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Lok Sabha Elections 2024 First Phase: लोकसभा चुनाव 2024 के पहले चरण में कम मतदान हुआ है और इससे राजनीतिक हलकों में हलचल मच गई है. सवाल उठ रहे कि कम मतदान प्रतिशत क्या दर्शाता है? ऐसे में किसका पलड़ा भारी है? इसको लेकर अलग-अलग सिद्धांत चहुंओर से सामने आ रहे हैं. सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों ने दावा किया है कि कम मतदान उनके लिए फायदेमंद होगा.
पहले चरण में 102 सीटों पर वोटिंग हुई और इसमें वोटिंग परसेंट 65.5% रहा. जबकि 2019 में इन सीटों पर 69.9% मतदान हुआ था. यानी अभी जो प्रोविजनल डेटा आया है वह 4.4% की गिरावट दर्शाता है.
चुनाव आयोग, राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को वास्तव में इस बारे में सोचने की जरूरत है कि मतदान प्रतिशत कम क्यों हुआ है. फिर बाकी बचे चरणों के लिए अपनी रणनीतियों को उसी अनुसार बदलना होगा.
ऐसा तब है जब कैडर-आधारित बीजेपी और वामपंथी दलों के पास सैद्धांतिक रूप से "वोट के लिए निकालो" रणनीति को लागू करने की बेहतर क्षमता है. वे प्रतिबद्ध मतदाताओं को अपने घरों से बाहर निकलने और मतदान करने के लिए बेहतर ढंग से सुसज्जित हैं.
ज्यादा या कम मतदान का चुनावी नतीजों पर क्या प्रभाव पड़ता है? ज्यादा मतदान को सत्ता में परिवर्तन का संकेत माना जाता है जबकि कम मतदान इस बात का प्रतीक माना जाता है कि जनता बदलाव नहीं चाहती. हालांकि डेटा दिखाता है कि दोनों में ऐसा कोई स्पष्ट संबंध या ट्रेंड नहीं है.
1951-52 से लेकर 2019 तक 17 लोकसभा चुनाव हुए हैं. 1957 से 2019 तक (पहले चुनाव को छोड़कर) 16 लोकसभा चुनावों में वोटिंग परसेंटेज छह बार गिरा और 10 बार बढ़ा. लेकिन इनमें से मौजूदा सरकारें 8 बार फिर से सत्ता में आई और इतनी ही बार बदली गईं.
यानी वोटिंग परसेंट में गिरावट वाले चुनावों में भी सरकार केवल 33% बार ही दोहराई गई. वोटिंग परसेंट न केवल भावनाओं पर बल्कि निर्वाचन क्षेत्र, उम्मीदवारों, जाति की गतिशीलता आदि पर भी निर्भर करता है. स्पष्ट तस्वीर पाने के लिए सीट-वार मतदान या वोटिंग परसेंट का विश्लेषण करने की भी आवश्यकता है.
2014 के मुकाबले 2019 में 79 सीटों पर वोटिंग में बढ़ोतरी देखी गई. इनमें से 43 सीटों पर 2014 की विजेता पार्टी 2019 में चुनाव हार गई. बाकी की 36 सीटों पर जीतने वाली पार्टी ही सीट बरकरार रखने में सफल रही.
वहीं 23 सीटों पर वोटिंग में गिरावट देखी गई. इनमें से 18 सीटों पर 2014 की विजेता पार्टी चुनाव हार गई और बाकी 5 सीटों पर 2014 में जीतने वाली पार्टी सीट बरकरार रखने में सफल रही.
कम मतदान के पीछे सबसे स्पष्ट कारणों में से एक पूरे देश में चल रही लू है. उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में भी उच्च तापमान दर्ज किया गया है. एक वजह बीजेपी के मतदाताओं और कार्यकर्ताओं के बीच अति आत्मविश्वास (ओवरकॉन्फिडेंस) भी हो सकती है क्योंकि वे चुनाव को पहले से ही जीत के रूप में देखते हैं.
हो सकता है कि 'आएगा तो मोदी ही' के नैरेटिव से विपक्षी वोटरों में उत्साह कम हुआ हो. साथ ही वजह में ज्यादातर राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राजपूत/जाट जैसे जाति समूहों का असंतोष भी शामिल है.
स्वराज इंडिया के संस्थापक योगेन्द्र यादव के मुताबिक, जो सीटें एनडीए के पास थीं, उनमें वोटिंग परसेंट में 5.9% की गिरावट आई है, जबकि 'अन्य' के पास केवल 3.2% सीटें थीं. हालांकि, यह कुछ भी नहीं बता रहा.
बीजेपी समर्थकों के वोट न करने से विपक्ष को मदद नहीं मिलेगी. अगर वो कांग्रेस और उसके सहयोगियों की ओर से वोट करेंगे तो असर होगा और ऐसा होता नहीं दिख रहा है.
गुजरात इसका प्रमुख उदाहरण है जहां 2017 और 2022 दोनों में वोटिंग परसेंटेज में गिरावट आई और बीजेपी ने यहां सरकार बनाए रखी.
ऐसे तीन राज्य हैं जहां पहले चरण की सीटों के लिए 2024 में वोटिंग परसेंट 2019 की तुलना में अधिक रहें. वे हैं:
असम (ऐसा लगता है कि CAA के कारण माहौल तनावपूर्ण या ध्रुवीकृत हो गया है)
छत्तीसगढ़ (बस्तर में नक्सल एनकाउंटर के बावजूद)
मेघालय
वोट में सबसे बड़ी गिरावट दर्ज करने वाले तीन राज्य हैं:
नागालैंड (जिसके कुछ जिलों में पूर्ण बहिष्कार देखा गया)
मणिपुर (लगातार एक साल से हिंसा जारी है)
अरुणाचल प्रदेश (जहां आमतौर पर अधिक वोट पड़ते हैं)
बिहार में, वोटिंग परसेंटेज लगभग 5% कम हुआ है. नीतीश कुमार के बार-बार के पलटने से मतदाताओं के एक वर्ग में निराशा हो सकती है. पश्चिमी यूपी में भी करीब 6% की गिरावट दर्ज की गई है. किसानों के विरोध प्रदर्शन का केंद्र रही इस जाट बेल्ट में राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) भी इंडिया ब्लॉक छोड़कर एनडीए में शामिल हो गयी है. ऐसा लगता है कि कुछ समर्थक गठबंधन को स्वीकार नहीं कर रहे और मतदान से दूर रहे.
तमिलनाडु में वोटिंग लगभग 3% कम हुई. बीजेपी ने आरोप लगाया है कि अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (AIADMK) और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) ने भगवा पार्टी को राज्य से बाहर रखने के लिए हाथ मिला लिया है.
कम मतदान का मतलब यह हो सकता है कि सीटों पर जीत की मार्जिन में गिरावट देखी जा सकती है. दो सीटों छिंदवाड़ा (37000 वोट से जीत) और सहारनपुर (22000 वोट से जीत) पर 2019 में बहुत करीबी मुकाबला देखने को मिला. यहां इसबार वोटिंग में गिरावट दर्ज की गई है, जिससे यह सीट अन्य पार्टियों की ओर जा सकती हैं.
बीकानेर और अलवर में दो-दो कैबिनेट मंत्री चुनाव लड़ रहे हैं. 2019 के चुनाव में इन सीटों पर जीत का अंतर 2 लाख से ज्यादा का था. इसबार कम मतदान का मतलब यह हो सकता है कि जाट/राजपूत समुदाय का रुझान खराब रहेगा और इसलिए, इस बार करीबी मुकाबला हो सकता है. शहरी उदासीनता के कारण दक्षिण चेन्नई में कम मतदान हुआ है.
संक्षेप में कहें तो पार्टियां, उम्मीदवार और साथ ही टिप्पणीकार भी अपने-अपने तरीके से वोटिंग में गिरावट के पीछे के समीकरण को पढ़-समझ रहे हैं. हालांकि, 4 जून को आने वाले नतीजे ही साबित करेंगे कि कौन सी थ्योरी सही है!
(अमिताभ तिवारी एक स्वतंत्र राजनीतिक टिप्पणीकार हैं. उनका X हैंडल (पहले ट्विटर) है. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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