आज मुझे खुद से बड़ी कोफ्त हो रही है, वो नोटबुक मैंने संभालकर क्यों नहीं रखी. उस नोटबुक में एम करुणानिधि और पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह की एक मुलाकात का किस्सा दर्ज था और वो भी वीपी सिंह के हाथ से लिखा हुआ.
दो नेताओं की फुर्सत वाली मुलाकात. कोई गंभीर राजनीतिक बात नहीं, लेकिन काफी दिलचस्प झलक मिली कि नेता कितनी कड़ी मेहनत करते हैं, कैसी गपशप करते हैं. क्या है, जो उन्हें हमेशा ऊर्जावान रखता है.
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किस्सा काफी पुराना है, इसलिए दिन-तारीख वगैरह ठीक-ठीक याद नहीं. बात 1988 की है. जन मोर्चा बनाकर वीपी देशभर में घूम रहे थे. अरुण नेहरू, विद्याचारण शुक्ला, केपी उन्नीकृष्णन के साथ एक दौरा केरल का किया और चेन्नई लौटे.
वीपी सिंह दिल्ली वापसी के पहले करुणानिधि से मिलने पहुंचे. मैं इस यात्रा को कवर कर रहा था. चूंकि ये मुलाकात निजी थी, इसलिए दोनों नेताओं और उनके सहायकों की तरफ से इस बात पर कोई खास ध्यान नहीं गया कि मेरी मौजूदगी के बारे कोई फिक्र करे. मुरासोली मारन भी वहां मौजूद थे, गपशप का माहौल था.
बातचीत के दौरान वीपी ने केरल के सफर, रैलियों और थकान का जिक्र किया. मुझसे मेरी नोटबुक मांगी और हिसाब जोड़ा, एक हफ्ते में कितने किलोमीटर, कितनी रैलियां, भीड़ कैसी थी रिस्पॉन्स कैसा था और कितनी कम नींद.
जवाब में करुणानिधि ने अपनी यात्राओं के बारे में बताया. उस हफ्ते के पहले और बाद में उनका कितने किलोमीटर का सफर हुआ. वीपी ने वो भी जोड़ा. निष्कर्ष ये निकला कि करुणानिधि वीपी से ज्यादा घूमे, रैलियां भी ज्यादा हुईं और सोए भी कम.
फिर दोनों ने एक-दूसरे की उम्र पूछी. वीपी 58 के और करुणानिधि 65 के. वीपी ने फैसला सुनाया- सात साल का फर्क, लेकिन करुणानिधि ज्यादा एक्टिव हैं. वीपी ने ये भी बताया कि करुणानिधि की शानदार भाषण शैली के उन्होंने खूब किस्से सुने हैं.
उस वक्त के जनमोर्चा, माहौल और संभावनाओं पर भी चर्चा हुई. लेकिन उससे ज्यादा वक्त दोनों नेताओं ने साधारण बातों पर लगाया और साउथ इंडियन कॉफी का लुत्फ उठाया.
मेरी नोटबुक पर उस वक्त के दो बड़े नेताओं का यात्रा वृत्तांत था. माकूल था कि मैं उन दोनों नेताओं के ऑटोग्राफ लेता. उसी पन्ने पर दोनों ने अपने दस्तखत किए भी. मुझे उस नोटबुक को संभालकर रखना चाहिए था.
29 साल पुराना किस्सा है ये. करुणानिधि के निधन की खबर आई, तो इसकी याद आ गई. इस दौरान भी उनकी मुसाफिरी लंबी चली, सघन चली. बस आखिरी के कुछ ही साल विराम के थे.
रोजमर्रा में हम नेताओं पर बहस करते रहते हैं, लेकिन एक बात पर विवाद हो नहीं सकता. भारतीय नेता दुनिया के सबसे मेहनती नेता होते हैं. हम नाचीज जब रिटायर होते हैं, तब नेताओं का प्राइम दौर शुरू होता है.
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