advertisement
उत्तर प्रदेश का कासगंज इन दिनों साम्प्रदायिक दंगे की चपेट में है. हैरानी की बात है कि दंगा करने वाले अब शहीद का दर्जा मांग रहे हैं. आज के नेता दंगे शांत करने के लिए कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते. दंगे भड़काना जैसे उनका मकसद बन गया हो.
आजादी के वक्त भी भारत-पाकिस्तान में दंगे चल रहे थे. हिंदू-मुसलमान के बीच हिंसा की खबरें चारों तरफ से आ रही थीं. पंजाब और बंगाल में तो खून की नदियां बह रही थीं. गांधी जी सुबह से शाम तक लोगों को समझाते-बुझाते रहते. भाई-चारे का मतलब बताते रहते. करीब 80 साल के गांधी जी पहले नोआखाली, फिर बिहार, उसके बाद कोलकाता और बाद में दिल्ली दंगे शांत करने के लिए जान हथेली पर लिए घूमते रहे.
15 अगस्त को जब पूरा देश जश्न मना रहा था, उस दिन वह कोलकाता की मुस्लिम बस्ती में एक मुसलमान के घर में रह रहे थे और हैवान बने हिंदुओं से हथियार डाल कर मुसलमानों को गले लगाने की अपील कर रहे थे.
इन्हीं कोशिशों के क्रम में जब वो कोलकाता पहुंचे, तो 13 अगस्त, 1947 को वहां उग्र हिंदुओं का एक प्रतिनिधिमंडल उनसे मिलने पहुंचा. उस प्रतिनिधिमंडल और गांधी जी की वो बातचीत आज भी पढ़ने लायक है.
यह भी पढ़ें: महात्मा और बाल अपराधी: गांधी के सत्य के प्रयोग
प्रदर्शनकारी-पिछले साल 16 अगस्त को जब हिंदुओं के खिलाफ सीधी कार्रवाई की गई थी तब तो आप हमारी रक्षा के लिए नहीं आए. और अब मुसलमानों के इलाकों में तनिक सा उपद्रव होने पर आप उनकी रक्षा के लिए दौड़े-दौड़े आए हैं. हम नहीं चाहते कि आप यहां रहें.
गांधी जी- अगस्त 1946 के बाद जाने कितना-कुछ क्या हो चुका है. उस समय मुसलमानों ने जो किया वह बिल्कुल गलत था. लेकिन 1947 में 1946 का बदला लेने से क्या लाभ? मैं तो नोआखाली जा रहा था. जहां आपके ही भाई मेरी उपस्थिति चाहते थे. लेकिन अब देखता हूं कि मुझे यहीं रहकर नोआखली की सेवा करनी होगी. आपको यह समझ लेना चाहिए कि मैं यहां केवल मुसलमानों की सेवा के लिए नहीं आया हूं, बल्कि हिंदू और मुसलमान और उसी तरह सबकी सेवा के लिए आया हूं.
जो लोग पाशविक कृत्य कर रहे हैं वे अपने को तो कलंकित कर ही रहे हैं उस धर्म को भी कलंकित कर रहे हैं जिसके वे प्रतिनिधि हैं. मैं अपने को आपके संरक्षण में सौंपता हूं. आप चाहें तो मेरे खिलाफ खड़े हो सकते हैं और उल्टी भूमिका निभा सकते हैं.
आपको यह बात समझ में क्यों नहीं आती कि यह कदम उठाकर मैंने नोआखाली में शांति स्थापित करने की सारी जिम्मेदारी शहीद सुहरावर्दी और उनके मित्रों पर - जिनमें मियां गुलाम सरवर और अन्य लोग भी शामिल हैं - डाल दी है. यह कोई छोटी बात नहीं है.
प्रदर्शनकारी- हम आपसे अहिंसा का उपदेश नहीं सुनना चाहते. आप यहां से चले जाएं. हम मुसलमानों को यहां नहीं रहने देंगे.
गांधी जी - इसका मतलब यह हुआ कि आपको मेरी सेवाओं की जरूरत नहीं है. यदि आप मेरे साथ सहयोग करेंगे और मुझे अपना काम करने देंगे, तो इससे ऐसा वातावरण बनेगा कि हिंदू लोग उन सभी जगहों पर वापस जाकर रह सकेंगे, जहां से उन्हें खदेड़ दिया गया है. इसके विपरीत, पुरानी बातों और शत्रुता को याद रखने से आपका कोई हित नहीं होनेवाला है.
प्रदर्शनकारी - (एक 18 साल का युवक बीच में बोल पड़ा) इतिहास बताता है कि हिंदू और मुसलमान कभी मित्र नहीं रह सकते. जो हो जबसे मेरा जन्म हुआ है मैंने उन्हें हमेशा लड़ते हुए ही पाया है.
गांधीजी- खैर, मैंने इतिहास को जितना देखा है उतना आपमें से किसी ने नहीं देखा होगा और मैं आपसे कहता हूं कि मैं कई ऐसे हिंदू लड़कों को जानता हूं जो मुसलमानों को चाचा कह कर पुकारते हैं. हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के तीज-त्योहारों में और उत्सवों में भाग लिया करते थे. आप मुझसे जबरदस्ती यह स्थान छोड़ने के लिए कहते हैं लेकिन आपको मालूम होना चाहिए कि मैंने दबाव में आकर कभी कोई काम नहीं किया है. यह मेरे स्वभाव के विरुद्ध है.
आप मुझे इस घर से बाहर जाने से रोक सकते हैं. लेकिन मुझे हिंदुओं का शत्रु कहने से आपका क्या लाभ होगा? मैं इसे स्वीकार नहीं करुंगा. मैं यह स्थान छोड़ कर चला जाऊं, इसके लिए आपको मुझे यकीन दिलाना होगा कि मैंने यहां आने में भूल की है. ….. नौजवानों, मैं आप लोगों से यह पूछता हूं कि मैं जो जन्म से, धर्म से और रहन-सहन में पूर्णतया हिंदू हूं, हिंदुओं का शत्रु कैसे हो सकता हूं? क्या इससे आपकी असहिष्णुता लक्षित नहीं होती?
(गांधीजी की इस बात का शिष्टमंडल पर गहरा असर पड़ा. धीरे-धीरे और अलक्षित रूप से उनका विरोध नरम पड़ने लगा.)
इस दौर में हमारे ज्यादातर छोटे-बड़े नेता भ्रष्टाचार के आरोप में घिरे हुए हैं. किसी पर कुछ करोड़ तो किसी पर कई सौ करोड़ रुपये की चोरी का आरोप है. कुछ तो हजारों करोड़ की लूट में शामिल हैं. ये जनता के लिए कुछ करते हैं तो एहसान लादते हैं. इनकी अय्याशियों को सुन कर गांधी जी की आत्मा कराहती होती.
वो गांधी जी जिन्हें उम्र के आखिरी पड़ाव में भारत छोड़ो आंदोलन के वक्त पुणे के आगा खां पैलेस में नजरबंद रखा गया था. उस समय उनकी देख-रेख के लिए कई लोग तैनात थे. उसी दौर में बंगाल भीषण अकाल से जूझ रहा था. लाखों लोग मर रहे थे. गांधी जी ने तब गृह सचिव को चिट्ठी लिखी और बताया कि उनकी देखरेख पर जो पैसा खर्च किया जा रहा है वह जनता का पैसा है और उसे व्यर्थ में खर्च करने की कोई जरुरत नहीं. वह तो एक साधारण कोठरी में भी रह लेंगे. आप 26 अक्टूबर, 1943 को लिखी गई उस चिट्ठी का एक हिस्सा पढ़िए.
राम मनोहर लोहिया गांधी जी के बारे में लिखते हैं कि उनमें ऐसे गुण हैं जो किसी महिला को जो अपना पुत्र खो चुकी है या किसी पुरुष को जो अपनी प्रेमिका खो चुका है, सांत्वना दे सकते थे. यह बहुत ही विचित्र बात है, लेकिन है. सभी दुखियों और कष्टपीड़ित लोगों को उस व्यक्ति में राहत मिली और जब व्यक्ति संसार से विदा हुआ तो विश्व के लाखों-करोड़ों लोगों के हृदय से जो शोक का सागर उमड़ा वह शायद कभी नहीं देखा गया था.
पेरिस, न्यूयॉर्क, बर्लिन और शायद मास्को से भी मिली छोटी-छोटी खबरें-कहानियां बताती हैं कि कैसे टैक्सी वाले, कुली, मजदूर, किसान और स्कूल अध्यापक को दुनिया में गांधी की अनुपस्थिति का अहसास हुआ.
आखिर यह गुण क्या था? इसके बारे में लोहिया आगे लिखते हैं कि गांधी जी का वो गुण एक “व्यक्ति को किसी मदद के बिना अन्याय का विरोध करने की क्षमता देता है, महात्मा गांधी के जीवन और कार्यों की महानतम विशेषता थी.”
इसे समझने के लिए आप उनका दक्षिण अफ्रीका का यह भाषण पढ़िये और आज के आंदोलनकारियों के बारे में सोचिए जो पुलिस के पहुंचने पर महिलाओं के कपड़े पहन कर भाग निकलते हैं या फिर रैली निकालते वक्त महिलाओं और बच्चों को आगे कर देते हैं ताकि पुलिस लाठीचार्ज नहीं करे.
गांधीजी ने यह भाषण दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग में 11 सितंबर, 1906 को दिया था. तब वो वहां रह रहे भारतीयों को एशियाई अधिनियम संशोधन अध्यादेश के खिलाफ लामबंध कर रहे थे.
मैं जानता हूं कि प्रतिज्ञाएं व्रत आदि किसी गंभीर प्रसंग पर ही लिए जाते हैं और लिए भी जाने चाहिए. उठते-बैठते प्रतिज्ञा करने वाला निश्चय ही प्रतिज्ञा भंग कर सकता है. परंतु यदि हमारे समाज-जीवन में इस देश में प्रतिज्ञा के योग्य किसी अवसर की कल्पना मैं कर सकता हूं तो वह अवसर यही है. बहुत सावधानी से और डर-डर कर कदम रखना बुद्धिमानी है. किंतु डर और सावधानी की भी सीमा होती है. उस सीमापर हम पहुंच चुके हैं. सरकार ने सभ्यता की मर्यादा तोड़ दी है. उसने हमारे चारों ओर जब दवानल सुलगा रखा है तब भी यदि हम बलिदान की पुकार न करें और आगे-पीछे देखते रहें तो हम नालायक और नामर्द साबित होंगे.
अत: यह शपथ लेने का अवसर है, इसमें तनिक भी शंका नहीं. पर यह शपथ लेने की हममें शक्ति है या नहीं. वह तो हरएक को अपने लिए सोचना होगा. ऐसे प्रस्ताव बहुमत से पास नहीं किए जाते. जितने लोग शपथ लेंगे उतने ही उससे बंधते हैं. ऐसी शपथ दिखावे के लिए नहीं ली जाती. उसका यहां की सरकार, बड़ी सरकार या भारत सरकार पर क्या असर होगा इसका कोई तनिक भी ख्याल न करे. हर एक को अपने हृदय पर हाथ रख कर उसे ही टटोलना है. और यदि अंतरात्मा कहती है कि शपथ लेने की शक्ति है तभी शपथ ली जाए और वह शपथ फलेगी.
वैसे ही दूसरी ओर नितांत आशारहित होकर शपथ लेने को तैयार होना है. इसलिए मैं चाहता हूं कि हमारी लड़ाई में जो कड़वे से कड़वे परिणाम सामने आ सकते हैं उनकी तस्वीर इस सभा के सामने खींच दूं. मान लीजिए कि यहां उपस्थित हम सब लोग शपथ लेते हैं. हमारी संख्या अधिक से अधिक तीन हजार होगी. यह भी हो सकता है कि बाकी के दस हजार शपथ न लें. शुरू में हमारी हंसी होनी ही है. इसके अलावा इतनी चेतावनी दे देने पर भी यह बिल्कुल संभव है कि शपथ लेने वालों में कुछ या बहुत से पहली कसौटी में ही कमजोर साबित हो जाएं. हमें जेल जाना पड़े. जेल में अपमान सहने पड़ें. सख्त मशक्कत करनी पड़े.
यह मान कर ही हम शपथ लें. मुझसे कोई पूछे कि इस लड़ाई का अंत क्या होगा और कब होगा तो मैं कह सकता हूं कि अगर सारी कौम लड़ाई में पूरी तरह पास हो गई तो लड़ाई का फैसला तुरंत हो जाएगा और अगर संकत का सामने होने पर हममें से बहुतेरे फिसल गए, तो लड़ाई लंबी होगी. लेकिन इतना तो मैं हिम्मत के साथ और निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि मुट्ठीभर लोग भी अगर अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे, तो इस लड़ाई का एक ही अंत समझिए - अर्थात इसमें हमारी जीत ही होगी.
अब मेरी व्यक्तिगत जिम्मेदारी के बारे में दो शब्द. मैं एक ओर तो प्रतिज्ञा की जोखिम बता रहा हूं पर साथ ही आपको शपथ लेने की प्रेरणा भी दे रहा हूं. इसमें मेरी अपनी जिम्मेदारी कितनी है, इसे मैं पूरे तौर पर समझता हूं. यह भी संभव है कि आज के जोश या गुस्से में आकर इस सभी में उपस्थित लोगों का बड़ा भाग प्रतिज्ञा कर ले पर संकट के समय कमजोर पड़ साबित हों और मुट्ठीभर लोग ही अंतिम ताप सहन करने के लिए बच जाएं फिर भी मुझ जैसे आदमी के लिए तो एक ही रास्ता होगा- मर मिटना, पर इस कानून के आगे सिर न झुकाना.
मैं तो मानता हूं कि फर्ज करो ऐसा हो- ऐसा होने की संभावना तो बिल्कुल ही नहीं है फिर भी फर्ज कर लें कि सब गिर गए और मैं अकेला ही रह गया तो भी मेरा विश्वास है कि प्रतिज्ञा का भंग मुझसे हो ही नहीं सकता….. दूसरे कुछ भी करें. मैं खुद को मरते दम तक उसका पालन करुंगा.
महात्मा गांधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत पहुंचे. वो यहां गोपाल कृष्ण गोखले जी के बुलावे पर आए थे. गोखले जी ने हीउन्हें एक साल तक भारत भ्रमण की सलाह दी. उनकी सलाह पर गांधी ने भारत का दौरा किया. और 1916 में उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अपना एतिहासिक भाषण दिया. इस भाषण को लेकर काफी विवाद हुआ. कई राजा बीच में उठ कर चले गए. एनी बेसेंट भी नाराज हो गईं. और फिर मंच पर से अध्यक्ष (दरभंगा महाराज) भी उठ कर जाने लगे तो गांधी जी को अपना भाषण बीच में रोक दिया. इसी मौके पर उन्होंने साफ-सफाई और सदाचार को लेकर कुछ बातें कहीं जो गौर करने लायक हैं. आप भी पढ़िए.
स्वराज की बात सोचने के पहले हमें बड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी. हमारे यहां हर शहर के दो हिस्से होते हैं. बस्ती खास और छावनी. बस्ती को अक्सर एक बदबूदार गंदी कोठरी समझिए. यह ठीक है कि हम शहरों की जिंदगी के आदी नहीं हैं. लेकिन जब शहरी जिंदगी की हमें जरुरत ही है तो उसे हम अपने लापरवाह ग्राम्य-जीवन का प्रतिबिम्ब तो नहीं बना सकते.
जय जानते हुए भी कि डिब्बे का फर्श अक्सर सोने के काम आता है. हम उस पर जहां-तहां थूकते रहते हैं. हम जरा भी नहीं सोचते कि हमें यहां क्या फेंकना चाहिए. क्या नहीं और नतीजा यह होता है कि सारा डिब्बा गंदगी का अवर्णनीय नमूना बन जाता है. जिन्हें कुछ ऊंचे दर्जे का माना जाता है वे अपने से कम भाग्यशाली वाले भाइयों के साथ डांट-डपट का व्यवहार करते हैं.
विद्यार्थी वर्ग को भी मैंने ऐसा करते देखा है. वे भी गरीव सहयात्रियों के साथ कुछ अच्छा व्यवहार नहीं करते. वे अंग्रेजी बोल सकते हैं और नारफॉक जैकेट पहने होते हैं और इसलिए वे अधिकार जताकर डिब्बे में घुस जाते हैं और बैठने की जगह ले लेते हैं. मैंने अंधेरे कोने को मशाल जलाकर देखा है. और चूंकि आपने मुझे बातचीत करने की सुविधा दी है, मैं अपना मन आपके सामने बोल रहा हूं. स्वराज की दिशा में बढ़ने के लिए हमें बिना शक ये सारी बातें सुधारनी होंगी.
गांधी जी हिम्मत, धैर्य, प्रेम, करुणा, त्याग की प्रतिमूर्ति थे. आखिर उनमें से सब गुण कहां से आए? ये सब गुण उनके भीतरी संघर्षों से उत्पन्न हुए. इन्हीं संघर्षों से उन्होंने ये जाना का सत्य के मार्ग पर चलने से ही ईश्वर हासिल होंगे और आखिर तक सत्य के मार्ग पर चलते रहे. सत्य और ईश्वर में अपनी अटूट आस्था को वह अपनी आत्मकथा में इस तरह जाहिर करते हैं:
परमेश्वर की व्याख्याएं अनगिनत हैं, क्योंकि उसकी विभूतियां भी अनगिनत हैं. ये विभूतियां मुझे आश्चर्यचकित करती हैं. क्षणभर के लिए ये मुझे मुग्ध भी करती हैं. किंतु मैं पुजारी तो सत्यरूपी परमेश्वर का ही हूं. वह एक ही सत्य है और दूसरा सब मिथ्या है. यह सत्य मुझे मिला नहीं हैं, लेकिन मैं इसका शोधक हूं. जिसके लिए मैं अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु का त्याग करने को भी तैयार हूं. और मुझे यह विश्वास है कि इस शोधरूपी यज्ञ में इस शरीर को भी होम करने की मेरी तैयारी है और शक्ति है….
(लेखक के इस आर्टिकल का इनपुट आत्मकथा: सत्य के प्रयोग और सम्पूर्ण गांधी वांगमय है. लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined