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अमृतपाल सिंह और पंजाब की राजनीति?AAP को 80 के खतरनाक दौर के दोहराव से बचना होगा

Amritpal Singh की तुलना 1984 के ऑपरेशन ब्लूस्टार में मारे गए जरनैल सिंह भिंडरावाले से की जा रही है.

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खालिस्तानी अलगाववादियों का नया आइकन  अमृतपाल सिंह (Amritpal Singh) कहां है? इस पर रहस्य बना हुआ है. 'वारिस पंजाब दे' के वकीलों का दावा है कि उसे 18 मार्च को जालंधर के शाहकोट में हिरासत में लिया गया है और उन्होंने पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में हेबियस कॉपस याचिका दायर की है. हालांकि न्यूज एजेंसियों ने खबर दी है कि उसी दिन अमृतपाल सिंह को हिरासत में लिया गया है, लेकिन पुलिस ने इन खबरों का खंडन किया है.

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पुलिस ने कहा है कि वह अब भी अमृतपाल की तलाश कर रही है. ऐसे कई वीडियो पब्लिक डोमेन में हैं, जिनसे इस बात की पुष्टि होती है कि अमृतपाल तरह-तरह के साधनों का इस्तेमाल करके भाग गया है. कुछ गवाहों ने यह भी दावा किया है कि उन्होंने उसे भागते हुए देखा और/या थोड़ी देर के लिए उसे पनाह दी. हालांकि स्थानीय लोग यही कह रहे हैं कि उसे हिरासत में लिया गया है और एक विशेष विमान से असम ले जाया गया है, जहां उसके साथियों को गिरफ्तार करके पेश किया गया है.

यह कहना काफी होगा कि राष्ट्रीय सुरक्षा एक्ट (एनएसए) के तहत 'हिरासत में लिए गए' व्यक्ति को अदालत में पेश करने की जरूरत नहीं है. इतना ही कहा जा सकता है कि इस पूरे प्रकरण के जरिए जो अवधारणा तैयार की जा रही है, वह पंजाब के लिए अच्छा संकेत नहीं है. इससे अमृतपाल ऐसे हीरो के रूप में तब्दील हो गया है, जिसे कुछ महीने पहले कोई जानता तक नहीं था.

  • न्यूज एजेंसियों ने अमृतपाल के हिरासत में होने का दावा किया है, जबकि पंजाब पुलिस का कहना है कि वह उसकी तलाश में है.

  • अजनाला और उसके बाद की घटनाएं अस्सी के दशक का दोहराव लगती हैं.

  • किसानों के आंदोलन के साथ पब्लिक डोमेन में यह बात चल रही है कि खालिस्तानी

    आंदोलन ने फिर से जमीन पकड़नी शुरू कर दी है.

  • करीब तीस साल पहले ही पंजाबियों ने हिंसा और तबाही का दुष्चक्र झेला था. इसीलिए

    पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन को बड़े पैमाने पर समर्थन मिलने की संभावना नहीं है.

  • पंजाब की नई सरकार को खुफिया एजेंसियों और केंद्र सरकार से भरपूर सहयोग की दरकार है.

खुफिया एजेंसियों की नाकामी

पिछले महीने अजनाला विवाद के तुरंत बाद मशहूर पत्रकार हरतोष सिंह बल ने ट्वीट किया थ- ‘मिसेज इंदिरा गांधी और जरनैल सिंह भिंडरावाले 1980 के दशक की शुरुआत में ऐसी ही धुन पर नाचे थे.’ अजनाला की घटनाओं और उसके कुछ दिन बाद के हादसों से उस दर्द भरे दौर की यादें ताजा हो गई. जैसे वही घटनाक्रम दोहराया जा रहा हो. सरकार को इसे रोकने के लिए तत्काल कदम उठाने चाहिए.

अमृतपाल ने अजनाला में अपने सहयोगियों की रिहाई की मांग के साथ जो जुलूस निकाला था, उस पर बल प्रयोग न करना, एक ऐसा फैसला था, जिसका मकसद पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब को नुकसान से बचाना था. इस फैसले के पक्ष या विपक्ष पर बहस हो सकती है, हालांकि अमृतपाल के साथी की रिहाई को प्रशासन की कमजोरी के तौर पर देखा गया है और इस कदम ने अलगाववादियों का हौसला बढ़ाया है.

अमृतपाल एक खालिस्तानी अलगाववादी है जिसे आईएसआई खड़ा कर रही है, बेशक यह आशंका सच हो सकती है, लेकिन 23 फरवरी को अजनाला की घटना के पहले तक भारतीय खुफिया एजेंसियां इस बात का पता कैसे नहीं लगा पाईं? 'वारिस पंजाब दे' को जिस दीप सिद्धू ने प्रेशर ग्रुप के तौर पर गठित किया था, उसकी रहस्यमय मौत के बाद अचानक अमृतपाल ने कैसे अचानक सामने आकर संगठन की कमान संभाल ली. अगर हमारी खुफिया एजेंसियां, अमृतपाल के खालिस्तानी झुकाव से अनजान थीं, तो यह उनकी नाकाबलियत की ही मिसाल है. क्योंकि कथित तौर पर अमृतपाल ने गूगल फॉर्म में अपने चीफ होने की खबर दुनिया भर के सिखों तक पहुंचाई थी, ताकि वे इस संगठन के सदस्य बन सकें.

यह कैसे मुमकिन है कि राजनेताओं, एनजीओ, थिंक टैंक और दूसरे कई संगठनों पर नियमित रूप से छापे मारने वाले अधिकारियों को यह पता ही नहीं चला कि 'वारिस पंजाब दे' और अमृतपाल को कौन फंडिंग कर रहा है?

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किसानों के आंदोलन के साथ पब्लिक डोमेन में यह बात चल रही है कि खालिस्तानी आंदोलन ने फिर से जमीन पकड़नी शुरू कर दी है. आरोप यह था कि विदेशों में बैठे सिख अलगाववादी इस आंदोलन की फंडिंग कर रहे थे, इस तथ्य के बावजूद कि इस आंदोलन में देश के विभिन्न हिस्सों के किसान शामिल थे.

किसानों के मार्च के दौरान लाल किले पर जो वाकया हुआ, जिसमें दीप सिद्धू सुर्खियों में आया था, को भी खालिस्तानियों की कारस्तानी कहा गया. यह नेरेटिव 2022 के विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान भी बदस्तूर रहा.

पंजाब सरकार मुश्किल में

चुनावों और उसके बाद की कुछ घटनाओं को अलगाववादियों के ‘उग्रवादी कारनामे’ कहा गया. ईमानदारी से देखा जाए, तो पंजाब सरकार के बारे में यह कहा जा सकता है कि उसमें प्रशासनिक अनुभव की कमी है और वह कथित तौर पर दिल्ली में पार्टी प्रमुख के हुक्म के आगे बेबस है. शायद पंजाब सरकार भी प्रमुख राजनीतिक दलों से जरूरी समर्थन न मिलने की वजह से संकोच में हो.

सुनील जाखड़ जैसे बीजेपी के नए नेताओं ने यह बयान भी दिया है कि उन्हें कांग्रेस ने हिंदू होने की वजह से मुख्यमंत्री नहीं बनाया. इससे सिख समुदाय में हिंदू प्रभुत्व को लेकर आशंका बढ़ी है. इसलिए अगर सरकारें इस स्थिति को काबू में करने के लिए कदम नहीं उठातीं, और हिंदू राष्ट्रवाद को लेकर बयानबाजी को कम नही करतीं तो यह आंदोलन सांप्रदायिक रूप ले लेगा. ऐसा अस्सी के दशक में नहीं था, जब आंदोलन मुख्य रूप से अलगाववादी था.

करीब तीस साल पहले ही पंजाबियों ने हिंसा और तबाही का दुष्चक्र झेला था. पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन को बड़े पैमाने पर समर्थन मिलने की संभावना नहीं है, हालांकि मीडिया ने कुछ स्थानीय घटनाओं को आंदोलन से संबंधित बताया है. पंजाब का कोई भी प्रमुख नेता अमृतपाल या खालिस्तान के समर्थन में नहीं आया है. यहां तक ​​कि खुले तौर पर अलगाववादी सांसद सिमरनजीत सिंह मान ने भी अपने पत्ते नहीं खोले हैं.

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अस्सी के दशक में हिंसा का शिकार हुए बुजुर्ग भी अपने अजीज नौजवानों को अलगाववादियों में शामिल होने से जरूर रोकेंगे. हालांकि इसके लिए यह जरूरी है कि कुछ जमीनी सुधार किए जाएं. पंजाब में उद्योग और इस कारण रोजगार अवसरों की कमी है. पर्यावरण और फसल पैटर्न के बदलने के कारण किसानी में ज्यादा मुनाफा भी नहीं है, क्योंकि खेती के लिए पानी जरूरी है, और पानी की लगातार कमी हो रही है. इसके साथ-साथ बड़े पैमाने पर नशीली दवाओं का सेवन किया जा रहा है जोकि युवाओं को अलगाववादियों का आसान शिकार बनाती हैं. प्रशासन में भ्रष्टाचार फैला हुआ है, और पुलिस संगठन आतंकवाद के दौरान ज्यादतियां करने का आदी है. ऐसे हालात अमृतपाल जैसे लोगों को प्रॉपेगेंडा करने को उकसाते हैं.

सरकार को आईएसआई के हाथों में खेलने से बेहतर, पंजाब की समस्या की तरफ ध्यान देना चाहिए. पाकिस्तान के लिए यह फायदेमंद है कि वह भारत में आग सुलगाता रहे, जबकि उसके अंदरूनी हालात ऐसे नहीं कि वह भारत में अलगाववादियों की फंडिंग कर सके. पंजाब की नई सरकार को खुफिया एजेंसियों और केंद्र सरकार से भरपूर सहयोग की दरकार है. पंजाब में सरकार गिराने के लिए राजनीतिक दल तरह-तरह के टोटके आजमा रहे हैं. लेकिन उन्हें ऐसा करना बंद करना चाहिए और हालात को काबू में करने में वर्तमान सरकार की मदद करनी चाहिए. केंद्र और राज्य, दोनों सरकारों को इन घटनाओं को गंभीरता से लेना चाहिए और ऐसे हालात को और गंभीर होने से रोकने के लिए आपसी सहयोग करना चाहिए.

(संजीव कृष्ण सूद (रिटायर्ड) बीएसएफ के एडीशनल डायरेक्टर जनरल रहे हैं, और एसपीजी के साथ भी काम कर चुके थे. यह एक ओपिनियन पीस है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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