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(उत्तर प्रदेश के सत्ताधारी दल समाजवादी पार्टी में मचे घमासान में नया मोड़ आ गया है. पार्टी के एमएलसी और अखिलेश समर्थक उदयवीर सिंह ने मुलायम सिंह की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता पर प्रदेश के सीएम अखिलेश यादव के खिलाफ साजिश रचने का आरोप लगाया है. उदयवीर सिंह ने मुलायम सिंह यादव से अखिलेश को इस साजिश से बाहर निकालने की अपील की है.
हमने पिछले हफ्ते ही इस मामले पर सीनियर जर्नलिस्ट नीलांजन मुखोपाध्याय का एक लेख छापा था, जिसे फिर से पब्लिश कर रहे हैं)
कई भारतीय राजनेताओं ने एक से ज्यादा शादियां की हैं और उनके गैर-विवाहिक संबंध भी रहे हैं. उनके वैवाहिक जीवन ने उनके राजनीतिक करियर पर अच्छा या बुरा असर तो डाला है, लेकिन शायद ही कभी इसकी चर्चा नाटकीय रूप से जनता के बीच हुई हो. पूर्व तमिलनाडु मुख्यमंत्री और डीएमके के मुखिया एम के करुणानिधि ने तीन बार शादी की और उनकी तीनों पत्नियों से संतानें भी हैं.
उनकी पहली शादी से हुई संतान, एम के मुत्थु राजनीति से दूर ही रहे, उनकी दूसरी पत्नी से दो लड़के एम के अलगिरी, एम के स्टालिन और तीसरी पत्नी से पुत्री कणिमोझी राजनीति में सक्रिय रही हैं और स्टालिन के पक्ष में फैसला हो जाने तक उनके बीच प्रभुत्व की लड़ाई को साफ तौर पर देखा गया है.
मुलायम सिंह की शादी और संतानों से जुड़े मुद्दे इतने जटिल नहीं हैं लेकिन अब इनका असर सीधा समाजवादी पार्टी में हो रहे बदलावों पर हैं और शायद आने वाले विधान सभा चुनाव में पार्टी के भविष्य को भी खतरे में डाल सकते हैं.
और इसका मतलब यह है कि प्रतीक यादव ने अपनी जिन्दगी के 15 साल लोगों के बीच बिन पिता के नाम के साथ गुजारी. अपनी शादी के बाद से साधना के मन में खुद के और अपने लड़के के लिए राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं और बिजनेस इंट्रेस्ट पैदा हुए हैं. वह शायद मुलायम सिंह यादव से लोगों के बीच अपकी पत्नी और प्रतीक को पिता न स्वीकारे जाने पर मुआवजे की मांग कर सकती हैं.
हालांकि प्रतीक ने अभी तक राजनीति में कोई रोचकता नहीं दिखाई है, लेकिन उनकी पत्नी अपर्णा, जो कि पूर्व पत्रकार, और अब यूपी सूचना आयुक्त की बेटी हैं, ने चुनाव में खड़े होने के प्रति अपनी रुचि स्पष्ट की है. सपा के पांचों लोकसभा सदस्य एक ही परिवार से आते हैं और उनमें से कई गिने चुने लोग ऐसे हैं जिनकी महत्वाकांक्षाओं को सपा सुप्रीमो और मुखिया मुलायम सिंह यादव को पूरा करना पड़ेगा.
हालांकि मौजूदा यूपी के यदुवंश में चल रही महाभारत जैसी राजनीतिक कलह स्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता, पिछले कुछ महीनों से यूपी में हो रहे वैकल्पिक बदलावों इस बात की और बेहतर पुष्टी करते हैं. एक थ्योरी में, यूपी उन राज्यों में से है जहां राजनैतिक संस्कृति में परिवर्तन सबसे धीमा है.
अन्य दूसरे निष्पक्ष राज्यों की तरह, विचार के रूप में आधुनिकता और कार्ययोजना की यूपी में कमी है, जैसा बिहार में है. जिससे कि, राज्य में लोगों के एक समूह को अब स्वीकार्यरूप से “युवा जोश” समूह का नाम दिया जा सकता है और दूसरे समूह को पुरानी सोच के साथ समेटा जा सकता है.
इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि अगर केएन गोविंदाचार्या ने अटल बिहारी वाजपेयी के लिए मुखौटा के विचार को अमर बना दिया होता, तो इसमें कोई बहस की बात न होती कि अखिलेश यादव मुख्यमंत्री के रूप में समाजवादी पार्टी का चेहरा हैं, और वास्तविक राजनीति मुख्तार अंसारी और कॉमी एकता दल को साथ में लेकर चलने में है.
इसलिये पार्टी पहचान वाली राजनीति के उदार प्रयोग और अंडरवर्ल्ड के बल पौरुष के जरिए अपनी पुराने तरीके से सहयोग सुरक्षित करने में जुट गयी है.
हाल के महीनों में, काफी लोगों की राय है कि सपा की जमीन पर चाहे कैसी भी छवि रही हो, लेकिन जहां तक अखिलेश की छवि का सवाल है, वह शांत छवि और किसी भी तरह की ओछी बातचीत में शामिल न होने से एक अच्छी साख बनाने में कामयाब रहे हैं. सपा के भीतर, अखिलेश हमेशा से खिलाफ खड़े नजर आये हैं, जबकि इसी छवि से वे पार्टी पर लगते आ रहे करप्शन और पक्षपात जैसे आरोपों से बेदाग रख सके है, लेकिन उनके पिता को अब ऐसा लगता है कि इससे प्रचार के दौरान कोई लाभ होने वाला नहीं है.
मुलायम सिंह के फैसले से, अब अखिलेश पर दबाब बना है कि या तो वे झुक जाएं अन्यथा कोई दूसरा रास्ता अख्तियार करें (जो कि शायद ही संभव है), से लगता है कि पार्टी के अनुभवी लोग मानते हैं कि इस बार चुनाव फिर वही पुराने समीकरणों पर लड़ा जाएगा जिसमें पहचान आधारित राजनीति, सामाजिक ध्रुवीकरण और अति-देशभक्ति जैसे मुख्य मुद्दें एजेंडे में शामिल होंगे.
ऐसी स्थिति में, अखिलेश यादव की साफ सुथरी छवि के साथ चुनाव में उतरना एक बेहतर विकल्प नहीं होगा. आपको ऐेसे लोगों की जरूरत होगी, जो शर्माएं नहीं, सोच समझकर बोलें और जकड़े तोड़ने के लिए उनके सिर पर खून सवार हो.
यदि सपा पुराने तरीकों से कुछ सीटें निकालकर और एक आश्चर्यजनक जीत दर्ज करे तो अखिलेश के पास इसमें सुधार का समय होगा. उस समय तक, मुलायम सिंह यादव शिवपाल यादव और साधना गुप्ता अखिलेश यादव और राम गोपाल वर्मा को पीछे छोड़कर साथ में चुनाव लडेंगे. दोनों डाक्टरों के पास सीमित विकल्प हैं और सभी संभावनाओं में, दोनों राजनैतिक रूप से थोड़े समय के लिए एक न हों, और फिर तूफान के खत्म होने और एक नये दिन की शुरुआत का इंतजार करें.
43 साल की आयु में अखिलेश के पास एक फायदा ये है उनके पास अभी समय है और उनके छोटे भार्इ की तुलना में राजनीति में तर्जुबा. यदि सपा इस बार का चुनाव हार भी जाती है, तो मुख्यमंत्री बनने के लिए अखिलेश के पास और भी मौके होंगे. हो सकता है, कि उस समय वो सपा के मुखिया हों.
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(नोट: ये लेखक के निजी विचार हैं, क्विंट हिंदी इससे इत्तेफाक नहीं रखता)
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