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(चेतावनी: अगर आपको सुसाइड के विचार आते हैं या आप किसी ऐसे को जानते हैं जिसे ऐसे ख्याल आते हैं , तो कृपया उनके पास पहुंचें और स्थानीय आपातकालीन सेवाओं, हेल्पलाइनों और मानसिक स्वास्थ्य NGO's के इन नंबरों पर कॉल करें)
कोटा में पढ़ रहे दो और छात्रों ने आत्महत्या (Kota Suicide) कर ली है और वो भी एक दिन के अंदर. पहले छात्र की उम्र महज 16 वर्ष है और वो महाराष्ट्र का रहने वाला है. वहीं दूसरा छात्र 18 वर्ष का है और वो बिहार का निवासी है. 27 अगस्त को दोनों छात्रों ने आत्महत्या की. इसी के साथ केवल 2023 में अब तक इस शहर में आत्महत्या से मरने वाले छात्रों की संख्या 23 हो गई है.
कुछ हफ्ते पहले, राजस्थान के 'कोचिंग हब' कोटा में एक अनोखा 'आत्महत्या-विरोधी' उपाय लागू किया गया था. इस उपाय के तहत पंखे में स्प्रिंग लगाने की बात की गयी. ऐसे में अगर कोई छात्र लटककर आत्महत्या करने की कोशिश करता है, तो स्प्रिंग फैलेगा और छात्र की मौत नहीं होगी.
कोचिंग हब 'कोटा' की स्थिति वास्तव में बेहद गंभीर है. लेकिन छात्रों में बड़े पैमाने पर हो रही आत्महत्या की घटना केवल कोटा तक ही सीमित नहीं है.
यहां सवाल यह उठता है कि क्या वास्तव में पंखे की मजबूती ही आत्महत्या का मुख्य कारण है?
कोटा माता-पिता के सपनों की फैक्ट्री के रूप में जाना जाता है. यहां मेडिकल और इंजीनियरिंग की तैयारी करने वाले स्टूडेंट्स भारी संख्या में कोचिंग करने आते हैं. उन स्टूडेंट्स पर अपने और माता-पिता के सपनों को पूरा करने की पूरी जिम्मेदारी होती है. इस दौरान छात्र अपनी इच्छाओं और क्षमता की परवाह किए बगैर अपना लक्ष्य पूरा करने की पूरी कोशिश करते हैं. और जब नतीजा सामने नहीं आता, तो वो आत्महत्या करना ही उचित समझते हैं. निश्चित तौर पर पंखा कहीं से भी आत्महत्या का मुख्य कारण नहीं है.
यह सच है कि नेशनल सोसाइटी ऑफ प्रोफेशनल सर्वेयर्स (NSPS) के साथ-साथ अन्य रिपोर्ट्स में भी आत्महत्या के तरीकों तक पहुंच को कम करने की सिफारिश की गई है.
दरअसल मेंटल हेल्थ को आजकल बायोसाइकोसोशल लेंस से देखा जा रहा है. जहां आत्महत्या की प्रवृत्ति बायोलॉजिकल, साइकलॉजिकल और सोशल फैक्टर से प्रभावित होती है. लेकिन जब हम इन मामलों का आकलन करते हैं, तो बस बायोलॉजिकल और साइकलॉजिकल फैक्टर पर ही ध्यान दिया जाता है. सोशल फैक्टर पर बात तक नहीं होती है.
कई संस्थानों के मामले में तो इन दोनों फैक्टर पर भी ध्यान नहीं दिया जाता.
यह सोचना गलत है कि विद्यार्थियों पर केवल सफल होने का दबाव होता है.
आत्महत्या की प्रवृत्ति अक्सर कई कारणों की वजह से यानी मल्टीफैक्टोरियल होती है. कोचिंग संस्थानों में छात्र कभी अपना तो कभी अपने परिवार का सपना पूरा करने आते हैं. जब वो अपने परिवार से दूर नए-नए बाहर आते हैं, तो बहुत कुछ ऐसा होता है, जिसके बारे में उन्होंने कभी नहीं सोचा होता है. पारिवारिक समस्या, बेरोजगारी, मानसिक बीमारियों से लेकर भेदभाव और दुर्व्यवहार तक. ये कई कारक होते हैं, जो मिलकर आत्महत्या की प्रवृत्ति में योगदान करते हैं.
नौकरी न मिलने, प्लेसमेंट न होने की संभावना हर संस्थान में ज्यादा होती है. लेकिन कोई भी संस्थान इसपर बात करना जरूरी नहीं समझता.
न्यूमेरिकल क्वेश्चन और हाई स्कोरिंग इक्वेशन के शॉर्टकट याद करते-करते स्टूडेंट्स का मेंटल हेल्थ बुरी तरह से खत्म हो जाता है.
आंकड़ों की बात करें, तो NCRB डेटा केवल उन्हीं नंबर्स की गिनती करता है, जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु होती है. जो आत्महत्या करने में सफल हो गए होते हैं. लेकिन उनका क्या, जो इस परिस्थिति से गुजरे तो सही लेकिन आत्महत्या करने में सफल नहीं हो पाएं.
एक ऐसा देश जहां एंग्जायटी जैसे मेंटल कंडीशन तक पर बात नहीं होती. इसे एक टैबू की तरह लिया जाता है और इससे पीड़ित लोगों को जज किया जाता है. वहां आत्महत्या के मुद्दे पर चर्चा करना बेहद मुश्किल है.
ऐसा नहीं है कि जो लोग मानसिक तौर पर कमजोर होते हैं, केवल वो ही आत्महत्या करने का प्रयास करते हैं. कभी-कभी हमारे ईर्द-गिर्द की परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि मजबूत से मजबूत हृदय वाला व्यक्ति भी इसका शिकार हो जाता है. व्यक्ति के चारों ओर ऐसी तनावपूर्ण स्थितियां होती हैं जो उसे इस ओर ले जाती हैं. उदाहरण के लिए जब एक छात्र किसी तरह के बदमाशी, यौन या शारीरिक शोषण, पढ़ाई में खराब प्रदर्शन से लेकर लिंग, धर्म या जाति के आधार पर शोषित होता है, तो वह ऐसा कर बैठता है.
स्कूल-कॉलेज, कोचिंग संस्थानों में आत्महत्या से संबंधित हिंसा को रोकने पर बात होनी चाहिए. हर शिक्षा संस्थान में भेदभाव पर चर्चा करनी चाहिए. टीचर्स व प्रोफेसर स्टूडेंट्स के आवश्यकता के अनुसार उनकी मदद करें, ये सुनिश्चित करना चाहिए.
इसके अलावा, सभी छात्रों के लिए संस्थानों में मानसिक स्वास्थ्य सहायता सहित स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिए. फिलहाल फोकस सिर्फ आत्महत्या से होने वाली मौतों को कम करने पर है.
हमें प्राथमिक स्तर पर इस स्थिति को रोकने के तरीकों पर विचार करने की जरूरत है. अगर हम स्टूडेंट्स के पर्सनल लेवल पर जाकर बात करें, तो सबसे पहले हमें उन्हें उस जगह से निकालना चाहिए, जहां वो किसी कारण से परेशानी का सामना कर रहे हैं. या फिर किसी तरह की हिंसा का शिकार हो रहे हैं. न कि उनके कमरे से पंखा निकाल लेना चाहिए कि वो सुसाइड न करे.
यहां तक कि परिवारों को भी छात्रों के जीवन में उनकी भूमिका पर विचार करने की जरूरत है. सबलोग डॉक्टर और इंजीनियर बन जाएं, यह जरूरी नहीं. कई लोग तो ऐसी डिग्री लेने के बाद अपना रास्ता बदल देते हैं.
भारत में युवाओं की आबादी बहुत अधिक है और 15-29 वर्ष आयु वर्ग में मृत्यु का प्रमुख कारण आत्महत्या है. 2022 में, आत्महत्या की संख्या में इस वृद्धि से निपटने के लिए स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा एक राष्ट्रीय रोकथाम रणनीति पेश की गई थी. हालांकि इस रणनीति की कुछ आलोचनाएं भी हुई.
लेकिन शैक्षणिक संस्थानों के लिए मौजूदा राष्ट्रीय रणनीति से सीखना और उसके अनुसार काम करना एक सकारात्मक शुरुआत होगी. इसके लिए वो निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं:
मानसिक स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच में सुधार: इसमें गुणवत्तापूर्ण मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना शामिल है.
स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारकों को संबोधित करना: इसमें नौकरी के अवसर प्रदान करना, वित्तीय सहायता, भेदभाव और हिंसा को रोकना व इन विषयों पर चर्चा करना और सामाजिक समावेशन को बढ़ावा देना शामिल है.
आत्महत्या की रोकथाम के बारे में जागरूकता बढ़ाना: इसमें लोगों को आत्महत्या के खतरनाक कारकों और सहायता कैसे प्राप्त करें, के बारे में शिक्षित करना शामिल है.
आत्महत्या जैसी मानसिकता से जूझ रहे लोगों की मदद करना: इसमें भावनात्मक सहायता, व्यावहारिक मदद और संसाधनों के लिए तंत्र बनाना शामिल है.
सभी शैक्षणिक संस्थानों को आत्महत्या से निपटने के लिए अपने तंत्र पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है.
(डॉ शिवांगी शंकर एक मेडिकल डॉक्टर और सार्वजनिक स्वास्थ्य शोधकर्ता हैं. यह एक राय है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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