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मनमोहन सिंह के योगदान को शायद एक दशक तक नहीं समझ पाएंगे हम

अमर्त्य सेन और मनमोहन सिंह की जैसी आलोचना हुई है, वह शर्मनाक है

टीसीए श्रीनिवास राघवन
नजरिया
Updated:
<div class="paragraphs"><p>Happy Birthday Manmohan Singh: देश के प्रति सिंह का योगदान नहीं भुलाया जा सकता&nbsp;</p></div>
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Happy Birthday Manmohan Singh: देश के प्रति सिंह का योगदान नहीं भुलाया जा सकता 

(फोटो: AP)

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[ये आर्टिकल क्‍विंट हिंदी पर पहली बार 10 जनवरी, 2019 को पब्‍लिश हुआ था. मनमोहन सिंह के जन्‍मदिन पर इसे हम अपने पाठकों के लिए फिर से पेश कर रहे हैं]

इस साल की शुरुआत में ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ नाम की फिल्म की रिलीज हुई, जिसमें अनुपम खेर फिल्म में मनमोहन सिंह बने हैं. वह कई बार कह चुके हैं कि इस फिल्म में डॉ. मनमोहन सिंह (Dr Manmohan Singh) के साथ इंसाफ किया गया है. मेरी भी यही उम्मीद है. संघ परिवार ने जिस तरह से पिछले पांच साल में उन्हें अपमानित किया है, उससे मुझे बहुत तकलीफ पहुंची है. डॉ. सिंह के साथ अमर्त्य सेन और रोमिला थापर जैसे बुद्धिजीवियों के प्रति भी संघ परिवार का नजरिया ऐसा ही रहा है.

खासतौर पर अमर्त्य सेन और मनमोहन सिंह की जैसी आलोचना हुई है, वह शर्मनाक है. वे दोनों 1970 के दशक में दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स में मेरे टीचर रहे हैं. डॉ. सेन हमें एडवांस इकनॉमिक थ्योरी पढ़ाते थे और डॉ. सिंह इंटरनेशनल ट्रेड.

दोनों मुश्किल चीजों को बड़ी बारीकी से समझाते थे. डॉ. सिंह में खासतौर पर इसे अपना फर्ज समझते थे. उनमें एक तरह का दायित्व का भाव था और इससे वह एक ही बार चूके, जब 1971 में वाणिज्य मंत्रालय में उन्हें आर्थिक सलाहकार बनाने की पेशकश की गई.

एक मंच पर सेन और मनमोहन

(फोटो: क्विंट हिंदी)

दिसंबर 2008 में डॉ. सेन के 75वें जन्मदिन पर मैंने उन्हें और मनमोहन सिंह को एक मंच पर देखा था. करीब 37 साल बाद. उस रोज पहले डॉ. सेन ने संबोधित किया. उसके बाद प्रधानमंत्री ने. उन्हें सुनते वक्त मेरे मन में एक सवाल आया कि क्या अर्थशास्त्र के क्षेत्र में डॉ. सेन और डॉ. सिंह के एकेडमिक योगदान की तुलना की जा सकती है?

इसका जवाब है नहीं. सेन एकेडमिक दुनिया में ही रहे, जबकि सिंह पहले नौकरशाह बने और उसके बाद नेता. उन्होंने 1971 के बाद कुछ भी ऐसा नहीं लिखा है, जिसे इंटेलेक्चुअल कहा जा सके. इसके बावजूद देश के प्रति उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. हाल ही में उनके भाषणों का प्रकाशन 6 खंडों में हुआ है.

विज्ञान भवन में 75वें जन्मदिन पर हुए आयोजन में डॉ. सिंह ने डॉ. सेन के बारे में एक बात कही थी, जैसा कि अमर्त्य ने कहा:

‘’हम एक-दूसरे को तब से जानते हैं, जब हम कैंब्रिज में स्टूडेंट थे. उस वक्त भी मुझे लगता था कि वह समाज की समस्याओं के बारे में लोगों के सोचने के तरीके में काफी बदलाव लाएंगे. वह इस उम्मीद पर खरे उतरे.’’

इससे पहले डॉ. सेन ने कहा था कि पहली मुलाकात में भी वह समझ गए थे कि डॉ. सिंह बेहद खास इंसान हैं. हालांकि उन्हें कभी नहीं लगा था कि वह प्रधानमंत्री बनेंगे. डॉ. सेन क्या, किसी ने नहीं सोचा था कि मनमोहन प्रधानमंत्री बनेंगे. खुद डॉ. सिंह को भी शायद ही इसका गुमान रहा हो.

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कैसे किया जाए विश्लेषण

कई बार सही पैमाना नहीं होने पर महान बुद्धिजीवियों के योगदान का सही विश्लेषण नहीं हो पाता. हालांकि जैसा कि डॉ. सेन के बारे में ‘समस्याओं पर लोगों के सोचने के तरीके में बदलाव लाने’ की जो बात कही गई, वह किसी को परखने का अच्छा पैमाना हो सकता है. खासतौर पर किसी बुद्धिजीवी या नेता के लिए. मुझे लगता है कि डॉ. सिंह इस पैमाने पर खरे उतरते हैं. हालांकि संघ परिवार इसे नकारात्मक ढंग से पेश करता है.

कम से कम और एक दशक तक हम डॉ. सिंह के वास्तविक योगदान को नहीं समझ पाएंगे. महान बुद्धिजीवी को सही ढंग से समझने में इतना वक्त तो लगता ही है और हम आज तक देश के कई प्रधानमंत्रियों का मूल्यांकन अभी भी कर रहे हैं.

इसके बावजूद मुझे लगता है कि सेन और सिंह में एक ऐसा गुण है, जिसने उन्हें सफल बनाया है. उनकी इंटेलेक्चुअल क्वॉलिटी यह है कि वह हर इंसान को अपील करती है.

लकीर के फकीर नहीं

सेन और सिंह की इंटेलेक्चुअल क्वॉलिटी हर इंसान को अपील करती है(फोटो: रॉयटर्स)

दोनों किसी भी मुद्दे पर राय किसी विचारधारा या सिद्धांत के आधार पर नहीं बनाते. वे जब भी कोई राय बनाते हैं तो उसके केंद्र में इंसानियत होती है. इस वजह से वामपंथी या दक्षिणपंथी दोनों उस पर दावा और आलोचना कर सकते हैं.

मिसाल के लिए, डॉ. सिंह ने 10 साल पहले विज्ञान भवन में ये कहा थाः

‘‘उदारीकरण पर जो बहस चल रही है, वह दो खेमों में बंट गई है. इसमें एक तरफ ऐसे लोग हैं, जो वैश्विक समाधान को अपनाने के हक में हैं, तो दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं, जो राष्ट्रीय समाधान की वकालत करते हैं. एक तरफ ऐसे लोग हैं, जिन पर मार्केट का भूत सवार है, तो दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं, जो यथास्थिति की विचारधारा से ग्रस्त हैं. भारत में हम ऐसे लकीर के फकीरों को लंबे समय से खारिज करते आए हैं. हम मध्य मार्ग पर चलते आए हैं और ऐसा ही करते रहेंगे. हमें दोनों पैरों पर चलना सीखना होगा.’’

अगर आप बेशर्म हैं, तो कह सकते हैं कि डॉ. सेन और डॉ. सिंह मतलबी हैं. हालांकि अगर आप विनम्रता से सोचें, तो कहेंगे कि दोनों को किसी एक सोच से बांधना मुश्किल है, क्योंकि वे तुरंत ही उससे उलट कोट्स या थ्योरम पेश कर सकते हैं.

किसी भी मुद्दे पर स्वतंत्र राय बनाते हैं सेन और सिंह(फोटो: पीटीआई)

इस तरह वे वैसे भारतीय हैं, जिसका जिक्र एक रामानुजम ने अपने शानदार लेख ‘इज देयर एन इंडियन वे ऑफ थिंकिंग?’ में किया था, जो 32 साल पहले 1987 में पब्लिश हुआ था. रामानुजम के भारतीय के लिए संदर्भ सबसे बड़ी चीज है. वह किसी नैतिक सोच से बंधे रहने को मजबूर नहीं है. उसके लिए सारे रास्ते खुले हुए हैं. सोचने का हिंदू तरीका भी यही है.

सेन और सिंह इस खांचे में बिल्कुल फिट हैं. यही उनकी असल ताकत है. वे किसी भी मुद्दे पर अपनी राय स्वतंत्र तौर पर बनाते हैं. वे इसके लिए किसी राजनीतिक या धार्मिक किताब की टेक नहीं लेते.

जो लोग विचारधारा के खूंटे से बंधे हैं, वे उनकी आलोचना करते हैं. लेकिन आप ही बताएं कि क्या भारत के बारे में किसी वैचारिक खूंटे से बंधकर सोचना मुनासिब होगा? खैर, यह बात संघ परिवार को कौन समझाए. उसमें इस गूढ़ बात को समझने की अक्ल है ही नहीं.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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Published: 10 Jan 2019,08:49 PM IST

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