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पांच साल पहले जब सनी लियोनी ने हिंदी फिल्मों में काम करना शुरू किया था, तब हिंदी टेलीविजन के चेहरे उनके लिए नए थे. कपिल शर्मा के कॉमेडी शो में जब वह 'रागिनी एमएमएस' के प्रमोशन के लिए आईं तो यह समझ ही नहीं पाईं कि कपिल की दादी बने अली असगर सचमुच औरत नहीं हैं. सनी ने तब कहा था, इन्हें देखने भर से हंसी छूट जाती है.
बेशक, हिंदी कॉमेडी की यही त्रासदी है और कॉमन बात भी. आदमियों को औरतें बनाकर कुछ इस अंदाज में पेश करना कि उनकी मौजदूगी ही कॉमेडी क्रिएट कर दे. फिलहाल कपिल शर्मा और सुनील ग्रोवर दो अलग-अलग चैनलों पर दो अलग-अलग कॉमेडी शोज लेकर आए हैं. दोनों में ही आदमी, औरत बने हैं और दर्शक लोटपोट हो रहे हैं.
सुनील ग्रोवर के 'कानपुर वाले खुरानाज' में अली असगर के साथ जतिंदर सूरी भी औरत के गेटअप में हैं. एक पुरुष अभिनेता और है जिसका कद सामान्य से कुछ ज्यादा है. अली के कान चौड़े हैं, जतिंदर का कद छोटा है और तीसरा कुछ ज्यादा लंबा है. तीनों सुनील की सालियां बने हैं जिनकी शारीरिक संरचनाओं को ऐसे हाइलाइट किया गया है कि दर्शक उन्हें देखते ही मुस्कुरा पड़ते हैं. ऐसा ही कुछ ‘द कपिल शर्मा शो' में भी है.
कृष्णा अभिषेक इसमें ब्यूटी पार्लर चलाने वाली लड़की बने हैं जो शो के हर मेहमान पर डोरे डालती रहती है. कपिल मुस्कुराते हुए बीच-बीच में कहते हैं- 'तेरे जैसी लड़की...' जाहिर सी बात है, लड़के जब लड़कियों का रूप धरते हैं तो जनता हंसती ही है. नॉन हेट्रोनॉर्मेटिव अपीयरेंस वाले किरदार या तो हंसी का पात्र होते हैं, या नफरत की वजह. नॉन हेट्रोनॉर्मेटिव अपीयरेंस मतलब, जब आप हेट्रोसेक्सुअल न हों- विषमलिंगी न हों.
यह 2019 है. बीते साल दिसंबर में लोकसभा में ट्रांसजेंडर विधेयक संशोधनों के साथ पारित हुआ है. उससे पहले सितंबर में सर्वोच्च न्यायालय आईपीसी (1861) की धारा 377 के समलैंगिकता को अपराध मानने वाले प्रावधानों को खारिज कर चुका है. वह समलैंगिक रिश्तों को कानूनी तौर पर वैध बता चुका है.
समाज ने 157 साल लंबी छलांग लगाई है, लेकिन टेलीविजन अब भी सोया हुआ है. सामाजिक बदलावों की पतली सी परछाई भी इस पर दिखाई नहीं देती. ह्यमूर के लिए यह अब भी आइडेंटिटीज की तलाश कर रहा है. अच्छे और बुरे हास्य में यही फर्क होता है. बुरा हास्य सिर्फ हंसाता है, अच्छा हास्य रुचिकर भी होता है. लेकिन यह रुचिकर तभी होता है, जब किसी कमजोर को आधार न बनाए.
हास्य मजेदार तब होता है, जब पंच नीचे से ऊपर की तरफ हो, ऊपर से नीचे की ओर नहीं. जिसे अंग्रेजी में 'पंचिंग डाउन एंड पंचिंग अप' कहते हैं. 'पचिंग अप' बनाम 'पंचिंग डाउन' की बात करते समय हम यह देखने की कोशिश करते हैं कि हास्य की सांस्कृतिक ताकत में किसका पलड़ा भारी है. दरअसल, हास्य सिर्फ हास्य नहीं होता. यह हमारी साइकी का हिस्सा होता है.
किसी खास रूपाकार वाले व्यक्ति, फेमिनिन लुक वाले पुरुष, किसी जाति के खिलाफ हमारी टिप्पणियां, हमारी अवधारणा को वैध ठहराने का तरीका ही होती हैं. जब हम औरतों की खराब ड्राइविंग का मजाक बनाते हैं तो परिणाम यह होता है कि औरतें खुद मानकर चलती हैं कि ड्राइविंग उनके बस की बात नहीं. आंकड़े कहते हैं कि देश में सिर्फ 4 से 6 प्रतिशत औरतों को ही ड्राइविंग लाइसेंस मिले हुए हैं.
इसी साइकी ने तय किया है कि पुरुषों के लिए माचो दिखना बहुत जरूरी है. उन्हें स्त्रियोचित नहीं लगना चाहिए. यहां 'स्त्रियोचित'' शब्द में ही दिक्कत है. 'स्त्रियोचित' मतलब, जो स्त्रियों के लिए उचित है. बेशक, जो स्त्रियों के लिए उचित है, वह पुरुषों के लिए कैसे उचित हो सकता है.
2016 में संजय दत्त का एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें वह 'मैनलीनेस' की शेखी बघार रहे थे. कह रहे थे कि मर्दों की जिंदगी में एक बड़ी दुश्मन हैं फेमिनन चीजें- गुलाबी रंग, लंबे बाल, वैक्स की गई छाती, खाना पकाना, बच्चों की देखभाल करना. लाजिमी है कि ये सब करने वाले लड़के हंसाने के ही काम आएंगे. जैसे घर काम करने वाले आदमी को 'भाभीजी घर पर हैं' में 'नल्ला' कह दिया जाता है.
कपिल शर्मा और सुनील ग्रोवर जैसे एक्टर्स कॉमेडी की इसी परंपरा की उपज हैं. इस तरह की कॉमेडी में इंडस्ट्री ऐसे रूप-रंग को लांछित करती रहती है जो सिस जेंडर्ड और हेट्रोनॉर्मेटिव समाज के हाशिए पर खड़े हैं. जिनकी लैंगिक पहचान उनके जन्म के समय नियत किए गए लिंग से मेल नहीं खाती. तमाम अपीयरेंस- औरतें के कपड़ों में सजे-धजे आदमी, स्त्रैण पुरुष जिन्हें एफिमिनेट पुरुष कहा जाता है, औरतें जो ऐसे बर्ताव करती हैं जैसे बर्ताव की अपेक्षा आदमियों से की जाती है, वगैरह. इन सब पर हम हंसते हैं.
इसी मजाक के चलते इंडस्ट्री में एलजीबीटीक्यू प्लस लोगों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता. वेबसीरिज़ 'सेक्रेड गेम्स' बनाते समय अनुराग कश्यप जैसे मशहूर निर्देशक गायतोंडे की ट्रांसजेंडर पार्टनर कुक्कू के लिए कुबरा सैत को साइन करते हैं. उन्हें किसी ट्रांसजेंडर कलाकार को तलाशने की जरूरत महसूस नहीं होती. जब प्रतिनिधित्व मिलेगा, तभी हास्य लेखन की शैली बदलेगी- मंच पर किरदार बदलेंगे. तब तक कॉमेडी के नाम पर हम फूहड़ हंसी हंसते रहेंगे.
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Published: 13 Jan 2019,09:56 AM IST