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एम करुणानिधि को मरणोपरांत भारत रत्न सम्मान देने की मांग हो रही है. उनके निधन को लेकर तमिलनाडु ही नहीं, पूरे देश में चौतरफा शोक का माहौल है. यह शोक सिर्फ इसलिए नहीं है कि भारतीय राजनीति का एक सितारा डूब गया या एक क्षेत्रीय पार्टी का नेता, जो कई बार मुख्यमंत्री रहा हो, अब नहीं रहा.
राजनीति में ऐसी उपलब्धियां दुर्लभ नहीं हैं. पद पर रहने के मामले में कई नेताओं का राजनीतिक जीवन इतना या इससे भी शानदार होता है, लेकिन जनता उनकी स्मृति में आंसू नहीं बहाती. तमिलनाडु के राजनेता इस मायने में अलग हैं. यह बात हमने जयललिता के निधन के दौरान भी देखी है. लाखों लोग अपने नेता के न होने के शोक में दुखी होते हैं. सार्वजनिक तौर पर रोते हैं.
करुणानिधि का निधन ऐसे समय में हुआ है, जब उनकी पार्टी न तो राज्य में और न ही केंद्र में सत्ता में है. इसलिए उनके प्रति जताए जा रहे सम्मान और उन्हें लेकर व्यक्त किए जा रहे शोक का महत्व और भी बढ़ जाता है. वैसे भी 94 साल के आदमी के निधन पर शोक मनाना और लाखों लोगों का रोना कोई सामान्य बात नहीं है.
क्या ऐसा करुणानिधि की द्रविड़ राजनीति के कारण है? क्या करुणानिधि जाति के नेता हैं? यह सच नहीं है. करुणानिधि ने बेशक सामाजिक परिवर्तन के काम किए, लेकिन वे अपनी जाति के नेता कभी नहीं रहे. दरअसल उनका जन्म एक ऐसी संख्यालघु जाति में हुआ, जो किसी भी चुनावी क्षेत्र में नतीजों को प्रभावित करने की क्षमता नहीं रखती.
इसै वेल्लार जाति का परंपरागत काम मंदिरों के आगे वाद्ययंत्र बजाना होता था. इस जाति की आर्थिक हालत अच्छी नहीं है और राजनीति में इस जाति की कोई हैसियत नहीं है. अगर करुणानिधि सिर्फ अपनी जाति के नेता होते तो कुछ भी नहीं होते और शायद अपना एक चुनाव भी नहीं जीत पाते.
इस मायने में करुणानिधि लालू, मुलायम या मायावती से अलग हैं, क्योंकि उत्तर भारत के सामाजिक न्याय परिदृश्य के इन तीनों नेताओं के साथ उनकी जाति खड़ी है, जिनकी असरदार संख्या है. यह सुविधा एक हद तक नीतीश कुमार, सिद्धरामैया, केशव प्रसाद मौर्य या शिबू सोरेन को भी हासिल रही है, जिनकी अपनी बिरादरी की संख्या चुनावों के प्रभावित करने में एक हद तक सक्षम है.
खास बात यह है कि कम संख्या वाली जाति का होने को करुणानिधि ने अपनी ताकत में बदल दिया. संख्यालघु जाति से आने की वजह से करुणानिधि बहुत सारी वे चीजें देख और कर पाए, जो उन नेताओं के लिए संभव न हो पाया, जो बातें तो सामाजिक न्याय की करते हैं, लेकिन उनका ज्यादा ध्यान अपनी जाति और उससे जुड़े समीकरणों पर होता है. करुणानिधि के लिए ज्यादा समावेशी बनना आसान था.
करुणानिधि ने साबित किया कि सामाजिक न्याय और विकास साथ साथ चल सकते हैं.
1. करुणानिधि एक आधुनिक राजनेता थे. उनके सत्ता में प्रभावशाली रहने के दौरान तमिलनाडु सरकार ने हिंदू मैरिज एक्ट में संशोधन करके कर्मकांड रहित शादियों को वैध बना दिया. करुणानिधि के अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहित करने पर जोर दिया और इसके लिए नकद इनाम की शुरुआत की. विधवा विवाह के लिए भी नकद इनाम देने की योजना करुणानिधि ने बनाई.
2. करुणानिधि ने मुख्यमंत्री रहने के दौरान 1989 में पैतृक संपत्ति में बेटियों का हक सुनिश्चित करने का कानून बनाया. केंद्र सरकार को महिलाओं को यह अधिकार देने में 17 साल और लग गए. तमिलनाडु में बड़ी संख्या में रजिस्ट्रेशन दफ्तर खोलकर यह सुनिश्चित किया गया कि ये कानून सिर्फ कागज पर न रहे, बल्कि लागू हो.
3. करुणानिधि की शानदार योजना समतापुरम: करुणानिधि के जातीय हिंसा और कड़वाहट को खत्म करने के लिए यह योजना लागू की थी. इसके तहत सौ परिवारों के मोहल्ले बसाए गए. इसमें रहने वालों को घर सरकार ने दिए. शर्त यह थी कि इस तरह के गांव में 40% दलित परिवार होंगे और किसी भी परिवार का पड़ोसी समान जाति का नहीं होगा. हर किसी को एक कॉमन कब्रिस्तान और श्मशान का इस्तेमाल करना होगा. तमाम परिवारों के समारोह एक ही कम्युनिटी हॉल में होंगे. करुणानिधि की कल्पना थी कि पूरा तमिलनाडु की समतापुरम बन जाए.
4. स्वास्थ्य के क्षेत्र में अनूठी पहल: करुणानिधि सरकार ने हर गर्भवती महिला को 6,000 रुपए की आर्थिक सहायता देने की योजना शुरू की, जिसे बाद में कई राज्य सरकारों ने लागू किया. इसके अलावा प्रिवेंटिव हेल्थ चेकअप योजना भी काफी लोकप्रिय हुई.
5. करुणानिधि ने मुख्यमंत्री रहने के दौरान स्थानीय निकायों में 33% सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करने का कानून बनाया. इससे पंचायतों में एक साथ 40,000 महिला जनप्रतिनिधि चुने गए.
6. लोककल्याणकारी राज्य- तमिलनाडु का मुख्यमंत्री रहने के दौरान करुणानिधि ने हर परिवार के लिए हर महीने एक रुपए प्रति किलो की दर से चावल देने की योजना चलाई. इसके अलावा सस्ती दर पर दाल बेचने की योजना शुरू की गई. हर परिवार को एक गैस सिलेंडर और स्टोव तथा एक कलर टीवी देने जैसी योजना काफी लोकप्रिय हुई.
7. ट्रांसजेंडर के लिए कल्याण बोर्ड बनाने वाले तमिलनाडु देश का पहला राज्य है. इसने समाज के सबसे उपक्षित इन लोगों के लिए फैमिली कार्ड और जमीन का पट्टा देने की पहल की है.
ऐसी ही तमाम योजनाओं की वजह से तमिलनाडु आज देश के सबसे विकसित राज्यों में शामिल है. खासकर मानव विकास में तमिलनाडु की उपलब्धियां जबर्दस्त हैं. अगर तमिलनाडु की तुलना सामाजिक न्याय की राजनीति के लिए जाने गए दो उत्तर भारतीय राज्यों बिहार और उत्तर प्रदेश से करें, तो यह पता चलेगा कि तमिलनाडु ने मानव विकास के मामले में क्या हासिल किया है.
1. 2016 के नीति आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, बिहार में प्रति एक हजार बच्चों के जन्म पर 38 बच्चे मर जाते हैं. उत्तर प्रदेश में शिशु मृत्यु दर 43 है, वहीं तमिलनाडु इन दोनों राज्यों से काफी बेहतर स्थिति में है, जहां शिशु मृत्यु दर सिर्फ 17 है. यह आंकड़ा न सिर्फ यह बताता है कि तमिलनाडु में गर्भवती महिलाओं की अच्छी देखभाल होती है और उन्हें बेहतर पोषण मिलता है, बल्कि वहां के ज्यादातर शिशुओं को जन्म अस्पतालों में होता है और उन्हें बेहतर मेडिकल केयर सुविधा मिलती है.
2. प्रसव के दौरान माताओं की मृत्यु दर: 2014-15 के आंकड़ों के मुताबिक बिहार में प्रति एक लाख प्रसव पर 165 माताओं की मौत हो जाती है. उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 201 का है. वहीं तमिलनाडु में प्रति एक लाख प्रसव पर मरने वाली माताओं की संख्या 66 है. इससे समझा जा सकता है कि तमिलनाडु में गर्भवती महिलाओं को कितना बेहतर खयाल रखा जाता है. इसके पीछे कई सरकारी योजनाएं भी हैं.
3. साक्षरता दर: 2011 की जनगणना के मुताबिक तमिलनाडु में साक्षरता दर 80.33 फीसदी है. बिहार और उत्तर प्रदेश क्रमश: 63.82 फीसदी और 69.72 फीसदी के आंकड़े के साथ काफी पीछे हैं.
4. तमिलनाडु में महिला साक्षरता दर 73.86 फीसदी है, जबकि बिहार में महिला साक्षरता 53.33 और उत्तर प्रदेश में यह दर 59.26 फीसदी है.
5. तमिलनाडु देश का सबसे शहरीकृत राज्य है, जहां लगभग आधी आबादी गांवों से बाहर आ चुकी है. वहीं बिहार और उत्तर प्रदेश में शहरीकरण काफी कम हुआ है और 90 से लेकर 80 फीसदी आबादी गांवों में फंसी हुई है.
सवाल उठता है कि सामाजिक न्याय की राजनीति के लिए जाने जाने वाले दोनों उत्तर भारतीय राज्य वह क्यों नहीं हासिल कर पाए, जो तमिलनाडु ने हासिल कर लिया? यह एक ऐसा सवाल है, जो उत्तर भारत के राजनेताओं को खुद से पूछना चाहिए. जनता को तो अपने नेताओं से यह जरूर पूछना चाहिए कि आप करुणानिधि क्यों नहीं बन पाते. राज्य है, जहां लगभग आधी आबादी गांवों से बाहर आ चुकी है. वहीं बिहार और उत्तर प्रदेश में शहरीकरण काफी कम हुआ है और 90 से लेकर 80 फीसदी आबादी गांवों में फंसी हुई है.
(दिलीप मंडल सीनियर जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. आर्टिकल की कुछ सूचनाएं लेखक के अपने ब्लॉग पर छपी हैं.)
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