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Karnataka Election Results 2023: 1976 में, तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के विवादास्पद और सत्तावादी आपातकाल शासन की ऊंचाई पर, कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष, देवकांत बरुआ, अपने एक बयान के साथ कुछ हद तक बदनाम हो गए. उन्होंने कहा था कि "इंडिया इंदिरा है और इंदिरा ही इंडिया."
इसके केवल एक साल बाद, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को जनता पार्टी के रूप में चुनाव लड़ने वाले बेमेल गठबंधन से अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा. लेकिन इस बार भी यह ग्रैंड ओल्ड पार्टी दक्षिणी राज्यों को अपने साथ बनाए रखने में कामयाब रही.
यहां पर आकर, किसी ने कहा: अगर इंदिरा भारत नहीं हैं, तो कम से कम वो दक्षिण भारत हैं. तमिल व्यंग्यकार चो रामास्वामी द्वारा कही गई एक दूसरी पंक्ति में कहा गया है कि यह फैसला इतिहास की तुलना में भूगोल के बारे में अधिक बताता है.
उन दिनों के किस्से आज दिमाग में तब आए हैं जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बीजेपी कर्नाटक में सत्ता खो रही है.
बीजेपी का अब सभी पांच दक्षिणी राज्यों में प्रांतीय सरकारों से सफाया हो चुका है. यह फैसला अखिल भारतीय राष्ट्रवादी पार्टी होने के बीजेपी के दावे पर अगर सवाल नहीं उठाया तो ताना जरूर मारता है. पीएम मोदी के आखिरी समय के धमाकेदार और शोर-शराबे, बयानबाजी से भरे 26 किलोमीटर का रोड शो काम नहीं आया है. कांग्रेस की जीत का अंतर बहुत बड़ा है.
इस मौके पर 1977 के नतीजों को याद करेंगे तो हमें दो अंतर्दृष्टि/इनसाइट मिलेगी. सबसे पहले, दक्षिण और उत्तर भारत अक्सर किसी एक मुद्दे पर अलग-अलग तरीकों से सोचते हैं. दक्षिण भारत नीतियों, वादों और नेतृत्व शैलियों की आवश्यकता पर जोर देता है. यह मोदी या बीजेपी के सबको एक चाबुक से हांकने के रणनीति में फिट नहीं होता है.
दूसरा यह सरल ज्ञान मिला है कि आप लोकतांत्रिक राजनीति में कभी किसी को खारिज नहीं कर सकते. 1984 की लोकसभा में बीजेपी का लगभग सफाया हो गया था. तब प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपनी मां इंदिरा गांधी की हत्या के लिए उभरी सहानुभूति लहर के दम पर राष्ट्रीय चुनावों में भारी जीत हासिल की थी. लेकिन बीजेपी ने अगले दशक में वापसी की.
कर्नाटक में, बीजेपी को, जिसे मैं द्रविड़ ईंट की दीवार कहता हूं, उसका सामना करना पड़ा. दक्कन के पठार की राजनीति उत्तरी गंगा के मैदानों की राजनीति से काफी भिन्न है. आरएसएस समर्थित बीजेपी का पुराना नारा "हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान" में एक अनुप्रास आकर्षण है, लेकिन यह विंध्य के दक्षिण में जाते ही शिथिल पड़ जाता है.
यहां, महत्वाकांक्षी पिछड़ी जातियां और राजनीतिक रूप से जागरूक मतदाता नौकरी कोटा और कल्याणकारी योजनाओं जैसे उपहारों की मांग करते हैं जो बीजेपी के आर्थिक रूप से रूढ़िवादी दृष्टिकोण को चुनौती देते हैं. कांग्रेस को इसके लिए हामी भरकर खुशी हुई है और बीजेपी समर्थक जिसे मुफ्तखोरी/फ्रीबीज कहते हैं, कांग्रेस उससे भरा एक वैकल्पिक मंच प्रदान कर रही है. वोटिंग मशीन में बटन दबाने वाले उन्हें "वोटबीज" कह सकते हैं.
वैसे तो बीजेपी ने ऐतिहासिक रूप से भ्रष्टाचार के खिलाफ चुनाव प्रचार करती रही है. लेकिन इस बार मामला इसके उलट था. कांग्रेस उसे "40% सरकार" बता रही थी, और आरोप लगाया कि वह हर काम के लिए 40% कमीशन लेती है,
बीजेपी ने गलती से कन्नड़ और कर्नाटक के गौरव को आहत कर दिया, जब गृह मंत्री अमित शाह ने गुजरात स्थित अमूल द्वारा दक्षिणी राज्य के नंदिनी की मदद करने की बात कही गयी. उनकी मदद की पेशकश को कांग्रेस ने अपने चुनाव अभियानों में भुनाया. उसने आरोप लगाया कि बीजेपी लोकप्रिय स्थानीय ब्रांड को दबाना चाहती है.
हम कभी नहीं जान पाएंगे कि किस फैक्टर ने कांग्रेस की जीत को अधिक प्रभावित किया. लेकिन यह निश्चित है कि एक सत्ता-विरोधी भावना, जो कर्नाटक की राजनीति की विशेषता है, ने निश्चित रूप से मदद की. इसके अलावा, हम इतिहास से जानते हैं कि किसी भी राजनीतिक दल को कर्नाटक में राजनीतिक रूप से जागरूक ग्रामीण मध्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिद्वंद्वी वोक्कालिगा और लिंगायत समुदायों के हितों को संतुलित करना पड़ता है.
कर्नाटक में विजेताओं को तय करने में दोनों समुदायों की अहम भूमिका होती है. ऐसा लगता है कि बीजेपी इस बार अपना संतुलन बुरी तरह से बिगाड़ चुकी थी. ऐसा लगता है कि लिंगायतों पर इसका दांव कुछ प्रमुख क्षेत्रों में उलटा पड़ गया और उसमें सत्ता-विरोधी मूड जुड़ गया.
ऐसा प्रतीत होता है कि वोक्कालिगा के कृषक समुदाय ने कुछ महत्वपूर्ण इलाकों में जनता दल (सेक्युलर) के प्रति अपनी पारंपरिक निष्ठा को त्याग दिया है. इसने अपने वोटों को इस तरह से विभाजित किया है जिससे लगता है कि कांग्रेस को अधिक मदद मिली है.
कल्पना की उड़ान भरे तो ऐसा लगता है कि शिवकुमार राष्ट्रीय हिट कन्नड़ फिल्म, केजीएफ से एक कल्ट लाइन बोल रहे हैं: "इफ यू थिंक यू आर बैड, देन आई एम योर डैड"
जाति और स्थानीय फैक्टर्स से संबंधित मामलों पर विचार करने वाले चुनाव विश्लेषक और पंडित आने वाले दिनों में अधिक डिटेल निकालेंगे. अभी जो कहा जा सकता है वह यह है कि दक्षिण में चुनाव लड़ने वाली किसी भी पार्टी द्वारा सिर्फ इसलिए जश्न मनाना जल्दबाजी होगी क्योंकि उसके पास प्रोपेगैंडा का तूफान है.
(लेखक एक सीनियर पत्रकार और कमेंटेटर हैं, जिन्होंने रॉयटर्स, इकोनॉमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए काम किया है. उनका ट्विटर हैंडल @madversity है. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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