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मणिपुर: ‘दूरी’ का दर्द और नफा-नुकसान की विभाजनकारी राजनीति

Manipur भयानक तकलीफ से गुजर रहा है, ‘दिल्ली’ कर्नाटक में बड़े चुनावी दांव में मशरूफ है.

रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल भूपिंदर सिंह
नजरिया
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सांकेतिक चित्र (फोटोः Chetan Bhakuni/The Quint)

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‘दिल्ली’ से ‘दूरी’ होने के कारण पूर्वोत्तर की सात बहनों (Seven Sister States) वाले राज्यों को खामियाजा भुगतना पड़ा. बात सिर्फ भौगोलिक दूरी की नहीं है, बल्कि असल ‘दूरी’ समझदारी की कमी, उपेक्षित इतिहास, जातीय-सांस्कृतिक विविधता की गलत समझ की है, और यहां तक कि मन के छोटेपन से पैदा हुई एक ‘दूरी’ है जो आजादी के बाद से लगातार ‘दिल्ली’ ने दिखाई है.

जब ‘दिल्ली’ ने ‘शेष भारत’ में चुनावी फायदा उठाने की कोशिश किए बिना सच्चे दिल से हाथ बढ़ाया तब 1986 में मिजोरम समझौता हुआ. नतीजा था दशकों के हिंसक विद्रोह के बाद आई शांति. तब ‘दिल्ली’ में सत्ताधारी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) ने अपनी सत्ता का त्याग किया और चुनावों की घोषणा के बाद मिजो नेशनल फ्रंट (MNF), जिसका नेतृत्व तत्कालीन बागी नेता लालडेंगा कर रहे थे, वह जीते और मुख्यमंत्री बने.

भारतीय संविधान के सामंजस्य बैठाने वाले प्रावधानों ने शांति की शुरुआत करने वाले मध्य मार्ग को बहाल करने का मौका दिया. दिलचस्प बात यह है कि मिजोरम के मौजूदा मुख्यमंत्री जोरमथांगा हैं, जो विद्रोह के दौर में लालडेंगा के बाद दूसरे नंबर पर थे.

जिनके साथ अन्याय और असमानता का बर्ताव किया गया, यह उनके धैर्य, सम्मान को समझने की कोशिश थी, शांति बनाए रखने के लिए ‘शेष भारत’ में चुनावी परिणामों पर विचार किए बिना किए गए इस फैसले में मिजोरम और भारत की जीत थी.

मणिपुरी अलगाव की शुरुआत

मणिपुर में अशांति की जड़ें 21 सितंबर 1949 को महाराजा बोधचंद्र सिंह (मैतेई वंश के शासक) द्वारा दस्तखत की गई विलय की संधि में देखी जा सकती हैं, जैसा कि स्थानीय लोग बड़े पैमाने पर मानते हैं.

जनभावनाओं का फायदा उठाते हुए एक कम्युनिस्ट हिजाम इराबूत (Hijam Irabot) (जिन्होंने इरादतन प्रमुख मैतेई संगठन का नाम निखिल मणिपुरी हिंदू महासभा से बदलकर सिर्फ निखिल मणिपुरी महासभा कर दिया था. ‘हिंदू’ झुकाव को छोड़ते हुए) ने इसे ‘जनता का संघर्ष’ बना दिया, जैसा कि वामपंथी कट्टरपंथी चाहते थे. विलय को लेकर मोहभंग की एक दबी हुई भावना थी, जिसे विशाल असम राज्य के हिस्से के रूप में अधिकांश मणिपुरियों में अलगाव और अभाव की स्थायी (और भरोसेमंद) भावना को बढ़ावा मिला.

बड़े पैमाने पर ‘दिल्ली’ की कथित उदासीनता ने बगावत की भावनाओं को फलने-फूलने का मौका दिया और नए मणिपुर राज्य में (जिसे उत्तर-पूर्व क्षेत्र (पुनर्गठन) अधिनियम 1971 के तहत 21 जनवरी 1972 को राज्य का दर्जा मिला था) इलाके में आबादी की संरचना ने पक्का किया कि आदिवासियों ने अपने मन में खुद को तेजी से द्वितीय श्रेणी का नागरिक का मानना शुरू कर दिया और हल के वास्ते सीमित संसाधनों पर कब्जे के लिए संघर्ष करने लगे, जिससे जातीय समूहों के बीच तनाव पैदा हुआ, और इस तरह कुकी-नागा गृह युद्ध की शुरुआत हुई.

भारतीय सशस्त्र बलों ने म्यांमार सीमा पार के और राज्य के भीतर के उग्रवादियों पर काबू पाने और साथ ही ड्रग्स की तस्करी, तस्करी का सहारा लेने, लूटपाट और हाईवे पर अवैध टोल लगाने वाले हथियारबंद जातीय समूहों की भीड़ के बीच हिंसक संघर्ष में दखल देने का कठिन काम किया है.

यकीनन यह इकलौता गैर-राजनीतिक बल है जो किसी फायदे या किसी समूह के डर या पक्षपात के बिना काम करता है– हालांकि, उग्रवाद और हिंसा के लंबे इतिहास को देखते हुए, जिसने सशस्त्र बलों को स्थानीय लोगों का दुश्मन बना किया, दुर्भाग्य से मालोम में साल 2000 में गोलीबारी की घटना के रूप में सामने आया, जिसमें 10 नागरिक मारे गए.आर्म्ड फोर्सेज (स्पेशल पावर्स) एक्ट (AFSPA) का आंशिक रूप से खात्मा (पिछले साल मणिपुर के छह जिलों के 15 पुलिस थाना क्षेत्रों को AFSPA से हटा दिया गया था) एक लोकप्रिय कदम था. हालांकि, राज्य पुलिस बल और शासन/प्रशासन के दूसरे अधिकारी बेहद बदनाम हैं और उनको लेकर पक्षपातपूर्ण धारणा है, खासकर गैर-मैतेइयों में.

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नई राजनीतिक पहल और उनके नतीजे

हालांकि पिछले करीब एक दशक में राष्ट्रीय राजनीति में बदलाव के साथ-साथ, हिंदू (मैतेई) बहुमत वाले पूर्वोत्तर में पहली बार एक नई राजनीतिक समझ और झुकाव को दर्शाने वाले सेवेन सिस्टर राज्यों में मणिपुर सबसे पहला था.

बीजेपी, जिसने 2007 और 2012 के राज्य विधानसभा चुनाव में 60 सीटों के सदन में एक भी सीट नहीं जीती थी. 2017 में 21 सीटों के साथ मजबूती से सत्ता में आई और 2022 के चुनाव में 60 में से 32 सीटों पर और बड़ी जीत हासिल की थी!

ऐसा बदलाव मौजूदा मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह में भी दिखता है, जिन्होंने एक स्थानीय पार्टी से राजनीति शुरुआत की, फिर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में चले गए, और फिर 2016 में बीजेपी में आ गए. स्वाभाविक रूप से इन हालात ने गैर-मैतेई जातियों के बीच, मैतेई बहुसंख्यकवाद के ताकतवर होने के विचार को जन्म दिया है.

ऐसी राजनीतिक पृष्ठभूमि के हालात में मणिपुर हाई कोर्ट ने मैतेई के लिए ‘अनुसूचित जनजाति’ के आरक्षण का आदेश देने के फैसले ने फिर से विनाशकारी रुझानों को हवा दे दी है. ‘ड्रग्स तस्करों की मदद से अवैध घुसपैठ’ और ‘पॉपी प्लांटेशन’ (आम बोलचाल में कुकी को कहा जाता है जो म्यांमार के कुछ इलाकों में रहते हैं और पहाड़ी इलाकों में प्लांटेशन में बड़े पैमाने पर शामिल हैं) की साजिशों के सच्चे-झूठे दावों और विभाजनकारी बयानबाजी ने आग में घी का काम किया.

कुकी ने केवल मैतेइयों के विरोध में प्रदर्शन किया था और फिर तबाही मच गई. एक बार फिर बता दें कि वह भारतीय सशस्त्र बल ही था, जिसे जबरदस्त संघर्ष के बीच दोनों पक्षों पर काबू पाने और शांति बहाली के लिए उतारना पड़ा. इस पागलपन में, मंदिरों और गिरजाघर को जलाया जाना स्वाभाविक था. स्थानीय जनजातियों के बीच ऐसा ‘विभाजन’ पहले कभी नहीं देखा गया था (कम से कम पिछले कुछ दशकों में).

इसका मतलब यह नहीं है कि कुकी (या यहां तक कि नागा) ज्यादतियों और अवैध गतिविधियों के जिम्मेदार नहीं हैं या चुनावी अंकगणित को देखते हुए मैतेई अपनी ताकत नहीं बढ़ा रहे हैं– गलतियों में हर पक्ष की अपनी हिस्सेदारी है, लेकिन ऐतिहासिक ‘विभाजन’ को पाटने के बजाय मौकापरस्त राजनेताओं ने मौजूदा हिंसा के लिए लोगों को जानबूझकर उकसाया, और भड़काया.

मतलबी ‘दिल्ली' और मणिपुर से बाहर यह क्यों मायने रखता है

मणिपुर के जटिल हालात को न सिर्फ ‘दिल्ली’ में बहुत कम समझा गया, बल्कि इस समय राज्य भारी तकलीफ से गुजर रहा है, ‘दिल्ली’ कर्नाटक में बड़े चुनावी दांव में व्यस्त है. जख्मी हालात के दौरान ऐसी बेमुरव्वती ने आमतौर पर पूर्वोत्तर की कोमल भावनाओं को चोट जख्मी कर दिया है. समृद्ध संस्कृति और विविधता वाला मन को मोह लेने वाला खूबसूरत राज्य, जिसने हमेशा अपने लोगों की निजी उपलब्धियों में पूरा साथ दिया, आज मतलबी राजनीति और ‘दूरी’ के सभी रूपों की कीमत भारत चुका रहा है.

‘भारत राष्ट्र का विचार’ (Idea of India) सबको एक रंग में देखने के बजाय पूरे परिदृश्य को समावेशी होकर देखने, हर एक तक पहुंच और ‘अनेकता में एकता’ की वकालत करता है. दुख की बात है कि मणिपुर इसकी धूमिल निशानी भर है.

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