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संडे व्यू: 'कांग्रेस मुक्त भारत' नहीं बिन दक्षिण बीजेपी, वर्चस्ववाद या लोकतंत्र?

पढ़िए आज नीलांजन सरकार, मुकुल केसवान, पी चिदंबरम, तवलीन सिंह और टीएन नाइनन के विचारों का सार.

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संडे व्यू: बिन दक्षिण बीजेपी, वर्चस्ववाद या लोकतंत्र?

(Photo: Altered by Quint Hindi)

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कर्नाटक में हार के बाद बीजेपी की चुनौती बढ़ी

नीलांजन सरकार ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव (Karnataka Assembly Election) के नतीजे बताते हैं कि ध्रुवीकरण से एंटी इनकंबेंसी का मुकाबला नहीं किया जा सका. रिटायर हो रहे येदियुरप्पा बीजेपी को बैकफायर कर गये और भगवा पार्टी कांग्रेस की लोककल्याणकारी मुद्दों को आगे बढ़ाने का मुकाबला नहीं कर सकी. निस्संदेह कांग्रेस ने असाधारण उपलब्धि हासिल की. 136* सीट और 43 फीसद वोट. 1989 के बाद सबसे बड़ी जीत.

*फाइनल आंकड़े- 135 सीट

स्थानीय स्तर पर जबरदस्त एंटी इनकंबेंसी थी. इसका मुकाबला करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी ने मुद्दों को उभारा, लेकिन वह काम नहीं आया. 2018 में जिन सीटों पर बीजेपी जीती थी, वहां बीजेपी को 5 फीसदी वोटों का नुकसान 2023 में देखने को मिला है. हालांकि येदियुरप्पा के प्रभाववाली सीटों से बाहर बीजेपी ने अपना विस्तार भी किया है. बीजेपी का स्ट्राइक रेट शहरों में घटा है जबकि गांवों में बढ़ा है. शहरी इलाकों में बीजेपी ने 46% स्ट्राइक रेट रखा जबकि ग्रामीण इलाकों में यह 63 प्रतिशत दिखा. 2013 के मुकाबले बीजेपी को 20 फीसदी से अधिक वोट मिलने वाली सीटें 67 प्रतिशत बढ़ी हैं.

गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को 10 किलो अनाज, हर घर की महिला प्रमुख को दो हजार रुपये महीना और 200 यूनिट फ्री बिजली के वादे ने कांग्रेस को मजबूत किया. जबकि, बीजेपी इन लोककल्याणकारी वादों का मुकाबला नहीं कर सकी.

पश्चिम बंगाल के बाद कर्नाटक में यह फिर साबित हुआ कि बीजेपी लोककल्याणकारी वादों का मुकाबला नहीं कर सकी और न ही क्षेत्रीय नेताओं से प्रभावशाली तरीके से हैंडल कर सकी. राष्ट्रीय स्तर पर भी बीजेपी के सामने चुनौतियां हैं. भारत जोड़ो यात्रा और लोककल्याणवाद की चुनावी सफलता ने आने वाले समय में विपक्ष को नयी रणनीति बनाने का अवसर दिया है.

बिन दक्षिण बीजेपी

टेलीग्राफ में मुकुल केसवान ने लिका है कि बहुसंख्यकवाद विरोधी दर्शक के रूप में नरेंद्र मोदी के दौर में टीवी पर चुनाव नतीजे देखना खौफनाक होता है. इसके दो कारण हैं. अक्सर हार का सामना करना पड़ता है. दूसरा, जब कभी जीत भी जाते हैं तब भी हार ही होती है. कर्नाटक चुनाव नतीजों के दौरान जब कांग्रेस 113 के आंकड़े से नीचे पहुंच गयी तब ऐसी ही स्थिति बनी थी. टीवी स्क्रीन पर दो विकल्प दिखाए जाने लगे. जब बीजेपी जीते तब का प्लान और हार जाए तब का प्लान. ऑपरेशन लोटस का विकल्प दिखाया जाने लगा.

केसवान लिखते हैं कि राजदीप सरदेसाई ने स्क्रीन पर कांग्रेस प्रवक्ता को फटकारने लगे कि कांग्रेस ने जमीनी स्तर पर अच्छा काम नहीं किया है.

अपने खास सूत्रों के हवाले से वे हावी होने लगे. लगभग यही ड्रामा दर्जनों लाइव शो मे चल रहा था. ऐसे में इस शो से दूर रहकर ही खुद को बचाया जा सकता है. एंकर और गेस्ट समझते हैं कि बीजेपी अजेय है. एक समय विशेषज्ञ कह रहे थे कि लिंगायत से बाहर आकर भी बीजेपी ने अपना वोट बैंक बचा लिया है. इस तरह से यह बीजेपी की जीत है. कांग्रेस ने बीजेपी के मुकाबले दुगुनी से भी ज्यादा सीटें जीतीं. कांग्रेस मुक्त भारत के बरक्स अब स्थिति हो गयी है बीजेपी बिन दक्षिण.

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वर्चस्ववाद या लोकतंत्र?

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि अमेरिका के टेक्सास में बीते दिनों भारतीय नागरिक ऐश्वर्या थतिकोंडा की हत्या कर दी गयी. मॉल में गोलियों से भून दिए गये लोगों में वो भी थीं. अंधाधुंध फायरिंग करने वाला हत्यारा इस मानसिकता का था कि श्वेत लोग श्रेष्ठ होते हैं. इसी मानसिकता के साथ नाजीवाद का उत्थान हुआ जो यहूदियों का सफाया करना चाहता था. श्वेत वर्चस्ववाद एकमात्र सर्वोच्चतावादी सिद्धांत नहीं है. धार्मिक वर्चस्व, जातिवादी वर्चस्व, भाषी वर्चस्व आदि भी हैं. भारत में सदियों से जातियों और उपजातियों के बीच वर्चस्व की लड़ाई चलती रही है. आधुनिक काल में बसवेश्वर, ज्योतिबा फुले, नारायण गुरु, ईवीआर पेरियार रामास्वामी, बाबा साहेब अंबहेडकर और अन्य लोगों ने जाति के शोषण के खिलाफ अभियान चलाया. फिर भी जाति का संकट भारत को जकड़े हुए है.

चिदंबरम लिखते हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार के आने तक भारतीय राज्य कुल मिलाकर धर्मनिरपेक्ष बना रहा. संविधान में अल्पसंख्यकों और उनके अधिकारी को बहुसंख्यक हिंदुओं के संभावित प्रभुत्व या बहिष्कार से संरक्षित किया गया है. अधिकतर हिंदुओं ने धार्मिक विविधता का सम्मान किया है. कर्नाटक में हाल ही में संपन्न चुनावों में धर्म आधारित राजनीति में तेजी से गिरावट देखी गयी. खुद प्रधानमंत्री ने अपने चुनावी भाषणों को ‘जय बजरंगबली’ के नारे के साथ शुरू और समाप्त किया. लापरवाह चुनाव आयोग ने खामोशी अख्तियार कर ली. बीजेपी के नेताओं ने खुले तौर पर कहा, “हमें मुसलमानों के वोट नहीं चाहिए”.

एक केंद्रीय मंत्री ने कहा

सहिष्णु मुसलमानों को अंगुलियों पर गिना जा सकता है.लेखक का दावा है कि बीजेपी नेतृत्व ने एक बार भी मुसलमानों की भीड़ हिंसा, ईसाई चर्चोंम तोड़फोड़, युवा जोड़ों को धमकाने या निगरानी समूहों द्वारा की गयी हिंसा की निंदा नहीं की है.

राज्यपाल-कलेक्टर पदों पर पुनर्विचार का समय

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने याद दिलाया कि लोकतंत्र में प्रशासनिक फैसले चुने हुए प्रतिनिधियों को लेना चाहिए, अफसरों को नहीं. महाराष्ट्र में राज्यपाल ने सीमाएं लांघकर उद्धव ठाकरे सरकार गिराने में शिवसेना के बागी विधायकों की मदद की थी. ये फैसले अंग्रीजी राज की याद दिलाते हैं. राज्यपाल और कलेक्टर के पद ब्रिटेन में भी नहीं हैं. गवर्नर के बंगले मुख्यमंत्री से बड़े होते हैं और कलेक्टर केंद्रीय कोष का जिले में संरक्षक होता है जिसके इशारे के बिना सड़क बनाने तक की इजाजत नहीं होती. ऐसे पदों को खत्म करने पर विचार का समय आ गया है.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि ऐसा नहीं है कि इस देश में कभी ऐसे राज्यपाल नहीं रहे जिन्होंन देश की भलाई के लिए काम किया. लेखिका ब्रज कुमार नेहरू की याद दिलाते हैं जिन्होंने तब इस्तीफा दे दिया था जब जम्मू-कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला की सरकार एक साल के भीतर गिरायी जा रही थी.

लेखिका का मानना है कि जम्मू-कश्मीर में वर्तमान हालात के पीछे वजह वही फैसला रहा है. जब कोई विधायक पार्टी छोड़ता है और दूसरी पार्टी में जाता है तो विचारधारा इसकी वजह नहीं होती. मंत्री बनने का सपना या पैसा कमाने की चाहत ही कारण होता है. हर बार जनता के साथ धोखा होता है और लोकतंत्र कमजोर होता चला जाता है.

आईना देखे दुनिया

बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन लिखते हैं कि भारत में प्रेस स्वतंत्रता, मानवाधिकार, भ्रष्टाचार, अल्पसंख्यकों के साथ व्यवहार आदि को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो टीका-टिप्पणी हो रही है उस पर सरकार की नाराजगी भरी प्रतिक्रिया बताती है कि वह इनमें से अधिकांश मुद्दों पर बिगड़ते हालात को स्वीकार ही नहीं करना चाहती है. कोई भी स्वतंत्र पर्यवेक्षक देख सकता है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में मीडिया की स्वतंत्रता प्रभावित हुई है. सार्वजनिक रूप से नफरत फैलाने वाले भाषण, सोशल मीडिया नफरती ट्रोल सेना से अटे पड़े हैं. भारतीयों के लिए यह सब कोई खबर नहीं है जिन्हें हकीकत को जानने के लिए इंटरनेशनल रेटिंग्स की जरूरत नहीं है.

नाइनन लिखते हैं कि वैश्विक रैंकिंग में भारत के स्थान के बारे में सरकार और उसके हिमायतियों की बातें कई बार सही भी होती हैं क्योंकि भारत के प्रदर्शन को उसके वास्तविक प्रदर्शन से भी काफी कराब दिखाया जाता है.

जब रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स कहती है कि भारत में प्रेस स्वतंत्रता तालिबान शासित अफगानिस्तान से भी खराब है तो ऐसे में भारत की विश्वसनीयता को नुकसान नहीं पहुंचता है बल्कि उस संस्था की रैंकिंग पर भी सवाल उठता है. सवाल यह है कि क्या 2008 का वित्तीय संकट किसी भी तरह से अमेरिका की व्यवस्थागत नाकामी से अलग था? क्या वह बड़े बैंकों, बीमा कंपनियों, नियामकों और कानून बनाने वालों की विफलता नहीं थी?

ब्रिटिश राजनीति में बोले गये जूठ किस प्रकार ब्रिटेन को आत्मघाती ब्रेक्जिट तक ले गये, किसी से छिपा नहीं है. कैसे लंदन अंतर बैंक मुद्रा बाजार की गड़बड़ी, क्रेडिट सुइस, वायरकार्ड, एफटीएक्स, डॉयचे बैंक और फॉक्सवैगन जैसा ही एक स्कैंडल थी. अदानी पर हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट सामने आने के बाद किन बैंकों ने अपने जोखिम के बचाव की जल्दबाजी दिखाई? फिर भी कहा जाता है कि उभरते भारत की व्यवस्था कमजोर है.

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