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इकनॉमी को चलाने के लिए मजदूरों का हक मारना उल्टा पड़ सकता है

मई का महीना मजदूरों का महीना कहलाता है लेकिन इसी महीने में उनके लिए बुरी खबरें आ रही हैं.

माशा
नजरिया
Published:
क्या अर्थव्यवस्था को उबारने की जिम्मेदारी सिर्फ मजदूरों की है
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क्या अर्थव्यवस्था को उबारने की जिम्मेदारी सिर्फ मजदूरों की है
(प्रतीकात्मक तस्वीर: iStock)

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मई का महीना मजदूरों का महीना कहलाता है. उनके अधिकारों की गवाही देने वाला. लेकिन इसी महीने में इस बार उनके लिए बुरी खबरें आ रही हैं. लॉकडाउन के मद्देनजर कई राज्य सरकारों ने श्रम कानूनों में तब्दीलियां करनी शुरू कर दी हैं. गुजरात, राजस्थान जैसे राज्यों ने काम के घंटों को बढ़ाने का फैसला किया है. उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश ने कई कानूनों को रद्द कर दिया है. समर्थन जुटाया जा रहा है, कि कारोबार जगत को प्रोत्साहित करना है. इसके लिए श्रम कानूनों को लचीला बनाना जरूरी है. पर क्या अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का सारा दारोमदार मजदूरों पर ही है?

गुजरात में 12 घंटे का काम, पर ओवरटाइम नहीं

गुजरात सरकार इस सिलसिले में काफी आगे रही. उसने 7 अप्रैल को एक अधिसूचना के जरिए कारखाना अधिनियम 1948 में संशोधन किया. इसमें कहा गया कि 29 अप्रैल से लेकर 19 जुलाई तक गुजरात के मजदूरों से 12 घंटे रोजाना काम करवाया जा सकता है. यह भी कहा गया कि चार घंटे अतिरिक्त काम करने पर कोई ओवरटाइम नहीं देना होगा, बल्कि काम के नियमित घंटों की दर के हिसाब से मेहनताना चुकाया जाएगा. राज्य ने नए इंडस्ट्रियल इस्टैबलिशमेंट्स को न्यूनतम वेतन अधिनियम, औद्योगिक सुरक्षा नियम, और कर्मचारी मुआवजा अधिनियम से छूट भी दी है.

इसी तरह राजस्थान, पंजाब और हिमाचल प्रदेश ने भी 12 घंटे रोजाना काम से संबंधित अधिसूचनाएं जारी कीं, पर ओवरटाइम के साथ.

यूपी में तीन साल के लिए श्रम कानून निरस्त

दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश ने उद्योगों के लिए कई श्रम कानूनों को तीन साल के लिए निरस्त कर दिया है. इनमें भवन निर्माण और अन्य निर्माण श्रमिक अधिनियम, कर्मचारी मुआवजा अधिनियम, बंधुआ मजदूरी प्रणाली उन्मूलन अधिनियम शामिल हैं.

मध्य प्रदेश में 100 कर्मचारियों से अधिक के इस्टैबलिशमेंट्स अपनी जरूरत के हिसाब से कर्मचारियों को रख और हटा सकते हैं. 50 मजदूरों वाले कॉन्ट्रैक्टर्स को रजिस्ट्रेशन की जरूरत नहीं है. तीन महीने तक किसी फैक्ट्री का इंस्पेक्शन नहीं होगा. 50 मजदूरों से कम वाली फर्म्स का कोई इंस्पेक्शन नहीं होगा. काम के घंटों को भी 12 घंटे तक बढ़ाया गया है.

कोविड-19 से पहले भी कानून में बदलाव की कोशिश

श्रम कानूनों को लेकर लंबे समय से जद्दोजेहद चल रही है. यह कोविड-19 से पहले की स्थिति है. पिछले कई सालों से सरकार मौजूदा 44 कानूनों को रद्द कर, चार मूलभूत कानून लाने की कोशिश कर रही है. ये चार कानून या संहिताएं हैं जोकि वेतन, औद्योगिक संबंधों, सामाजिक सुरक्षा और व्यवसायगत सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थितियों को रेगुलेट करती हैं. सरकार का कहना है कि देश के जटिल और विविध कानूनों को एकीकृत करना जरूरी है ताकि उनका अनुपालन आसान हो. साथ ही व्यापार करना आसान हो यानी इनके जरिए ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस का लक्ष्य रखा गया है.

ट्रेड यूनियंस का क्या कहना है?

दूसरी तरफ ट्रेड यूनियंस इसे सरमायादारों का पक्ष लेने वाला कदम बताती हैं. जैसे न्यूनतम वेतन तय और संशोधित करने का जिम्मा समितियो को सौंपा गया है. इसके अलावा हर साल न्यूनतम वेतन की समीक्षा नहीं होगी, जैसे कि ट्रेड यूनियन्स कई सालों से मांग कर रही हैं. जब हम दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं से तुलना करते हैं तो भारत में न्यूनतम वेतन दुनिया में सबसे कम है. कन्वर्जेक्स ग्रुप जैसी ग्लोबल एजेंसी का कहना है कि भारत में औसत 0.28 डॉलर प्रति घंटे का न्यूनतम वेतन दिया जाता है.

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ट्रेड यूनियंस कई दूसरे मुद्दे भी उठाती रही हैं. ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियन्स का कहना है कि अगर मालिक मौजूदा कानूनों, जैसे वेतन भुगतान अधिनियम, न्यूनतम वेतन अधिनियम और समान पारिश्रमिक अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करता है तो उसे जुर्माना और सजा भुगतनी पड़ेगी. पर प्रस्तावित संहिता पहली बार कानून का उल्लंघन करने पर सजा देने की बात नहीं करती. इसी तरह व्यवसायगत सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थितियों से संबंधित संहिता उन इस्टैबलिशमेंट्स पर लागू नहीं होती, जहां दस या उससे कम लोग काम करते हैं.

नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पानगढ़िया कह चुके हैं कि लगभग तीन-चौथाई रोजगार 10 से कम श्रमिकों वाले उद्यमों में है. इससे छोटी दुकानों या इस्टैबलिशमेंट्स में काम करने वाले लोग इस संहिता से बाहर हो जाएंगे.

हमारे यहां मजदूरों को सशक्त नहीं बनाया जाता

इसमें कोई शक नहीं कि श्रम और पूंजी के बीच शक्ति असंतुलन पहले से कायम है. उनमें संतुलन बनाए रखने के लिए कानून की जरूरत होती है. इसके दो मॉडल कहे जाते हैं. पहले मॉडल में मजदूरों को सशक्त बनाया जाता है. ताकि वह अपने नियोक्ता यानी इंप्लॉयर के स्तर पर पहुंचकर उससे सौदेबाजी कर सकें. इसके लिए ट्रेड यूनियन्स को मजबूत बनाया जाता है. उद्योग चलाने में वे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. इसे औद्योगिक लोकतांत्रिक मॉडल भी कहा जाता है.

जर्मनी जैसे देश ने इस मॉडल को अपनाया है. इसे वहां कोडिटर्मिनेशन की अवधारणा कहा जाता है. वहां कंपनियों के मैनेजमेंट में मजदूरों के प्रतिनिधि शामिल होते हैं. सुपरवाइजरी बोर्ड्स में उनकी संख्या लगभग आधी होती है. जर्मनी के एक दूसरे कानून के अंतर्गत लोकल शॉप फ्लोर लेवल पर मजदूरों को वर्क काउंसिल बनाने का अधिकार है.

शक्ति संतुलन के दूसरे मॉडल के तहत मजदूरों को कानूनी संरक्षण प्रदान किया जाता है, जैसे भारत में. यहां राज्य श्रम और पूंजी के बीच आर्बिट्रेटर का काम करता है. तरह तरह के श्रम कानून इसलिए बनाए जाते हैं ताकि मजदूरों के अधिकारों का संरक्षण हो. संरक्षण सिर्फ कमजोर तबके का किया जाता है. यानी ऐसी स्थिति में हम मानकर चलते हैं कि श्रमिक वर्ग कमजोर है. वह राज्य के रहमो करम पर जीवित रहता है. ऐसे में कानूनों को कमजोर या उन्हें निरस्त करके, श्रमिकों को संरचनात्मक तरीके से कमजोर बनाया जा सकता है.

अर्थव्यवस्था में गति और वृद्धि का दारोमदार क्या सिर्फ मजदूरों पर है?

यह तर्क बेतुका नहीं कि अर्थव्यवस्था में नए सिरे से प्राण फूंकने की जरूरत है. कोविड-19 के प्रकोप ने अर्थ जगत का भी दम निकाल दिया है. आरबीआई ने वित्तीय तनाव को कम करने के लिए अतिरिक्त उपायों की घोषणा की है. बाजार में लिक्विडिटी बढ़ाई गई है. लोन चुकाने के लिए उधारकर्ताओं को राहत दी गई है और रेपो रेट में कटौती की गई है. टैक्सेशन और अन्य कानून (विभिन्न प्रावधानों में राहत) अध्यादेश, 2020 जारी किया गया है.

अध्यादेश विशिष्ट कानूनों के संबंध में कुछ राहत प्रदान करता है जैसे समय सीमा को बढ़ाना और सजा से छूट. ऐसे कई उपाय हो सकते हैं जिससे निजी क्षेत्र को सहारा दिया जा सके. जैसे एमएसएमई को कोलेट्रल फ्री लोन्स दिलाए जाएं. या सरकार खुद उनके लिए कोलेट्रल उपलब्ध कराए.

दुनियाभर के देशों के उदाहरण देखिए

दुनिया भर के देशों में सरकारें खुद मदद कर रही हैं.

  • कनाडा में 30 प्रतिशत राजस्व घाटे का सामना करने वाली फर्म्स को 75% वेज सब्सिडी दी जा रही है.
  • फ्रांस में मिनिमम वेज पर 100% सब्सिडी दी जा रही है.
  • जर्मनी में कंपनियों ने काम के घंटों को कम करने पर सहमति जताई है. बेरोजगारी लाभ को बढ़ाया गया है.
  • जापान में अगर किसी कंपनी की बिजनेस इनकम 20% या उससे कम हो गई है तो उससे एक साल तक कोई टैक्स नहीं वसूला जाएगा.
  • अमेरिका में कंपनियों को 50 से 100% वेज सब्सिडी दी जाएगी, अगर काम के घंटों को कम किया जाता है, और किसी को नौकरी से नहीं निकाला जाता.
  • रूस में एसएमई को वेतन चुकाने के लिए 6 महीने के लिए बिना ब्याज के लोन मिल सकता है, अगर वह लोन की अवधि में किसी को नौकरी से न निकाले.

अर्थव्यवस्था में श्रमिक एक एसेट की तरह होता है. अगर वह निम्न वेतन के लिए अधिक से अधिक घंटों तक काम करेगा, तो अर्थव्यवस्था की क्रय शक्ति क्षीण होगी. क्रय शक्ति किसी भी अर्थव्यवस्था की गति को प्रभावित करती है. पिछले कई सालों से अर्थव्यवस्था जटिल परिस्थितियों से गुजर रही है. कुल मांग कम रही है. लोगों की जेबों में पैसा नहीं है, इसलिए बाजार भी मंदा है. कोविड-19 आगे भी मुश्किल वक्त दिखाने वाला है. इसीलिए

जरूरत इस बात की है कि विपदा का सामना करने के लिए साझा सक्रियता दिखाई जाए. कार्ल मार्क्स ने कहा था- एक संपन्न देश वह है जहां काम के घंटे 12 नहीं, छह हों. हमें देखना है कि हम किस संपन्नता की ओर जाना चाहते हैं.

(ऊपर लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है)

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