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भारत के लिए ये शर्मिंदगी की शुरुआत है. मणिपुर से यौन हिंसा की खबरों को आखिरकार हम तक पहुंचने में लगभग 78 दिन लग गए. मणिपुर के मुख्यमंत्री का कहना है कि जो वीडियो अभी सामने आया है, उस तरह के सैकड़ों वीडियो हैं.
अब तक अनगिनत लेख लिखे जा चुके हैं, सोशल मीडिया पोस्ट और व्हाट्सएप मैसेज फॉरवर्ड किए गए हैं. जैसे ही इस मुद्दे पर केंद्र सरकार को प्रतिक्रिया देने के लिए मजबूर होना पड़ा, वैसे ही मणिपुर में पिछले 80 दिनों से चल रही अमानवीय हिंसा को विभाजनकारी एंगल देने के लिए ट्रोल सेना भी एक्टिव हो गई.
मणिपुर की शर्मनाक घटना सामने आने के बाद से देशभर में मानवीय स्तर पर गुस्सा और शर्मिंदगी का माहौल है. ऐसा इंटरनेट की वजह से संभव हो पाया है. इस सप्ताह वाशिंगटन डीसी में एक डिनर के दौरान मुझसे कई बार ऐसे वीडियो सामने आने में लगने वाले समय के बारे में पूछा गया.
यह वही शहर है जहां पिछले महीने हमारे प्रधानमंत्री का सम्मान किया था और वैश्विक स्तर पर भारत की बढ़ती लोकप्रियता का जश्न मनाया गया था.
यहां तक कि जब ईरान और तालिबान महिलाओं के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों और हिंसा को नहीं छिपा पाया, ऐसे में आश्चर्य की बात है कि भारत ने ऐसा करने में कैसे कामयाबी हासिल की? राज्य मशीनरी क्या कर रही थी? पत्रकार और मीडिया संगठन क्या कर रहे थे?
जिस खबर ने कुछ ही घंटों में अरबों लोगों को झकझोर दिया, वह लगभग 80 दिनों तक हमसे छिपी रही, इसका कारण यह है कि भारत सरकार, किसी भी अन्य लोकतंत्र की तुलना में जब चाहे तब, मजबूती के साथ इंटरनेट बंद करने का अधिकार रखती है.
केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा इंटरनेट पर पाबंदी लगाने के मामले में भारत दुनियाभर में टॉप पर है. मणिपुर में, पहली बार इंटरनेट पर पाबंदी 28 अप्रैल 2023 को चुराचांदपुर और फिरजॉल जिलों में लगी. 3 मई के बाद से लगाए गए प्रत्येक प्रतिबंधों के आदेश में ब्रॉडबैंड और मोबाइल इंटरनेट दोनों को निलंबित कर दिया गया.
भारत को दुनिया में सबसे लंबे समय तक इंटरनेट शटडाउन करने का भी गौरव प्राप्त है, जो कि जम्मू और कश्मीर राज्य में 552 दिनों तक लगाया गया था. इसकी शुरुआत 4 अगस्त 2019 की शाम को हुई जब भारतीय संसद ने संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया था.
शुरुआत में प्रतिबंध इंटरनेट के साथ-साथ लैंडलाइन और मोबाइल सेवाओं पर भी था. हालांकि बाद में घाटी क्षेत्रों से लैंडलाइन पर लगा प्रतिबंध हटा लिया गया, लेकिन मोबाइल इंटरनेट पर लगा प्रतिबंध जारी रहा. 6 फरवरी 2021 को लगभग 552 दिनों के बाद फिर से 4G सर्विस शुरू हुई.
हर बार अलग-अलग कारण बताए जाते हैं, भारत में कोई न कोई राज्य ऐसा करता है लेकिन अक्सर शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन की भनक लगते ही पुलिस इंटरनेट सेवाएं बंद कर देती है. हमें बताया गया है कि यह "कानून और व्यवस्था" बनाए रखने के लिए है. ऐसे प्रतिबंध की प्रभावशीलता के बारे में कोई सबूत कभी उपलब्ध नहीं कराया गया है. लेकिन यह सही लगता है.
हम सभी खुद भी सोचते हैं कि "सोशल मीडिया गलत सूचनाओं से भरा हुआ है और इसकी क्षमता कुछ ही सेकंड में बड़ी संख्या में लोगों तक पहुंचने की है, तो यह सच होना चाहिए." इसके साथ ही इस नैरेटिव में हम यह भी जोड़ लेते हैं कि "अगर पुलिस यह कह रही है, तो यह सही होगा, आखिरकार, यह हमारी सुरक्षा के लिए है." जब तक यह हमारे जीवन को प्रभावित नहीं करता है और देश के किसी अन्य हिस्से में हो रहा है, हम इसे एक मुद्दे के रूप में खारिज करने में जल्दबाजी दिखाते हैं.
इंटरनेट को आज सबसे जरूरी चीज और लग्जरी के तौर पर देखा जा रहा है, हालांकि, सरकार के मनमाने फैसलों के जरिए इसे लोगों से दूर किया जा सकता है.
हम उम्मीद करते हैं कि चीन से लेकर ईरान तक, सीरिया से लेकर रूस तक की तानाशाह सरकारें संचार के साधनों पर अपनी शक्तियों का इस्तेमाल कर जनता की जासूसी करें और उन्हें नियंत्रित करें. लेकिन जब कानून के शासन के तहत काम करने वाला लोकतांत्रिक समाज अल्पकालिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए नागरिकों की संवाद क्षमता को नष्ट करने को आदत बना लेता है, तो एक अलग और अंततः अधिक परेशान करने वाली सच्चाई सामने आती है.
भारत में इंटरनेट पर पाबंदी को चुनौती देने का कानूनी आधार भले ही ठोस हो, लेकिन कई दौर की मुकदमेबाजी के बावजूद इससे नागरिकों को राहत नहीं मिली है.
सुप्रीम कोर्ट ने अनुराधा भसीन मामले में फैसला दिया कि कुछ परिस्थितियों में, कुछ मानदंडों को पूरा करने के बाद, इंटरनेट पर अल्पकालिक रोक लगाया जा सकता है. फैसले में दिए गए सुरक्षा उपायों के बावजूद, राज्य सरकारें उन नियमों का उल्लंघन करना जारी रखती हैं और जब भी यह उनके लिए उपयुक्त होता है, पूरे राज्य को घुटनों पर ला देती है.
दांव पर लगे अधिकारों की मौलिक प्रकृति को देखते हुए, अदालत ने पारदर्शिता की आवश्यकता पर भी जोर दिया है और प्रतिबंध के आदेशों को प्रकाशित करना अनिवार्य कर दिया है.
बहरहाल, अधिकांश आदेश प्रकाशित नहीं किए गए और न ही जनता को किसी संभावित प्रतिबंध के बारे में सूचित किया गया. भारत में कई राज्य अब नियमित रूप से "परीक्षाओं में नकल को रोकने के लिए" इंटरनेट को बंद कर देते हैं, जो कि एक गैरकानूनी प्रथा है.
लेकिन मणिपुर में इंटरनेट पर प्रतिबंध से ये हुआ कि देश वहां की अमानवीय जमीनी हकीकत से अनजान रहा.
राज्य में 4 मई को हुई घटना पर अब 20 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया है, जिसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि प्रतिबंध के कारण घटनाओं की रिपोर्टिंग कैसे बाधित हुई, जिससे देश के अन्य हिस्सों से किसी भी सार्थक प्रतिक्रिया की संभावना खत्म हो गई.
इंटरनेट पर प्रतिबंध केवल आर्थिक नुकसान का कारण नहीं है, जैसा कि ब्रुकिंग्स रिपोर्ट में बताया गया है कि इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रति वर्ष लगभग 2.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हो रहा है, बल्कि आजीविका, नौकरियों और शिक्षा का भी नुकसान हो रहा है. कई लोग बैंक से जुड़े काम, दवाइयों का ऑर्डर या व्हाट्सएप पर निर्भर छोटे व्यवसाय नहीं कर पा रहे हैं.
छात्र पढ़ाई नहीं कर पा रहे हैं, पत्रकार मजबूरी में अपनी रिपोर्ट फाइल करने के लिए एसएमएस पर निर्भर हैं और कुल मिलाकर राज्य में काम काज ठप हो गया है. इंटरनेट का नहीं होना, आपकी पसंदीदा फिल्म न देख पाने या वीडियो गेम नहीं खेल पाने से कहीं अधिक है. यह छोटे व्यापारियों और महिलाओं के लिए आजीविका, ऑनलाइन बैंकिंग, महिला सुरक्षा, टैक्सी सेवाओं तक पहुंच, भोजन, शिक्षा और आधुनिक जीवन के हर पहलू के लिए जरूरी है.
सरकारों की यह गलत धारणा है कि इंटरनेट उत्पादन को बंद करने का तरीका इंटरनेट को बंद करना है. लेकिन वीडियो आते रहेंगे और भारत की शर्मिंदगी का अंत हमारे कार्यों में है, खबरों को दबाने में नहीं.
(मिशी चौधरी, मिशी चौधरी एंड एसोसिएट्स एलएलपी में मैनेजिंग पार्टनर हैं, और सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेंटर में कानूनी निदेशक हैं. एबेन मोगलेन कोलंबिया विश्वविद्यालय में कानून और कानूनी इतिहास के प्रोफेसर हैं, और सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेंटर में निदेशक-वकील और अध्यक्ष हैं.)
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