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अंत में पीछे मुड़कर देखें तो महाराष्ट्र के राजनीतिक ड्रामा में जो ट्विस्ट आया वह पूरी तरह से चौंकाने वाला नहीं है. 2014 से मोदी-शाह के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का ठाकरे परिवार द्वारा संचालित शिवसेना के साथ देश के सबसे बड़े वित्तीय केंद्र मुंबई और लोकसभा में दूसरा सबसे ज्यादा सांसद (48) भेजने वाले राज्य (महाराष्ट्र) पर नियंत्रण के लिए संघर्ष चलता रहा है. लड़ाई अब अपने चरम दौर पर है, मोदी-शाह की जोड़ी एक परेशान पूर्व साथी का सफाया करके कुल वर्चस्व की अपनी महत्वाकांक्षा को साकार करने के लिए शिवसेना के बागी एकनाथ शिंदे को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रही है.
पिछले कुछ दिनों जो भी घटनाएं देखने को मिली हैं, उस पर दोनों की छाप है. सबसे पहले, बागी विधायकों को ठहराने के लिए गुजरात को चुना गया. एमएलसी चुनाव के बाद शिंदे रात में अपने समूह के साथ मुंबई से सूरत गए और वहां एक पांच सितारा होटल में ठहरे.
महाराष्ट्र संकट पर हर तरफ मोदी-शाह की जोड़ी की छाप है. बीजेपी के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस केवल असली एक्टर्स को छिपा रहे हैं.
ऐसा माना जा रहा है कि इस ऑपरेशन को गाइड करने के पीछे गुजरात बीजेपी अध्यक्ष सीआर पाटिल का छिपा हुआ हाथ है. कहा जा रहा है कि गुजरात से उड़ान की व्यवस्था सूरत नगर निगम की स्टैंडिंग कमेटी के अध्यक्ष परेश पाटिल ने की थी, जोकि सीआर पाटिल के करीबी सहयोगी हैं.
विडंबना यह है कि खुद फडणवीस को उस योजना की पूरी रूपरेखा के बारे में बहुत कम जानकारी थी, जिसके कारण वो फिर से सीएम बन सकते थे लेकिन आखिर में नहीं बन पाए.
लंबे समय में, बीजेपी को इस बात की उम्मीद है कि शिंदे की बगावत (जिसकी वजह से कई विधायकों ने उद्धव ठाकरे का साथ छोड़ दिया है) शिवसेना के अंत की प्रक्रिया शुरू कर देगी.
बीजेपी के लिए भारत में दूसरे सबसे महत्वपूर्ण राज्य पर शासन करने का मैदान साफ है क्योंकि यहां वैसे भी कांग्रेस पतन की ओर है और पवार के बिना पार्टी का नेतृत्व करने के लिए एनसीपी के भविष्य के बारे में भी सवाल हैं.
ऐसा माना जा रहा है कि पर्दे के पीछे रहते हुए गुजरात बीजेपी अध्यक्ष सीआर पाटिल इस ऑपरेशन को गाइड कर रहे थे. महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री, देवेंद्र फडणवीस केवल असली खिलाड़ियों को कवर कर रहे थे और उनकी (फडणवीस की) गतिविधियों ने मीडिया का ध्यान असली खिलाड़ियों से सफलतापूर्वक हटा लिया. विडंबना यह है कि खुद फडणवीस को उस योजना की पूरी रूपरेखा के बारे में बहुत कम जानकारी थी, जिसके कारण वो फिर से सीएम बन सकते थे लेकिन आखिर में नहीं बन पाए. ऐसा कहा जा रहा है कि गुजरात से उड़ान की व्यवस्था सूरत नगर निगम की स्टैंडिंग कमेटी के अध्यक्ष परेश पाटिल ने की थी, जोकि सीआर पाटिल के करीबी सहयोगी हैं. उन्होंने विधायकों को मुंबई से यथासंभव दूर ले जाने के लिए गुप्त रूप से काम किया. उन्हें डर था कि उद्धव ठाकरे और उनके सहयोगी बागी विधायकों से संपर्क कर सकते हैं और उनमें से कुछ को अपना विचार बदलने के लिए राजी कर सकते हैं.
यह दिलचस्प है कि गुवाहाटी को अगले पड़ाव के रूप में चुना गया. यह न केवल देश के दूसरे छोर पर है, बल्कि असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा अमित शाह के योग्य साथी हैं. विद्रोहियों को एक साथ रखने और डगमगाने वालों को भागने से रोकने के लिए जो कुछ भी करना आवश्यक था, उसके लिए उन पर (हिमंत बिस्वा सरमा) पर भरोसा किया जा सकता था.
इस ड्रामा के दौरान एक बार फिर गुजरात खेल में तब आया जब इस डील को सील करने के लिए शिंदे और शाह के बीच वडोदरा में एक गुप्त बैठक की व्यवस्था की गई. रिपोर्टों में कहा गया है कि इस मीटिंग में फडणवीस मौजूद थे, लेकिन भविष्य की घटनाओं के बारे में उनकी जानकारी की कमी को देखते हुए, जब महत्वपूर्ण विवरण तय किए गए थे तब वह स्पष्ट रूप से वहां मौजूद नहीं थे.
विधायकों को बीजेपी शासित गोवा में तभी भेजा गया गया था जब विधायकों की आवश्यक संख्या हो गई थी और महाराष्ट्र के राज्यपाल द्वारा फ्लोर टेस्ट के लिए बुलाए गया था. गोवा से मुंबई का सीधा और सरल रास्ता है.
मोदी-शाह की अन्य योजनाओं की तरह इस ऑपरेशन को भी पूरी गोपनीयता के साथ तैयार किया गया था. फडणवीस, सीआर पाटिल और परेश पाटिल जैसे प्रमुख व्यक्तियों को जितनी आवश्यक हो उतनी जानकारी दी गई. केवल शीर्ष दो को ही पूरी जानकारी थी.
इसमें कोई संदेह नहीं है कि मोदी और शाह इस दौर को अंत तक लड़ने का इरादा रखते हैं. उद्धव ठाकरे के लिए ये दोनों हमेशा से कांटा थे. दिवंगत प्रमोद महाजन, अटल बिहारी वाजपेयी और यहां तक कि लालकृष्ण आडवाणी के नरम व्यवहार के आदी ठाकरे के लिए गुजरात की इस जोड़ी का हावी हो जाने वाला रवैया पचाना मुश्किल हो गया.
2014 में पहले ही विधानसभा चुनाव में जब वे राज्य में एक साथ लड़े तो बीजेपी ने यह सुनिश्चित किया कि शिवसेना का आकार छोटा हो. वहीं राज्य के पहले बीजेपी मुख्यमंत्री को स्थापित करने के लिए भगवा पार्टी शीर्ष पर उभरी.
उसके बाद संबंध खराब केवल बदतर होते गए. 2019 के विधानसभा चुनावों के बाद गठबंधन टूट गया और शिवसेना ने प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और कांग्रेस के साथ महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार बनाने के लिए हाथ मिला लिया.
यह मोदी और शाह को सीधी चुनौती थी. उन्होंने इस अपमान के लिए गठबंधन के सूत्रधार ठाकरे या एनसीपी के शरद पवार को माफ नहीं किया.
अब बदले की बारी है. बीजेपी सत्ता में है और ठाकरे की गलतियों को याद दिलाते हुए दंड देने के लिए उसने बाल ठाकरे का गुणगान करते हुए एक पूर्व शिव सैनिक को मुख्यमंत्री नियुक्त किया है.
लेकिन यह अल्पकालिक लाभ है. लंबे समय में, बीजेपी को इस बात की उम्मीद है कि शिंदे की बगावत (जिसकी वजह से कई विधायकों ने उद्धव ठाकरे का साथ छोड़ दिया है) शिवसेना के अंत की प्रक्रिया शुरू कर देगी.
कांग्रेस वैसे भी पतन की ओर है और पवार के बिना पार्टी का नेतृत्व करने के लिए एनसीपी के भविष्य के बारे में भी सवाल हैं. इन वजहों से बीजेपी के लिए भारत में दूसरे सबसे महत्वपूर्ण राज्य पर शासन करने का रास्ता साफ हो जाता है. उत्तर प्रदेश पहले से ही मुट्ठी में है.
मोदी और शाह ने यह ठान लिया है कि भगवा महामशीन सहयोगी दलों के बिना आगे बढ़ेगी. बिहार में मोदी और शाह लंबे समय से परेशान करने वाले एक और सहयोगी नीतीश कुमार को कमजोर करने में कामयाब रहे हैं. नीतीश कुमार को नीचे गिराने के लिए उन्होंने 2020 के विधानसभा चुनाव के दौरान चिराग पासवान का इस्तेमाल किया था.
लेकिन यह एक अलग मुद्दा है कि अपने उद्देश्य को हासिल करने के बाद, दोनों ने (मोदी और शाह ने) चिराग को डंप करते हुए उनके (चिराग के) चाचा को साथ कर लिया. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि शिंदे का अंजाम आने वाले महीनों में क्या होता है.
(आरती आर जेराथ दिल्ली की एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. वह ट्विटर पर @AratiJ के नाम से ट्वीट करती हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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Published: 05 Jul 2022,09:57 PM IST