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जुर्म, सजा और राजनीतिक पैंतरे... मणिपुर हिंसा से देश के लिए कई मोर्चे पर सबक

Manipur एक आइना है जो दिखाता है कि बहुसंख्यकवादी राजनीति किस तरह किसी राज्य के ताने-बाने को तहस-नहस कर सकती है.

अफरीदा रहमान अली
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>मणिपुर हिंसा और नरेंद्र मोदी</p></div>
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मणिपुर हिंसा और नरेंद्र मोदी

(फोटो: कामरान अख्तर/द क्विंट)

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मणिपुर (Manipur) में सामने आ रही पूरी कहानी में असल संदेशों को समझने में कोई भूल न करें. एक जघन्य अपराध को लेकर तब तक राज्य सरकार की नींद नहीं खुलती, जब तक महिलाओं के कपड़े उतार कर उनके साथ बदसलूकी का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल नहीं हो जाता है. यह सरकार और प्रशासन के बारे में क्या बताता है? क्या हम यह कह रहे हैं कि जब तक किसी अपराध का कैमरे पर्दाफाश नहीं कर देते, तब तक कानून का पालन कराने वाले चैन की नींद सो सकते हैं?

जैसा कि अब पता चला है, सत्ता के शिखर पर बैठे लोगों से लेकर स्थानीय प्रशासन तक, हर कोई मणिपुर की कांगपोकपी (Kangpokpi) की घटना से वाकिफ था, जहां 4 मई को भीड़ ने दो महिलाओं के साथ बदसलूकी की थी.

शर्मनाक बात यह है कि ऐसी घटनाएं इस बदनुमा घरेलू लड़ाई का ऐसा हिस्सा बन गई हैं कि मणिपुर के दो समुदायों– पहाड़ी जनजातियों बनाम घाटी के लोगों के बीच हिंसक बदले की लड़ाई में ऐसे मामलों की श्रृंखला में इसे सिर्फ एक और भयानक घटना माना गया.

इंसानियत के खिलाफ इस दर्जे के जुर्म के लिए किसी को सजा नहीं दी जाती है, हर कोई रोजमर्रा के अपने कामकाज में लगा रहता है, जब तक कि कोई वीडियो को सोशल मीडिया पर पोस्ट करने और जनता को जगाने की पहल नहीं करता है. वीडियो पहले क्यों नहीं लीक किया गया, इसे लेकर दो-तीन थ्योरी चल रही हैं.

सोशल मीडिया वीडियो: हिंसा का कोई इकलौता मामला नहीं

इंटरनेट शटडाउन उन वजहों में से एक है और अपराधियों को सत्तारूढ़ व्यवस्था का मौन समर्थन हासिल था. लेकिन यहां सबसे जरूरी सबक यह है कि झूठ और छल के परदे को हटाकर सच हमेशा खुद सामने आ जाता है, सबसे असहज लम्हे में. मुझे खुशी है कि सोशल मीडिया ने यह पक्का किया है कि सच्चाई दब न जाए. तो यहां तीन चीजें हैं जो यह घटनाक्रम हमें बताता है.

पहला, जब सत्ता में बैठे लोगों का हाथ अपराधियों के सिर पर हो तो आम लोगों को इंसाफ मिलने या सम्मानजनक जिंदगी जीने की उम्मीद नहीं की जा सकती है.

मैं यह सोचकर कांप उठती हूं कि ऐसे कितने उदाहरण इसलिए दफन कर दिए गए होंगे क्योंकि अपराधी सत्ता पक्ष से मिले हुए थे. फिलहाल किसी को नहीं पता कि कांगपोकपी की घटना क्या इकलौती घटना थी.

जान से मार डालने, अंग-भंग कर देने और बर्बर बलात्कार के और ज्यादा परेशान करने वाले बहुत से उदाहरण हैं. हर एक-दो हफ्ते बाद अखबारों की हेडलाइन होती है, ‘मणिपुर में फिर से हिंसा भड़क उठी है.’

हकीकत यह है कि हिंसा कभी नहीं रुकी, हो सकता है हमारा ध्यान हट गया हो. और अब, मानो इशारा मिलने पर जिला प्रशासन और राज्य सरकार नींद से जाग गया है और तेजी से कार्रवाई की गई है, मुजरिमों पर फटाफट मामला दर्ज किया गया है.

सिस्टम किस तरह जुर्म और मुजरिमों के लिए ढाल का काम करता है

ज्यों ही राष्ट्रीय स्तर पर गुस्सा फूटा, प्रशासन अचानक एक्शन मोड में आ गया है.

क्या कोई यकीन करेगा कि अर्धसैनिक बलों और राज्य सरकार के पूरे अमले के साथ एन. बीरेन सिंह (N Biren Singh) के नेतृत्व वाली सरकार घटना की खबर के बाद अपराधियों को पकड़ने में लाचार थी?

मामले में देरी के बारे में पूछे जाने पर मुख्यमंत्री ने कहा कि ऐसी हजारों FIR हैं और उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि कहां से शुरुआत करें. यह सरासर झूठ है.

क्या वीडियो में यह साफ नहीं दिख रहा है कि मुजरिमों को खुली छूट दी गई थी? उनकी बॉडी लैंग्वेज देखिए. क्या उनमें कानून का कोई डर दिख रहा है, और ऐसा कोई डर क्यों होगा जब वे जानते हैं कि उन्हें सत्ता के शिखर से सक्रिय समर्थन हासिल है और मुख्यमंत्री कार्यालय उनमें से एक है? वे किससे डरेंगे?

एक-दूसरा तर्क यह पेश किया गया कि दोषियों के समुदाय के लोग उनको बचा रहे थे, इसलिए उनकी पहचान करने का कोई तरीका नहीं था. ऐसे में वीडियो सामने आने के बाद ही कार्रवाई हो सकी.

तो क्या अब मणिपुर की कानून-व्यवस्था इस बात पर निर्भर होगी कि सोशल मीडिया कितनी सक्रियता से अपराध की शिकायत करता है? देश के प्रधानमंत्री का अब घड़ियाली आंसू बहाना और कार्रवाई करता दिखाना जानबूझकर की गई ढिलाई से खुद को बेदाग बचाने की एक फूहड़ कोशिश भर है.

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जांच की धीमी रफ्तार या कोई कार्रवाई न होने से अपराधों की शिकायत की प्रक्रिया प्रभावित होती है

दूसरी बात, जब महिलाओं के खिलाफ जुर्म के किसी भी मुद्दे की बात आती है, तो नतीजों को देखें– जुर्म की शिकायत से लेकर उसके अंजाम तक.

किसी दरवाजे पर इंसाफ नहीं मिला. पीड़िता या उसकी तरफ से मामला उठाने वाले किसी शख्स ने पुलिस में रिपोर्ट (जो बलात्कार के मामलों में इससे जुड़ी बदनामी को देखते हुए अपने आप में बहुत बड़ा कदम है) करने की हिम्मत जुटाई. कोई राहत नहीं मिलने पर वह महिला आयोग का दरवाजा खटखटाती है और वहां भी हकीकत में उसकी कोई सुनवाई नहीं होती है. फाइल यूं ही एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर घूमती रहती है और दुष्चक्र में फंसी रह जाती है.

इस मामले में, एक FIR दर्ज की गई थी लेकिन पुलिस ऊपर बताई वजहों से कार्रवाई का कोई इरादा नहीं रखते हुए इसे दबाए बैठी रही. मणिपुरी महिला अधिकार समूहों ने राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) को लिखा. आयोग की चेयरपर्सन का कहना है कि उन्होंने राज्य के मुख्य सचिव को लिखा मगर कोई जवाब नहीं आया.

महिलाओं के खिलाफ यौन अपराधों पर इंसाफ पाने की प्रशासनिक व्यवस्था क्या है? हम करदाताओं के पैसे पर इन महिला अधिकार आयोगों को क्यों ढो रहे हैं, जबकि वे निष्क्रिय बने हुए हैं. व्यावहारिक रूप से इस देश की उन महिलाओं के लिए इनका कोई फायदा नहीं है, जिनकी वे सेवा करने का दावा करते हैं?

मैं सच में जानना चाहती हूं कि उनके काम का तरीका क्या है जो उन्हें कार्रवाई करने से रोकता है. या इसका काम सिर्फ किसी राज्य-स्तर के अधिकारी को पत्र लिख देना और यह मान लेना है कि उसने अपना काम पूरा कर लिया है?

इन आयोगों ने एक बार फिर खुद को सत्तारूढ़ व्यवस्था का पिछलग्गू साबित किया है, जिनके पास अपनी कोई ताकत या असर नहीं है. सरकारी खजाने का पैसा फूंकने के अलावा इनसे कोई मकसद पूरा नहीं होता. मैं यही कहूंगी कि इन सबको खत्म कर दें और सरकार का खर्च बचा लें.

सबसे जरूरी अंतिम बात. मणिपुर देश के लिए एक आइना है जो दिखाता है कि बहुसंख्यकवादी राजनीति किस तरह किसी राज्य के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर सकती है.

अगर आप सोचते हैं कि जो पुरुष बदले की भावना से दूसरे समुदाय की महिला के साथ बदसलूकी करते दिख रहे हैं, वे वहशी दरिंदे हैं, तो मैं पूछूंगी कि जिन राजनेताओं ने इन दरिंदों को पैदा किया, वे कितने बड़े राक्षस हैं.

जब आप सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काकर एक मणिपुरी नागरिक को दूसरे के खिलाफ लड़ाते हैं, एक वोट बैंक को मजबूत करने के लिए दूसरे को हाशिये पर डालते हैं, तो आपको यही मिलता है.

यह राजनीति का वही खेल है जो सत्तारूढ़ दल राष्ट्रीय स्तर पर खेल रहा है. एक समुदाय को एकजुट करें, बाकी को अलग-थलग करें और सत्ता पर काबिज रहें. मणिपुर इसका आइना है ऐसा करने से क्या हो सकता है.

(अफरीदा रहमान अली एक फ्रीलांस जर्नलिस्ट हैं और पिछले 20 वर्षों से इंडिया टुडे, न्यूज एक्स और टाइम्स नेटवर्क जैसे मुख्यधारा के मीडिया संस्थानों के लिए काम कर चुकी हैं. यह एक ओपियन पीस है. यह लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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