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महाराष्ट्र, झारखंड,हरियाणा का ट्रेंड बिहार में रहा तो संकट में BJP

झारखंड में आदिवासियों ने यादव और मुस्लिम के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा को सत्ता दिलाई

मयंक मिश्रा
नजरिया
Updated:
अगर पिछले कुछ चुनावों  का ट्रेंड बिहार में भी दिखता है तो नीतीश के लिए मुश्किलें हो सकती हैं.
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अगर पिछले कुछ चुनावों का ट्रेंड बिहार में भी दिखता है तो नीतीश के लिए मुश्किलें हो सकती हैं.
(फोटोः Altered By Quint)

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मुस्लिम-यादव के साथ मिल गया एक ग्रुप तो नीतीश-बीजेपी के लिए पहाड़ हो जाएंगे इस साल आने वाले चुनाव

दिल्ली में कुछ हफ्ते में तय होगा कि राज्य की कमान किसे मिलेगी. इसके बाद सारे पंडितों की नजर बिहार पर होगी जहां इस साल के अंत में चुनाव होने हैं.

क्या वहां नीतीश कुमार को एक और टर्म मिलेगा? लोकसभा चुनाव में तो नीतीश और उनके सहयोगियों को राज्य में प्रचंड बहुत मिली थी. राज्य की 40 लोकसभा सीटों में नीतीश की एनडीए को 39 सीटें मिली थीं.

लेकिन अगर पिछले कुछ महीने का ट्रेंड बिहार में भी दिखता है तो नीतीश के लिए मुश्किलें हो सकती हैं.

हाल में महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के विधानसभा चुनावों में हमने देखा कि किस तरह से राजनीतिक रुप से कभी सशक्त रहे सामाजिक ग्रुप के उभार ने बीजेपी को एक बार फिर से सत्ता में आने से रोक दिया या मुश्किलें पैदा कीं. ध्यान रहे कि इन तीनों राज्यों में बीजेपी ने एक सफल प्रयोग किया- सशक्त ग्रुप के खिलाफ उभरते अलग-अलग धाराओं को अपने साथ मिलाया और डोमिनेंट ग्रुप के राजनीतिक वर्चस्व को खत्म किया.

  • झारखंड में आदिवासियों ने यादव और मुस्लिम के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा को सत्ता दिलाई.
  • महाराष्ट्र में मराठाओं ने दलितों के साथ मिलकर बीजेपी का खेल बिगाड़ा.
  • हरियाणा में वर्चस्व वाले जाट ने दलितों के साथ मिलकर बीजेपी की मुश्किलें बढ़ाईं.
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महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में एक ही ट्रेंड

लेकिन अब शायद समय बदलने लगा है. इन तीनों राज्यों में हमने देखा कि सशक्त ग्रुप की वापसी हुई है और उन्होंने नए साथी खोज लिए हैं. जहां झारखंड में आदिवासियों ने यादव और मुस्लिम के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा को सत्ता दिलाई, वहीं मराठाओं ने दलितों के साथ मिलकर महाराष्ट्र में बीजेपी का खेल बिगाड़ा. हरियाणा में वर्चस्व वाले जाट ने दलितों के साथ मिलकर बीजेपी की मुश्किलें बढ़ाईं.

झारखंड में आदिवासियों की आबादी करीब 26 परसेंट है. वहां के 28 आदिवासी बहुल विधानसभा क्षेत्रों में झारखंड मुक्ति मोर्चा की अगुवाई वाले गठबंधन को 25 सीटें मिलीं. बीजेपी इन इलाकों में महज 2 सीटें जीत पाईंं जो पिछले विधानसभा चुनाव से 9 कम है.

CSDS के सर्वे के मुताबिक इन चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा की अगुवाई वाली गठबंधन को यादवों और मुस्लिम का भी खूब साथ मिला. इस गठबंधन को पिछले चुनाव के मुकाबले यादवों के सर्पोर्ट में 11 परसेंटेज प्वाइंट के इजाफे से काफी फायदा हुआ.

कुछ इसी तरह का पैटर्न हरियाणा में भी दिखा. राज्यों में जाटों की आबादी करीब 30 परसेंट है और दलितों की आबादी 20 परसेंट. राज्य में 67 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां जाटों की भूमिका महत्वपूर्ण रहती है. इन सीटों में पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले बीजेपी को 8 सीटों का नुकसान हुआ. दलित बहुल सीटों में बीजेपी को इस बार 4 सीटों का नुकसान हुआ. ये आंकड़े बताते हैं कि राज्य में बीजेपी के खराब प्रदर्शन की बड़ी वजह जाटों और दलितों का उससे दूर जाना रहा.

महाराष्ट्र की कहानी भी कुछ अलग नहीं है. इस बात की कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है कि मराठाओं ने किस गठबंधन को राज्य में ज्यादा वोट किया. लेकिन राजनीति पंडितों का कहना है कि बीजेपी को मराठाओं के गुस्से का नुकसान उठाना पड़ा. साथ ही एससी और एसटी के लिए सुरक्षित सीटों में इस बार बीजेपी को 6 सीटों का नुकसान हुआ जबकि उन इलाकों में कांग्रेस-एनसीपी को 10 सीटों का फायदा हुआ. इससे भी संकेत मिलता है कि दलित बीजेपी से खिसक रहे हैं. ध्यान रहे कि महाराष्ट्र में मराठाओं की आबादी करीब 32 परसेंट है. वहां अनरक्षित सीटों में 50 परसेंट सीटों पर मराठाओं का ही कब्जा होता आ रहा है.

अगर यह समीकरण बिहार में दिखा तो ?

राज्य के 243 विधानसभा सीटों में 72 ऐसे हैं जहां यादवों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है. 42 ऐसी सीटें हैं जहां मुसलमानों की खासी संख्या है.

राज्य में यादवों की आबादी करीब 15 परसेंट है और मुसलमानों की 17 परसेंट. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ये दोनों ग्रुप नीतीश कुमार के विरोधी लालू यादव की आरजेडी के साथ रहे हैं.

सीधे मुकाबले में, जैसा कि बिहार में होता दिख रहा है, सिर्फ इन दोनों ग्रुप की बदौलत किसी गठबंधन की निर्णायक जीत संभव नहीं है. लेकिन जैसा कि तीन राज्यों- महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड- में दिखा है कि डोमिनेंट ग्रुप (बिहार के केस में दलित और अति पिछड़े वर्ग) को दूसरे बड़े समूहों का साथ मिलने लगा है. अगर ऐसा हुआ तो बिहार में भी इस साल उलटफेर हो सकता है.

लेकिन वो इस बात पर निर्भर करेगा कि दोनों गठबंधन- एनडीए और यूपीए- कितने और किस तरह के सहयोगियों को साथ में ला पाते हैं. और गठबंधन की केमिस्ट्री कैसी बैठती है.

इन्हीं वजहों के कारण बिहार का मुकाबला काफी दिलचस्प हो सकता है.

(मयंक मिश्रा वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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Published: 10 Jan 2020,07:04 PM IST

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