देश को कांग्रेस मुक्त करके हम कांग्रेस को खत्म करने की महात्मा गांधी की अंतिम इच्छा पूरी करेंगे.
बीजेपी के छोटे-बड़े नेताओं के ऐसे बयान अक्सर आते रहते हैं. कर्नाटक की चुनावी जंग में भी ये बात फिर से कही जा रही है. पिछले कुछ सालों में ये दावा इतनी बार दोहराया गया है कि लोग इसे सच मानने लगे हैं. लेकिन हकीकत इससे बिलकुल अलग है.
सच्चाई ये है कि महात्मा गांधी देश से कांग्रेस का नामोनिशान मिटाना नहीं, बल्कि आजादी के बाद की नई चुनौतियों से निपटने के लिए उसे पहले से ज्यादा मजबूत और असरदार बनाना चाहते थे.
भारत को कांग्रेस मुक्त करने के राजनीतिक नारे के समर्थन में महात्मा गांधी की जिस 'अंतिम इच्छा' का जिक्र बार-बार होता है, उसका आधार 'हरिजन' पत्रिका में उनकी हत्या के फौरन बाद प्रकाशित एक दस्तावेज है. अंग्रेजी में His Last Will And Testament और हिंदी में उनकी अंतिम इच्छा और वसीयतनामा शीर्षक से ये दस्तावेज 'हरिजन' के 15 फरवरी, 1948 के अंक में छपा था. यानी 30 जनवरी, 1948 को गांधी जी हत्या के महज 15 दिन बाद.
इस दस्तावेज में क्या लिखा था, इस पर बात करने से पहले जान लें कि उनकी अंतिम इच्छा और वसीयतनामा शीर्षक गांधीजी की हत्या से दुखी उनके सहयोगियों ने दिया था. ये शीर्षक भी इस दस्तावेज को लेकर बनी गलत राय की एक बड़ी वजह है. संपूर्ण गांधी वांगमय में यही दस्तावेज कांग्रेस के संविधान का मसौदा शीर्षक से मौजूद है, जो ज्यादा सही है.
इस मसौदे में गांधी जी ने लिखा है:
‘‘भारत को...सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आजादी हासिल करना अभी बाकी है. भारत में लोकतंत्र के लक्ष्य की ओर बढ़ते समय सैनिक सत्ता पर जनसत्ता के आधिपत्य के लिए संघर्ष होना अनिवार्य है. हमें कांग्रेस को राजनीतिक दलों और साम्प्रदायिक संस्थाओं की अस्वस्थ स्पर्धा से दूर रखना है. ऐसे ही कारणों से अ.भा. कांग्रेस कमेटी मौजूदा संस्था को भंग करने और नीचे लिखे नियमों के अनुसार "लोक सेवक संघ" के रूप में उसे विकसित करने का निश्चय करती है."
गांधीजी ने ये मसौदा 29 जनवरी 1948 की रात तैयार किया था, जिसके अगले ही दिन उनकी हत्या कर दी गई.
ऐसे में बहुत मुमकिन है कि ये गांधी जी का तैयार किया आखिरी मसौदा हो. लेकिन इसे उनका आखिरी वसीयतनामा या उनकी अंतिम इच्छा कहने से जिस तरह की फाइनैलिटी यानी अंतिम निर्णायकता का आभास होता है, वो ठीक नहीं है.
वसीयतनामा एक निजी किस्म का निर्णायक दस्तावेज होता है, जिसमें लिखने वाले की मौत के बाद कोई बदलाव नहीं हो सकता, जबकि ये एक राजनीतिक संगठन के संविधान में संशोधन के लिए तैयार किया गया ड्राफ्ट है. जिसकी पृष्ठभूमि बिलकुल अलग है.
हकीकत ये है कि आजादी मिलने के बाद से ही कांग्रेस के भीतर संविधान में फेरबदल की जरूरत महसूस की जा रही थी. 16 नवंबर, 1947 को कांग्रेस कार्यसमिति ने इसके लिए पारित प्रस्ताव में कहा था:
"चूंकि विदेशी प्रभुत्व से पूर्ण स्वतंत्र होने का लक्ष्य अब पूरा हो चुका है...बदली हुई परिस्थितियों में कांग्रेस संगठन को नए सिरे से ढालना होगा, उसके लिए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी वर्तमान कांग्रेस संविधान को...सुधारने की दृष्टि से कमेटी में निम्नलिखित लोगों को नियुक्त करती है. फिर यह कमेटी इस प्रकार सुधारे गए संविधान के मसौदे को खासतौर पर बुलाए गए अ.भा.कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में ...पेश करेगी. और जब तक इस संविधान पर अ.भा.कांग्रेस कमेटी अपनी अंतिम स्वीकृति नहीं दे देती, तब तक वर्तमान संविधान के तहत सभी कांग्रेस चुनावों का कार्य स्थगित रहेगा."
इसी प्रस्ताव के संदर्भ में कांग्रेस के भीतर कई स्तरों पर संवैधानिक बदलावों पर विचार-विमर्श की प्रक्रिया चल रही थी. गांधीजी का बनाया मसौदा दरअसल कांग्रेस के संविधान में संशोधन की इसी प्रक्रिया के तहत तैयार किया गया एक ड्राफ्ट था.
गांधीजी ने इस मसौदे को 29 जनवरी, 1948 की रात किन हालात में लिखा था, ये उनके निजी सचिव प्यारेलाल ने बताया है:
“गांधीजी 29 तारीख को दिन भर इतने अधिक व्यस्त रहे कि अंत में थककर चूर हो गए. कांग्रेस संविधान के मसौदे की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, “मेरा सिर चकरा रहा है, फिर भी मुझे इसे समाप्त करना होगा.” फिर उन्होंने कहा, “मुझे डर है कि मुझे देर तक जागना पड़ेगा.”
अगले दिन गांधीजी ने मसौदा प्यारेलाल को देते हुए कहा, "यदि विचार में कहीं अंतर आ जाए, तो उन्हें पूरा कर देना. इसे मैंने भारी थकान की हालत में लिखा है."
बाद में इसे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के तत्कालीन महासचिव आचार्य जुगल किशोर ने 7 फरवरी को अखबारों के लिए इस टिप्पणी के साथ जारी किया:
“...महात्मा जी ने कांग्रेस संविधान में फेर-बदल करने का प्रस्ताव रखा था. उसका पूरा मसौदा जो उन्होंने मुझे विनाशकारी 30 जनवरी को सुबह दिया था, मैं जारी कर रहा हूं.”
जाहिर है कि गांधी जी ने ये दस्तावेज अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव को इसीलिए सौंपा था, ताकि कमेटी के प्रस्ताव में तय संगठनात्मक प्रक्रिया के तहत उस पर आगे विचार हो सके. इस संदर्भ को ध्यान में रखें, तो ये बात पूरी तरह साफ हो जाएगी कि ये महज एक ड्राफ्ट था, जिस पर अंतिम फैसला कांग्रेस अधिवेशन और कार्यसमिति में होना था. ये कोई ऐसी अंतिम इच्छा नहीं थी, जिसे गांधीजी जस का तस लागू करवाना चाहते थे.
दूसरी अहम बात ये कि इस मसौदे में गांधी जी ने कांग्रेस को नष्ट करने या भारत की धरती से उसका नामो-निशान मिटा देने जैसी कोई बात नहीं की है. वो तो कांग्रेस को और 'विकसित' करने की बात कर रहे थे, भले ही किसी नए ढांचे और नाम के तहत.
उनके शब्दों पर एक बार फिर से गौर कीजिए, "अ.भा. कांग्रेस कमेटी मौजूदा संस्था को भंग करने और नीचे लिखे नियमों के अनुसार 'लोक सेवक संघ' के रूप में उसे विकसित करने का निश्चय करती है."
गांधीजी ने ये ड्राफ्ट मूल रूप से अंग्रेजी में लिखा था, जिसे पढ़ने पर बात और साफ हो जाएगी:
गांधी जिस वाक्य में कांग्रेस को भंग करने का सुझाव देेते हैं, अगले ही पल, उसी वाक्य में उसे 'विकसित' करने की बात भी करते हैं, फलता-फूलता भी देखना चाहते हैं. गांधी कांग्रेस में ये रूपांतरण इसलिए चाहते थे, ताकि वो "सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आजादी" का लक्ष्य बेहतर ढंग से हासिल कर सके.
बंटवारे के बाद देशभर में फैली सांप्रदायिकता की आग को बुझाने में जुटे गांधी के लिए इस बदलाव का एक मकसद कांग्रेस को "राजनीतिक दलों और साम्प्रदायिक संस्थाओं की अस्वस्थ स्पर्धा से दूर रखना" भी था. शायद उन्हें लग रहा था कि दलगत राजनीति से अलग रहने वाला संगठन सांप्रदायिकता के जहर को दूर करने में बेहतर भूमिका निभा पाएगा.
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गांधीजी कांग्रेस के बारे में क्या सोचते थे, इसकी एक झलक उस कॉलम में भी मिलती है, जो उन्होंने अपनी हत्या से महज 3 दिन पहले, 27 जनवरी को लिखा था. गांधीजी का ये कॉलम हरिजन के 2 फरवरी, 1948 के अंक में प्रकाशित हुआ था. इसमें गांधीजी ने लिखा था:
“भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय राजनीतिक संस्था है और उसने अहिंसक तरीके से अनेक लड़ाइयां लड़ने के बाद आजादी प्राप्त की है. उसे मिटने नहीं दिया जा सकता. कांग्रेस केवल तभी समाप्त हो सकती है, जब राष्ट्र समाप्त हो जाए.’’
गांधी जी ने आगे लिखा, "कांग्रेस ने राजनीतिक आजादी तो हासिल कर ली है, मगर उसे अभी आर्थिक, सामाजिक और नैतिक आजादी हासिल करनी है. ये आजादी चूंकि रचनात्मक हैं, कम उत्तेजक हैं, और भड़कीली नहीं हैं, इसलिए इन्हें हासिल करना राजनीतिक आजादी से ज्यादा मुश्किल है."
गांधीजी इस आर्थिक, सामाजिक और नैतिक आजादी को हासिल करने के लिए इसी कॉलम में कांग्रेस संगठन के विस्तार का सुझाव देते हुए लिखते हैं:
“कांग्रेस को अपने सदस्यों के विशेष रजिस्टर को समाप्त कर देना चाहिए, जिसमें सदस्यों की तादाद कभी भी एक करोड़ से आगे नहीं बढ़ी...अब कांग्रेस का रजिस्टर इतना बड़ा होना चाहिए कि देश के मतदाताओं की सूची में जितने भी पुरुषों और स्त्रियों के नाम हैं, वे सब उसमें आ जाएं.”
गांधी आगे ये भी बताते हैं कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं से, जिन्हें वो 'सेवक' कहते हैं, वो क्या उम्मीद रखते हैं:
"इन सेवकों से यह अपेक्षा रखी जाएगी कि वे अपने-अपने हलकों में कानून के मुताबिक रजिस्टर में दर्ज किए गए मतदाताओं के बीच काम करके उन पर अपना प्रभाव डालें और उनकी सेवा करें. कई व्यक्ति और पार्टियां इन मतदाताओं को अपने पक्ष में करना चाहेंगी...इसके सिवा और कोई रास्ता नहीं है,जिससे कांग्रेस देश में तेजी से गिरती हुई अपनी अनुपम स्थिति को फिर से हासिल कर सके....समय मिला और स्वास्थ्य ठीक रहा, तो मैं इन स्तंभों में यह चर्चा करने की उम्मीद करता हूं कि देश-सेवक अपने मालिकों अर्थात सारे बालिग मर्दों और औरतों की नजरों में अपने को ऊंचा उठाने के लिए क्या कर सकते हैं."
यानी 29 जनवरी को कांग्रेस को लोकसेवक संघ में 'विकसित' करने का सुझाव देने से महज दो दिन पहले महात्मा गांधी कांग्रेस के विस्तार के उपाय तलाश रहे थे. कांग्रेस संविधान में बदलाव के लिए तैयार ड्राफ्ट भी शायद उनकी इसी तलाश का एक पड़ाव था.
30 जनवरी 1948 को अगर सांप्रदायिक उन्माद में बौराये एक हत्यारे ने उनकी जान न ली होती, तो ये ड्राफ्ट न तो महात्मा गांधी का आखिरी वसीयतनामा कहा जाता और न ही उनके वैचारिक विरोधियों को इसके गलत इस्तेमाल का मौका मिलता.
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