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साल 2019 में हैशटैग मीटू अभियान के खिलाफ एक और अभियान चला था- हैशटैग मेनटू. यानी अगर औरतें पुरुषों पर यौन शोषण का आरोप लगा सकती हैं, तो पुरुष भी अपनी आपबीती साझा कर सकते हैं.
दरअसल ऐक्टर करण ओबराय पर उसकी पूर्व गर्लफ्रेंड ने रेप का आरोप लगाया था, तब करण की दोस्त पूजा बेदी ने जेंडर न्यूट्रल रेप लॉ की वकालत की थी और इसके बाद हैशटैग मेनटू की शुरुआत हुई. दिक्कत यह है कि तूतीकोरिन में पिता पुत्र जयराज और फेनिक्स के पुलिस हिरासत में यौन शोषण, अत्याचार और मौत के बाद ये लोग दम साधे बैठे हैं- जाहिर सी बात है, यहां पीड़ित तो पुरुष है, पर अपराधी भी पुरुष ही हैं.
तूतीकोरिन वाले मामले में पीड़ितों का पुरुष होना उतना ही मायने रखता है, जितना यह मायने रखता है कि अपराधी पुलिसवाले पुरुष ही हैं. पर इस मामले को अधिकतर लोगों ने पुरुष यौन शोषण से जोड़कर नहीं देखा. चूंकि हमारी पितृसत्तात्मक सोच में पुरुष पीड़ित हो ही नहीं सकता. न ही पुरुष, पुरुष का उत्पीड़न कर सकता है.
क्या यही वजह है कि तूतीकोरिन मामले में मेन्स राइट्स पर बात करने वाले शांत बैठे हैं. वे टिप्पणी करने के लिए उपलब्ध नहीं हैं. चूंकि जयराज-फेनिक्स मामले में कोई महिला शामिल नहीं. इसीलिए यह कहा जा सकता है कि अक्सर पुरुषों के शोषण को आधार बनाकर फेमिनिज्म को कमजोर करने की कोशिश की जाती है. पिछले साल मेनटू के जरिए जिस मुद्दे को उठाने की कोशिश की गई थी, उसका इरादा फेमिनिज्म पर हमला करना ही था. मेनटू में बार-बार यह कहा गया था कि अगर पुरुष यौन शोषण करते हैं तो महिलाएं भी ऐसा ही करती हैं. इसीलिए हम महिलाओं के खिलाफ आवाज उठाना चाहते हैं. इसी दौरान मेन्स राइट एक्टिविस्ट दीपिका नारायण भारद्वाज की एक फिल्म आई थी, मार्टर्स ऑफ मैरिज. किस प्रकार दहेज विरोधी कानून का दुरुपयोग कर पुरुषों को उसका शिकार बनाया जाता है. यह बात और है कि लोग हर कानून का अपनी अपनी तरह से दुरुपयोग करते हैं. एनएफएचएस-3 के आंकड़े भी मौजूद हैं जिसमें कहा गया है कि देश में 40% शादीशुदा महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार होती हैं. लेकिन सिर्फ 1% ही आईपीसी के सेक्शन 498ए के तहत शिकायत दर्ज कराती हैं.
पूजा बेदी ने पिछले साल रेप कानूनों में बदलाव की हिमायत की थी, लेकिन इसकी मांग कई साल से की जा रही है. इसकी सिफारिश 2012 में जस्टिस वर्मा कमिटी ने ही की थी. दिल्ली में निर्भया बलात्कार मामले के बाद दिसंबर 2012 में इस कमिटी का गठन किया गया था. इस कमिटी का काम आपराधिक कानून में संशोधन का सुझाव देना था ताकि महिलाओं के खिलाफ यौन शोषण के मामलों में तुरंत सुनवाई और अपराधियों की सजा में बढ़ोतरी की जा सके. कमिटी ने तमाम सुझाव दिए थे.
इसके बाद तत्कालीन यूपीए सरकार ने आनन फानन में एक अध्यादेश जारी किया. पर कमिटी की कई सिफारिशों को शामिल नहीं किया. खास बात यह थी कि अध्यादेश में पीड़त और अपराधी, दोनों को जेंडर न्यूट्रल कर दिया गया था. मतलब पुरुष और महिला, दोनों रेप के आरोपी हो सकते हैं. विमेन्स राइट एक्टिविस्ट्स का कहना था कि इस तरह के कानून की स्थिति में रेप का आरोप लगाने वाली पीड़ित महिला के खिलाफ अपराधी ही रेप का आरोप लगा सकता है. बाद में यूपीए सरकार अध्यादेश के स्थान पर 2013 में संशोधन कानून लाई जिसमें जेंडर न्यूट्रल वाला पहलू छोड़ दिया गया. जयराज फेनिक्स के मामले के बाद वही मुद्दा एक बार फिर उठ खड़ा हुआ है.
जाहिर सी बात है, अगर रेप कानून में पीड़ित को जेंडर न्यूट्रल किया जाता है तो इसका लाभ थर्ड जेंडर को भी मिलेगा. यह अपने आप में बहुत बड़ा मुद्दा है. हम इसे 2017 के पुणे के एक मामले से समझ सकते हैं. वहां 19 साल की एक ट्रांसजेंडर महिला के साथ रेप हुआ पर आरोपी छूट गए क्योंकि कानूनी धाराओं में थर्ड जेंडर की कोई जगह नहीं है. कर्नाटक के पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ ने बेंगलूर में ट्रांसजेंडर लोगों के सिविल राइट्स पर एक स्टडी की और कहा कि वे लोग कौतुहल के कारण भी अक्सर यौन हिंसा का शिकार होते हैं.
फिलहाल सरकार ने 2019 में ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) एक्ट लागू किया है. इसमें ट्रांसजेंडर लोगों के शारीरिक, यौन, मौखिक, भावनात्मक और आर्थिक उत्पीड़न पर छह महीने से लेकर दो साल की सजा का प्रावधान है. स्पष्ट है कि महिलाओं के यौन उत्पीड़न पर जितनी सजा दी जाती है, उसके मुकाबले यह
सजा बहुत कम है. सही बात तो यह है कि रेप और यौन हिंसा के दूसरे अपराध अक्सर ताकत का प्रदर्शन ही होते हैं. जयराज और फेनिक्स के मामले में भी ऐसा ही हुआ. मशहूर अमेरिकन फेमिनिस्ट जिल फिलिपोविक ने बोलिविया और भारत में रेप की घटनाओं पर न्यूजपेपर गार्जियन में एक आर्टिकल लिखा था- रेप इज अबाउट पावर, नॉट सेक्स. इसमें उनका कहना था कि जिन समाजों में औरतें सेकेंड क्लास सिटिजन हैं, जहां औरतों के शरीर को पॉलिटिसाइज किया जाता है, जहां सोशल हेरारकी में मर्दों को विशेषाधिकार और अथॉरिटी मिलती है, वहां रेपिस्टों को बढ़ावा मिलता है. वे अपराध करते हैं.
जैसा कि पहले कहा गया है, किसी पुरुष के यौन शोषण की बात स्वीकार करने के लिए यह जरूरी है कि हम पितृसत्ता को अपने दिमाग से बाहर फेंक दें. जिन पुरुषों के साथ यौन हिंसा होती है, अक्सर उनकी ‘मर्दानगी’ पर सवाल खड़े किए जाते हैं.
पीड़ित पुरुषों को सामाजिक लांछन का सामना करना पड़ता है, इसीलिए अक्सर वे किसी को इसका पता नहीं चलने देते. यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण यानी पॉक्सो एक्ट 18 साल से कम उम्र के सभी बच्चों पर लागू होता है, चाहे वे लड़के हों या लड़कियां. इसमें पीड़ित का कोई जेंडर तय नहीं किया गया है. अगर रेप के कानून में भी ऐसा प्रावधान जोड़ा जाए तो यौन हिंसा के शिकार पुरुषों को न्याय मिलने की उम्मीद की जा सकती है.
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Published: 11 Jul 2020,03:28 PM IST