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(खालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारत सरकार की भूमिका के कनाडा के आरोपों के बाद दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ गया हैं. ऐसे में इस आर्टिकल को क्विंट हिंदी के आर्काइव से दोबारा पोस्ट किया गया है. यह आर्टिकल मूल रूप से 14 जुलाई 2023 को प्रकाशित हुआ था.)
खालिस्तान समर्थक कट्टरपंथी और वारिस पंजाब दे (Waris Punjab De) के प्रमुख अमृतपाल सिंह (Amritpal Singh) की सुरक्षा बलों द्वारा गिरफ्तारी के कुछ महीनों के ही अंदर भारत से बाहर खालिस्तानी आतंकवादियों की ‘संयोगवश मौतों’ की एक सीरीज राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों में रुचि रखने वाले किसी भी शख्स के लिए काफी दिलचस्प घटना है.
हाल ही में खालिस्तानी चरमपंथी और सिख फॉर जस्टिस (SFJ) के संस्थापक गुरपतवंत सिंह पन्नू (Gurpatwant Singh Pannu) की कार दुर्घटना में मौत की खबर इंटरनेट पर छाई हुई थी. लेकिन, उसने एक वीडियो संदेश जारी कर अपनी मौत की अफवाहों को खारिज किया और भारतीय राजनयिकों को जान से मारने की धमकी दी.
हरदीप सिंह निज्जर भारत की तरफ से घोषित मोस्ट वांटेड आतंकवादियों (उस पर NIA द्वारा 10 लाख रुपये का इनाम घोषित किया गया था) में से एक था. कट्टरपंथी समूह खालिस्तान टाइगर फोर्स (Khalistan Tiger Force) के सक्रिय सदस्य निज्जर की 19 जून को कनाडा के सरे में गुरु नानक गुरुद्वारा साहिब के परिसर में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी.
निज्जर प्रतिबंधित संगठन SFJ से भी जुड़ा था, जिसने ब्रैम्पटन में खालिस्तान पर जनमत संग्रह कराया था.
बता दें कि खांडा ब्रिटेन के भारतीय उच्चायोग से राष्ट्रध्वज को हटाने के लिए जिम्मेदार था, जिसके बाद भारत और ब्रिटेन के बीच राजनयिक विवाद शुरू हो गया था.
विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कनाडा सरकार से साफ शब्दों में खालिस्तानी कट्टरपंथियों के खिलाफ कार्रवाई करने का अनुरोध किया है. भारत ने कनाडा पर खालिस्तानी कट्टरपंथियों के प्रति “नरम” रुख रखने और सिख तुष्टिकरण की राजनीति में शामिल रहने का आरोप लगाया, क्योंकि कनाडा में सिखों की बड़ी आबादी है.
कनाडा की विदेश मंत्री मेलानी जोली ने कहा है कि...
इन मौतों के बारे में जानने वाला जरूरी सवाल यह है कि इन मौतों के पीछे कौन हो सकता है? क्या इन सभी मौतों में कोई एकरूपता है?
अपनी हत्या से कुछ दिनों पहले ही निज्जर ने एक इंटरव्यू में अपनी हत्या की ओर इशारा किया था. सरे के रेडियो ब्रॉडकास्टर और पत्रकार गुरप्रीत सिंह को दिए इंटरव्यू में उसने दावा किया था कि उसका नाम उनके दुश्मन की “हिट लिस्ट” में है. (गुरप्रीत का ट्विटर अकाउंट भारत में बंद कर दिया गया है.) हालांकि, उसने अपने दुश्मन का नाम नहीं लिया.
उसने हत्याओं के पैटर्न की ओर इशारा किया, “आप देखें कि बस एक महीना हुआ है और हत्याओं को देखें. हमें (सिखों को) सतर्क रहने की जरूरत है. उसने इंटरव्यू में कहा था, ‘'मैं पहले से ही दुश्मन के निशाने पर हूं.’'
गुरपतवंत पन्नू ने साफ तौर पर कहा था कि वह “हरदीप सिंह निज्जर की हत्या का बदला लेगा” और “उसकी मौत के लिए भारत जिम्मेदार है.”
भारतीय एजेंसियों पर आरोप लगाने वाले दक्षिणपंथी सोशल मीडिया यूजर की ओर इशारा करके भी अपने आरोप को सही ठहरा रहे हैं, जो कथित तौर पर खालिस्तानी चरमपंथियों की हत्याओं का जश्न मना रहे हैं.
दिलचस्प बात यह है कि अगर कोई इस तर्क से सहमत होता है, तो साजिश के सिद्धांतों के इन समर्थकों से भी पूछा जाना चाहिए कि पाकिस्तान से चलने वाले कथित सोशल मीडिया एकाउंटेंट्स के बारे में क्या कहेंगे, जो खालिस्तान से जुड़ी हर सामग्री खासतौर से भारतीय राजनयिकों को धमकियों को आगे बढ़ाते हैं.
क्या इसका कोई इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) कनेक्शन है? थोड़ा जोर पकड़ते खालिस्तान आंदोलन में पाकिस्तान की संभावित रुचि क्या हो सकती है?
हमेशा से पाकिस्तान की रुचि भारत के लिए मुश्किलें पैदा करने में रही है. हालांकि, कश्मीर उनका पसंदीदा निशाना रहा है, लेकिन खालिस्तान मुद्दे को फाइनेंस करने में पाकिस्तान की रुचि साफ नहीं है.
आज की हकीकत यह है कि चीन और पाकिस्तान दोनों के खिलाफ भारत की रक्षा रणनीति में पंजाब एक जरूरी राज्य है. और पंजाब विदेशी दखलअंदाजी, खासतौर से पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय सेना में जांबाज जवानों का योगदान देना जारी रखे हुए है.
मेरे कहने का मतलब यह है: तथ्यों के अभाव में कई खुराफाती साजिशों की कहानियां सामने आ सकती हैं. लेकिन हां, अगर संदिग्ध हत्याओं के इन मामलों को जल्द नहीं सुलझाया गया, तो कट्टरपंथी संगठन अपने अलगाववादी आंदोलन के लिए समर्थन जुटाने में इसका इस्तेमाल करेंगे.
ध्यान देने वाली बात यह है कि निज्जर की मौत के बाद उनके कई सामाजिक काम सामने आए हैं. ऐसा कहा जाता है कि उसने सभी अंतरराष्ट्रीय छात्रों के लिए उनकी पहचान की परवाह किए बिना लंगर सेवा (लोगों को खिलाने का धार्मिक कार्य) शुरू किया था और कनाडा में कांपलूंस में मारे गए स्थानीय बच्चों और न्यूजीलैंड में 2019 में क्राइस्टचर्च बम धमाकों में मारे गए मुसलमानों के लिए विशेष प्रार्थनाएं आयोजित की थीं. कुल मिलाकर विदेशों में बसे पंजाबी प्रवासियों के बीच निज्जर के बारे में यह सोच है कि वह एक सभ्य इंसान था और उसकी मौत की जल्द से जल्द गहराई से जांच करने की जरूरत है.
हाल के कुछ सालों में खालिस्तान की मांग भारत के सिखों के बजाय विदेशों में रहने वाले सिखों की ओर से ज्यादा उठाई गई है. दिलचस्प बात यह है कि खालिस्तान सिखों की जमीन होने के अलावा, सारी बातें अंदाजे से चल रही हैं.
यहां तक कि SFJ जिसने पंजाब की संप्रभुता को लेकर जनमत संग्रह कराया था, खालिस्तान के स्वरूप के बारे में कोई जानकारी नहीं देता है, बल्कि यह आत्मनिर्णय के अधिकार और भारतीय संविधान द्वारा सिखों को अलग धार्मिक पहचान नहीं देने के मुद्दे को लेकर चलता है.
भारत में खालिस्तान को लेकर हो-हल्ला आमतौर पर समाज के प्रति सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों से जुड़ा होता है. निश्चित रूप से कुछ राजनीतिक ताकतें सिख-हिंदू विभाजन की कोशिश कर रही हैं, यह किसानों के विरोध प्रदर्शन या अमृतपाल के मामले में बहुत साफ दिखा है.
विभाजनकारी एजेंडा कभी भी समस्या की जड़ को समझने की कोशिश नहीं करता है बल्कि बहुसंख्यक समुदाय के मन में सिर्फ खालिस्तान या भारत की संप्रभुता को खतरे का डर पैदा करता है.
दिलचस्प बात यह है कि आज तक, हमारे पास इस बात का कोई हिसाब नहीं है कि कितने प्रतिशत सिख खालिस्तान के समर्थक हैं, फिर भी विभाजनकारी एजेंडा जारी है.
इसमें से बहुत सी बातें अधकचरी जानकारियों से भी आती है जो ऐसा लगता है कि जरनैल सिंह भिंडरावाले और खालिस्तान के बीच के संबंध से पैदा होती हैं.
भिंडरावाले ने अगर खालिस्तान की मांग की थी तो इसका कोई रेकॉर्ड नहीं है. उन्होंने इंदिरा गांधी से इतना जरूर कहा था कि अगर वह देना चाहें तो इस पर कभी एतराज नहीं होगा. और, दूसरा बयान जो उनके हवाले से कहा जा सकता है वह है: अगर भारतीय सेना स्वर्ण मंदिर पर हमला करती है, तो खालिस्तान की नींव रखी जाएगी.
इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि 1980 का दशक पंजाब में हिंसा, मानवाधिकारों के हनन, यातना और क्रूर हत्याओं से भरा था. इसलिए, खालिस्तान मुद्दे के बारे में जानने की कोशिश करने वाले किसी भी गैर-सिख या गैर-पंजाबी के लिए असुविधाजनक सच्चाइयों और कहानियों को सब्र से सुनना जरूरी है.
इसी तरह सिखों की नई पीढ़ी के लिए यह समझना जरूरी है कि उनका जुनून कट्टरपंथियों के फैलाए पूर्वाग्रहों से प्रेरित होने के बजाय रचनात्मक बातचीत से प्रेरित होना चाहिए.
पोस्ट-ट्रुथ (सच के बजाय भावनाओं और सोच पर चलना) के दौर में यह स्वीकार करना जरूरी है कि दिल्ली शेष भारत के लिए जो सोचती है, हमेशा उसकी अलग-अलग व्याख्याएं की जाएंगी.
(रोहिन कुमार लेखक और स्वतंत्र पत्रकार हैं, जो मानवीय संकटों के बारे में लिखते रहते हैं. यह एक ओपिनियन पीस से और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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