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कन्नड़ में कहावत है- पायसा मादी नायि बाला अड्डोदु. जिसका हिंदी अनुवाद है- 'खीर'/'पायसम' बनाना और फिर उसमें कुत्ते की पूंछ डुबाना".
तात्पर्य यह है कि अच्छा काम एक आखिरी गलती से पूरी तरह बर्बाद हो जाता है. यह मुहावरा मेरे दिमाग में तब आया जब मैंने मनीष सिसोदिया (Manish Sisodia) को जमानत देने से इनकार करने वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पढ़ा.
कोर्ट के आदेश के पहले तीन हिस्सों में सावधानीपूर्वक तर्कपूर्ण और ठोस निर्णय दिया गया है. विश्लेषण को पढ़कर कोई भी यह निष्कर्ष निकाल सकता है (जैसा कि अदालत कई बार करती है) कि सिसोदिया को जमानत देने से इनकार करने का कोई आधार नहीं है.
इस आर्टिकल में, मैं आपको समझाने की कोशिश करूंगा कि आखिर क्यों सुप्रीम कोर्ट द्वारा सिसोदिया को जमानत देने से इनकार करने के कारणों का कोई मतलब नहीं है.
पीएमएलए के तहत मनी लॉन्ड्रिंग मामलों में जमानत केवल तभी दी जा सकती है जब जज संतुष्ट हो, जज को लगे कि इस बात की अच्छी संभावना है कि आरोपी ने कोई अपराध नहीं किया है. सामान्य जमानत याचिकाओं पर भी निर्णय लेने से पहले अदालतों को तथ्यों और कानून की गहराई में जाने के लिए मजबूर किया जाता है.
हालांकि, इसका उद्देश्य मनी लॉन्ड्रिंग के मामलों में जमानत को कठिन बनाना था, लेकिन कभी-कभी इसका उल्टा असर होता है जब मामले की कमजोरियां शुरुआती चरण में ही उजागर हो जाती हैं.
अगर आपने सुप्रीम कोर्ट में सिसोदिया मामले की सुनवाई पर गौर किया है, तो आप पाएंगे कि अदालत द्वारा मामले में की गई मौखिक टिप्पणियां आदेश के पहले भाग में नजर आएंगी. सिसोदिया के खिलाफ आरोप कुछ हद तक 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के संदर्भ में ए राजा और अन्य के खिलाफ लगाए गए आरोप के समान हैं.
यहां, अपराध दिल्ली की उत्पाद शुल्क नीति में बदलाव से संबंधित है, जिसके बारे में केंद्रीय जांच ब्यूरो और ED का तर्क है कि आम आदमी पार्टी को किए जा रहे भुगतान के बदले में कुछ शराब के थोक विक्रेताओं को लाभ पहुंचाने के लिए ऐसा किया गया था.
सिसोदिया के खिलाफ तीन आरोप अदालत द्वारा कुछ हद तक निराधार पाए गए.
दूसरा, जब तक आम आदमी पार्टी को ही पैसे लेने के लिए ईडी ने आरोपी नहीं बनाया है, तब तक उसके कार्यकर्ता के रूप में सिसोदिया को आरोपी नहीं बनाया जा सकता था, जब तक कि पैसे लेने में उनकी कोई विशिष्ट भूमिका न बताई जाए. हालांकि 2 नवंबर को दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल को ईडी ने तलब किया है, तो हो सकता है कि तब आप को इसमें आरोपी बनाया जाए. लेकिन स्थिति यह है कि ईडी ने अभी भी आम आदमी पार्टी को आरोपी नहीं बनाया है.
तीसरा, अदालत ने ईडी द्वारा दिए गए कानूनी तर्क को खारिज कर दिया कि अवैध गतिविधियों के माध्यम से पैसा बनाने या कमाना पीएमएलए (धन शोधन निवारण अधिनियम) के तहत एक अपराध है. अदालत का मानना है कि यह व्याख्या कानून द्वारा समर्थित नहीं है. यह केवल तभी अपराध माना जाता है जब किसी के पास अवैध धन हो और वह उसका उपयोग करने या छिपाने की कोशिश करता हो. इस मामले में, अदालत ने पाया कि ईडी के तर्क का परीक्षण नहीं किया गया और स्पष्ट मामला स्थापित करने के लिए सिसोदिया के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं दिए गए.
हालांकि, अदालत को लगता है कि सिसोदिया के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामले का एक उदाहरण है, लेकिन जैसे ही मैं आपको इसे आगे समझाउंगा तब आपको शायद ही उनके खिलाफ ये ठोस आरोप लगेगा.
ये पता होने के बावजूद कि सिसोदिया तक पैसे का कोई लेन-देन नहीं हुआ है, फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने कुछ अजीब और अस्पष्ट आधार पर उन्हें जमानत देने से इनकार कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि नई उत्पाद शुल्क नीति के दस महीनों के दौरान थोक विक्रेताओं द्वारा कमाया गया मुनाफा (लगभग 338 करोड़ रुपये) भ्रष्टाचार के परिणामस्वरूप "गलत तरीके से कमाया गया पैसा" होगा और इसलिए सिसोदिया को सलाखों के पीछे रखने के लिए ये तर्क पर्याप्त होगा.
यह जटिल तर्क है और यह तथ्यों या कानून द्वारा समर्थित नहीं है.
वास्तव में, अदालत का कहना है कि यह पैसे नीति में बदलाव के परिणामस्वरूप सभी थोक विक्रेताओं द्वारा कमाया गया प्रॉफिट है, न कि केवल उन लोगों द्वारा, जिन पर नीति में बदलाव के लिए सरकार को रिश्वत देने का आरोप है.
कानूनी तौर पर भी इस निष्कर्ष का कोई मतलब नहीं है. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7, 7ए, 8, और 10 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अपराध तभी माना जाएगा जब किसी सरकारी अफसर को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी प्रकार की रिश्वत दी गई हो.
अदालत इस मोर्चे पर कोई सकारात्मक निष्कर्ष नहीं निकालती - कोर्ट ने पहले ही पाया है कि यहां पैसों के लेन-देन का बहुत कम सबूत हैं. इसके बजाय, अदालत मानती है कि कमाया गया मुनाफा अवैध है क्योंकि इससे सरकारी खजाने को नुकसान हुआ है और इसलिए सिसोदिया ने अपराध किया है. ऐसा निर्णय लेना जिससे सरकारी खजाने को नुकसान हो और किसी को अनुचित लाभ हो, पीओसीए की असंशोधित धारा 13(1)(डी)(iii) के तहत अपराध था, लेकिन 2018 में संशोधन के बाद अब यह अपराध नहीं है.
वास्तव में, फैसले के शुरुआत के हिस्सों में जो कुछ भी कहा गया था - कमजोर सबूत, सिसोदिया द्वारा पैसों का लेन देन नहीं और लंबी कानूनी व्याख्या (जिससे अदालत सहमत नहीं हुई) - लेकिन जब कोर्ट जमानत देने से इनकार कर देती है तो यहां विरोधाभास नजर आता है.
सुप्रीम कोर्ट का अंतिम आदेश बिल्कुल आश्चर्यजनक रूप से विरोधाभासी है.
एक तरफ, आदेश में कहा गया है कि प्रथम दृष्टया मामला बनता है और सिसौदिया को जमानत नहीं दी जा सकती. दूसरी तरफ, इसमें कहा गया है कि मुकदमे के लंबित रहने तक किसी को भी अनिश्चित काल तक जेल में नहीं रखा जा सकता है.
एक तरफ, अदालत का कहना है कि 450 से अधिक गवाहों की जांच की जानी है, और 50,000 से अधिक दस्तावेजों को साक्ष्य के रूप में, सीबीआई और ईडी द्वारा दर्ज करने की आवश्यकता है.
किसी तरह यह सब अदालत को इस निष्कर्ष पर ले गया कि सिसोदिया को जमानत पाने का एक और मौका लेने से पहले अगले तीन महीने तक जेल में रहना चाहिए - जब तक कि उनके या उनकी पत्नी के स्वास्थ्य के लिए यह आवश्यक न हो कि उन्हें जमानत दी जाए.
आदेश का यह हिस्सा तथ्यों और कानून पर कम आधारित लगता है और किसी पंचायत के फैसले की तरह अधिक लगता है.
यहां जिस दृष्टिकोण का उपयोग किया जा रहा है, जो सिविल विवादों में समस्या को हल करने और सभी को खुश करने के लिए काम कर सकता है, वह यहां सही नहीं लगता है या यह यहां अच्छी तरह से फिट नहीं बैठता है. यह दृष्टिकोण ऐसा लगता है जैसे कोई लोगों के अधिकारों या निष्पक्ष सुनवाई के महत्व पर विचार किए बिना चीजों को खराब तरीके से संतुलित करने की कोशिश कर रहा है. जिस तरह से इस आदेश का निष्कर्ष निकाला जा रहा है उसकी आलोचना मूल रूप से इसलिए की जा रही है क्योंकि यह कानून के शासन और नागरिक अधिकारों के महत्व के बारे में बात करके शुरू होता है, लेकिन जिस तरह से इसका अंत हो रहा है वह उन आदर्शों से बहुत मेल नहीं खाता है.
(आलोक प्रसन्न कुमार बेंगलुरु में विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में सीनियर रेजिडेंट फेलो हैं. वह न्यायिक जवाबदेही और सुधार अभियान की कार्यकारी समिति के सदस्य भी हैं. लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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