बारे में सोचती है. ऐसे लोगों के लिए ये बेहद कम खर्चीला, लेकिन बेहतर ‘धार्मिक पर्यटन’ जैसा होता है.

रास्‍ते में चलते आपको ऐसे कई लोग मिल जाएंगे, जो बताएंगे कि वे 5वीं बार, 12वीं बार या 20वीं बार या इससे भी ज्‍यादा बार कांवड़ ले जा चुके हैं. साथ ही वे हर साल इस यात्रा से खुद को ज्‍यादा सेहतमंद पाते हैं.

दरअसल, हर साल पैदल कांवड़ लेकर जाने से लगातार उनका 'फिटनेट टेस्‍ट' होता रहता है. अगर शरीर में कोई गड़बड़ी होती है, तो लक्षण उभरने पर वे इसका निदान भी करवा लेते हैं. यही उनकी सेहत का राज होता है.

सबक क्‍या है

कांवड़ियों की बेहिसाब भीड़ को केवल धर्म के चश्‍मे से देखना ठीक नहीं है. ये उनके जीवन की अहम जरूरत का मामला भी हो सकता है.

क्‍या जात-पांत के भेद से ऊपर उठना मुश्किल है?

एक बार जो गेरुआ कपड़े पहनकर, कांवड़ लेकर निकल पड़ता है, वो कम से कम पूरी यात्रा के दौरान जात-पांत से जुड़ी अपनी पहचान को पीछ छोड़ देता है. रास्‍ते में चलने वाले हजारों लाखों लोगों की पहचान सिर्फ 'बोलबम' का उद्घोष करने वाले 'बम' के रूप में होती है. हर 'बम' एक-दूसरे का सहयोगी है, हमराही है और एक-दूसरे के लिए आदरणीय है. कांवड़ यात्रा के दौरान हर किसी का एक दर्जा होता है, ऊंच-नीच का सारा भेद मिट जाता है.

सबक क्‍या है

जात-पांत के भेद और इससे जुड़े 'हठ' से ऊपर उठना कोई मुश्किल काम नहीं है. अगर तीन दिनों के लिए जातिगत भावना से ऊपर उठा जा सकता है, तो 365 दिनों के लिए क्‍यों नहीं?

(फोटो: फेसबुक/@BabaDhamDeoghar)

जीवन का 'दर्शन' जीने का मौका

एक बार फिर से प्‍लास्‍ट‍िक की चादर और खुले आसमान की ओर लौटते हैं. उस हालत में कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपके घर में कितने बंधु-बांधव हैं. कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपके बैंक खाते में कितने पैसे हैं. सब पीछे छूट जाता है और आप सबकुछ भूलकर खुद को नींद (नींद को आधी मृत्‍यु की भी संज्ञा दी गई है) के हवाले करने को तैयार हो जाते हैं.

सबक क्‍या है

सोचो, साथ क्‍या जाएगा?

... और आखिरी बात

मेरी कांवड़ यात्रा साल 2003 में हुई थी. इससे पहले भी कई बार 'बोलबम' जाने की इच्‍छा हुई, लेकिन कभी ऐसा संयोग नहीं बन पा रहा था कि परिजन या मोहल्‍ले के किसी दोस्‍त के साथ जा सकूं. ग्रुप के साथ चलने से क्‍या-क्‍या फायदे होते हैं या अकेले जाने में क्‍या-क्‍या परेशानी हो सकती है, ये बताने की जरूरत नहीं है.

लेकिन ग्रुप न मिल पाने की वजह से मेरी ख्‍वाहिश अधूरी ही रह जा रही थी. आखिरकार सावन में एक दिन मैंने बिना ज्‍यादा प्‍लान बनाए, अकेले ही 'बोलबम' जाने का इरादा कर लिया. परिजनों की स्‍वीकृति मिल गई. पूरी कांवड़ यात्रा का अनुभव अद्भुत रहा.

आज भी मुझे अपनी कांवड़ यात्रा की याद आ जाती है, जब टीवी पर अमिताभ बच्‍चन अपनी एक पुरानी फिल्‍म का डायलॉग बोल रहे होते हैं:

आदमी दुनिया में आता अकेला है, जाता अकेला है. इसलिए अगर उसे कुछ करना है, तो अकेला ही करना चाहिए.

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Published: 12 Aug 2018,05:46 PM IST

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