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‘’इतिहास से हम यही सीखते हैं कि हम इतिहास से कुछ नहीं सीखते.’’ जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की इन पंक्तियों को हम झुठला भी देना चाहें, तो ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि आप, हम, हमारी सरकारें इसे अक्सर सही साबित करती रहती हैं. इतिहास की किताबों से जो मैंने पढ़ा है, उसके मुताबिक, अंग्रेज चाहते थे कि भारत के लोग हिंदू-मुस्लिम में बंटें. ऐसा ही हुआ, देश के दो टुकड़े हुए. लेकिन अब भी अंग्रेजों का काम हमारे कुछ नेता और 'टीवी चिंतक' पूरा कर रहे हैं. पहले देश बंटा, अब जिन्हें हम विभूतियां मानते थे, वो भी बंट गई हैं, बिल्कुल उसी तर्ज पर कि बकरी तेरी, गाय मेरी.
महाराणा प्रताप का जन्मदिन है. 'महाराणा प्रताप' जो हल्दीघाटी युद्ध के लिए जानते थे, अकबर के साथ हुए इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने अपने राजसी ठाठबाट को छोड़कर अरावली के जंगलों में रहना पसंद किया, लेकिन दासता स्वीकार नहीं की, जिन्हें अपनी जमीन से प्यार था और उसके लिए वो अपनी जान भी दे सकते थे. महाराणा प्रताप का यही जज्बा देश के सैनिकों के लिए सदियों से मिसाल बना है.
समझने की जरूरत है कि हल्दीघाटी की लड़ाई अकबर-महाराणा प्रताप की लड़ाई थी, न कि हिंदूओं-मुस्लिमों की, जिसमें महाराणा प्रताप को हार मिली थी.
जबरदस्ती के नए इतिहास को गढ़े जाने का नतीजा ये रहा कि जो लोग आज तक महाराणा प्रताप को हिंदू-मुस्लिम से इतर देश की शान मानते थे, उनकी देशभक्ति की चर्चा पूरे सम्मान के साथ किया करते थे, उनमें से कुछ लोग अब अड़ गए हैं और महाराणा प्रताप ‘बंट’ गए हैं. यानी जिन नेताओं, इतिहासकारों, चिंतकों ने कई तर्कों-कुतर्कों के जरिए जबरदस्ती महाराणा प्रताप को हल्दीघाटी युद्ध ‘जिता दिया’, असल में प्रताप की शान का कबाड़ा निकालने में उनका सबसे बड़ा योगदान है.
महाराणा प्रताप को आपके किसी भाषण, किताब, टीवी डिबेट और आर्टिकल की जरूरत नहीं थी. आज भी उनके जैसे अदम्य जज्बे, युद्ध करने के तरीके (गोरिल्ला युद्ध) और देशभक्ति का दूसरा कोई उदाहरण खूब ढूंढने पर ही मिलता है. हल्दीघाटी युद्ध हारने के कुछ ही समय के बाद उन्होंने अपने साम्राज्य का एक बड़ा हिस्सा फिर से हासिल कर लिया था. और मुगलों को काफी नुकसान पहुंचाया था. हमारे जैसे तमाम युवा आज भी उन्हें मिसाल मानते हैं, लेकिन ‘आपने’ तो उन्हें बकरी-गाय वाले फॉर्मूले में फंसाकर रख दिया है.
कई जिलों की तरह मेरे जिले में भी महाराणा प्रताप के नाम पर एक स्कूल है. चौराहे पर घोड़े पर बैठे हुए महाराणा प्रताप की एक मूर्ति भी है. ऐसे में हम लोगों के लिए महाराणा प्रताप कोई दूर के नहीं थे, अपने थे. और हमने पढ़ा था कि कैसे उन्होंने जंगल की घास की रोटी खाकर गुजारा किया, लेकिन उन्हें गुलामी मंजूर नहीं थी. लिहाजा, स्कूल के दिनों में जावेद हो या इमरान, हम लोगों में बातें होती थीं कि ये जो मेरे पास पेंसिल है, वो महाराणा प्रताप की तलवार है. कोई और कहता कि ये जो साइकिल है, वो चेतक है, नाला पार कर जाएगा. इसे... ऐसे बताना हम अपनी शान समझा करते थे.
अब चीजें बदली हैं. दोस्ती में अब जावेद की जगह सिकंदर ने ले ली है और बहस का दायरा महाराणा प्रताप महान या अकबर महान तक पहुंच गया है. एक तरफ के बढ़ते 'कुतर्कों' से लड़ने के लिए दूसरे पक्ष ने भी अपने कुतर्क ढूंढ लिए हैं. तुलना होने लगी है महाराणा प्रताप और अकबर की. कभी सबके महाराणा प्रताप हिंदुओं के हो गए हैं और अकबर मुस्लिमों के.
आप ध्यान से देखें तो फिलहाल इस देश में प्रतीकों का एक ट्रेंड चला है. किसी को सगा साबित करना हो, तो दूसरे पक्ष को दुश्मन साबित कर दो. डर पैदा कर दो. महात्मा गांधी को सगा बताना है, तो कह दो कि जवाहरलाल नेहरू से उनकी बनती ही नहीं थी, वो कांग्रेस को खत्म करना चाहते थे.
सरदार वल्लभभाई पटेल को सगा साबित करना हो, तो बोल दो कि उन्हें पहला पीएम बनना चाहिए था, कांग्रेस वालों ने बनने नहीं दिया. भगवान राम को सगा साबित करना है, तो बोल दो कि किसी दूसरे धर्म के लोगों ने उनके 'घर' पर कब्जा कर रखा है.
ऐसे में महाराणा प्रताप को नहीं पता होगा कि कभी वो भी इस ट्रेंड का शिकार हो जाएंगे. इस राजनीतिक ट्रेंडसेटिंग में पड़ चुके महाराणा प्रताप को सिर्फ एक खास धर्म और जाति का साबित करने की कोशिश है. ऐसे में कहीं महाराणा प्रताप, महज ‘’ठाकुर महाराणा प्रताप सिंह’’ ही बनकर न रह जाएं.
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Published: 09 May 2018,09:01 AM IST