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आज यह सवाल पहले की तुलना में ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गया है. विशेषकर ‘मिलिटेनमेंट’ की श्रेणी में आने वाली फिल्म को देखने के बाद. यह फिल्म विचलित करने वाला कथ्य हमारे सामने परोसता है. ’सर्जिकल स्ट्राइक’ से जिस तरह का हंगामा पैदा हुआ था, उसके बाद अब ऐसा नहीं हो सकता कि इसे राष्ट्रवादी युद्ध के रूप में नहीं देखा जाए.
‘सर्जिकल स्ट्राइक’ आज भारतीय फौज के 29 सितंबर 2016 को हुए सीमा पार ऑपरेशन का समानार्थी बन गया है.
‘उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक’ सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक माहौल के निरंतर होते ध्रुवीकरण के माहौल में एक अपवाद है.
युद्ध पर कोई फिल्म कौमपरस्ती की भारी खुराक के बिना भला कैसे बनाई जा सकती है? हमारे समय में जिस सैनिक ऑपरेशन का सर्वाधिक राजनीतिकरण हुआ, उसका सिनेमाई चित्रण राष्ट्रवाद को ऊंचा उछालने वाली सरकार को दी जाने वाली सलाहियत के बिना भला कैसे हो सकता है? और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि एक फिल्म, जो वास्तविक घटना पर आधारित है, जिसमें वास्तविक लोग शामिल हुए, इसे भोंडेपन में तब्दील होने के दुराग्रह से कैसे बच सकती है?
पर ‘उरी’ में यह सब कुछ संभव कर दिया गया है.
सैनिक विजय या पराजय, किसी देश की सांस्कृतिक और साहित्यक कृतियों की धारा को प्रभावित करता है. युद्ध के परिणाम होते हैं. आप मानें या न मानें. किसी भी जीवंत लोकतंत्र में सेना के बारे में लोगों के विचारों में भिन्नता होती है. सेना राष्ट्रवाद का गौरवशाली प्रतीक भी है और यह सत्ता में बैठे समूह का राक्षसी चेहरा भी: इन दो चेहरों में बहुत सारे मनोभाव समाहित हैं. कुछ लोगों के लिए सेना एक आवश्यक बुराई है और कुछ सेना को पूरी तरह अनदेखा भी करते हैं. लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने की आजादी है.
ऐसे लोकतंत्र में, जहां सेना को दरकिनार नहीं किया जा सकता है, वहां एक हद तक सहमति के दिखावे की जरूरत होती है. चलताऊ संस्कृति इसे प्रभावी ढंग से पूरा करती है, जिसे नोम चोम्सकी “सहमति का निर्माण” कहते हैं. इस्राइल के संदर्भ में यही काम नेटफ्लिक्स की लोकप्रिय सीरीज ‘फौदा’ ने किया. अमरीका से इस खेल में महारत हासिल करने के बाद, इस्राइल ने अपनी सेना को राष्ट्र निर्माण की मुख्यधारा में लाने में सफल रहा है.
गाल लेवी और ओर्ना सासों-लेवी ने इस्राइल के संदर्भ में कहा है, “राज्य की राजनीतिक विचारधारा और औपचारिक शिक्षा के बीच संधि स्कूली शिक्षा शुरू होने के पहले ही शुरू हो जाती है, जब इस्राइली बच्चों का जुल्म, पराक्रम और युद्ध जैसे विषयों से साक्षात्कार कराया जाता है.”
इसका परिणाम यह हुआ है, “न केवल शैक्षणिक समुदाय में बल्कि पूरे समाज में सेना के खिलाफ माहौल बनने लगा है.” हम अपने आसपास बूटों की आवाज जितना ही अधिक सुनते हैं, उनके प्रति हमारी घृणा उतनी ही बढ़ती जाती है.
इस फिल्म की सर्वाधिक अच्छी बात है फिल्म के शुरू में दिया गया एक डिस्क्लेमर, जिसमें फिल्म निर्माता इस बात को मानता है कि उसने यूनीफॉर्म और प्रतीकों की नुमाइंदगी की पूरी कोशिश की है. रिसर्च को लेकर मुख्यधारा की भारतीय फिल्मों की गफलत और उनकी अकुशलता पर यह एक सर्जिकल स्ट्राइक है.
इससे पहले कि आप इस चरित्र को नापसंद करना शुरू करें, कि तभी विहान और उसकी भतीजी के बीच हुई एक बातचीत में बताया जाता है कि वह 16 की उम्र में वह ‘ब्लैक बेल्टधारी’ बन गया था. पर ‘शीघ्र-ही-8-साल-की-होने-वाली’ उसकी भतीजी इस बात से बहुत प्रभावित नजर नहीं आती है. वह खुद ‘ग्रीन बेल्टधारी’ है और उसकी योजना भारतीय सेना की पहली महिला जेनरल बनने की है. एक अच्छी बात यह है कि उसको ऐसा करने से मना कर सकने वाले जेनरल बिपिन रावत उस समय तक सेना प्रमुख नहीं रहेंगे.
यही प्यारी सी लड़की बाद में अपने पिता के अंतिम संस्कार के समय उसके रेजिमेंट कि लिए युद्धघोष करती दिखाई गई है. यह दृश्य जनवरी 2015 की विचलित कर देने वाली एक दृश्य से प्रेरित है.
कश्मीर में मारे गए कर्नल एमएन राय के अंतिम संस्कार के दौरान उनकी बेटी ने 2/9 गोरखा रेजिमेंट के लिए युद्धघोष किया था. इसलिए विहान के पास अपने मिशन को पूरा करने का एक निजी कारण है. बिहार और डोगरा रेजिमेंट की ‘घातक’ (विशेष रूप से प्रशिक्षित किए गए आक्रमणकारी पलटन) की ही तरह. इन दोनों ही रेजिमेंट के फौजी उरी शिविर पर हुए हमले में 18 सितंबर 2016 को हताहत हुए थे.
सबसे पहली बात तो यह कि यह आपको भरोसा दिलाने की बहुत ज्यादा कोशिश नहीं करता है. मुस्लिम सैनिक पर गैरजरूरी फोकस नहीं है. फिल्म में शामिल जीवित लोगों के व्यवहार को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने की कोशिश नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (रजित कपूर), एनएसए अजित डोभाल (परेश रावल), मनोहर पर्रिकर, अरुण जेटली और राजनाथ सिंह की भूमिका को अभिनेताओं ने बहुत ही संयमित रूप से निभाया है.
जब सैनिक अपने मिशन की ओर रवाना होने के लिए तैयार हो रहे होते हैं, तो देशभक्ति की बातों को बार-बार दुहराया नहीं गया है. जब वे मरते हैं, तो भी बहुत ज्यादा भावनात्मक उबाल लाने की कोशिश नहीं की गई है. वायुसेना की पायलट सीरत कौर (कीर्ति कुल्हारी) जो कि एक सैन्य अधिकारी की विधवा भी हैं, अपने कर्तव्यों का पालन बहुत ही वास्तविक तरीके से करती हैं.
आपको मेजर रिशिमा शर्मा याद हैं, जिन्होंने अपने पति मेजर मोहित शर्मा को मरणोपरांत 26 जनवरी 2010 को मिले अशोक चक्र को कितने आत्मसंयम से ग्रहण किया था?
उरी वहीं खत्म होती है, जहां इसे खत्म होना चाहिए : मिशन पूरा होने के बाद वादे के मुताबिक आयोजित एक रात्रिभोज पर. अंततः यहां श्रेय लेने और मामले के राजनीतिकरण को लेकर जो हाथापाई हुई, वह इस फिल्म के कथानक को इतनी बुरी तरह कलंकित कर सकता था, जिसकी भरपाई असंभव होता.
यह कहानी इस बात को लेकर नहीं है कि सीमा-पार हुए इस ऑपरेशन से भारत की सरकार को क्या उपलब्धि हासिल हुई, बल्कि यह कहानी उन सैनिकों की है, जिन्होंने निर्लिप्त भाव से अपने कर्तव्यों का निर्वाह किया.
उरी सेना के मानवीयकरण में सफल रहा है. इसकी ट्रेलर के उलट, फिल्म का सुर काफी संयत है. अगर अच्छे प्रचार का मानदंड यह है कि प्रकट रूप से प्रचार नहीं हो, तो उरी हर प्रशंसा के लायक है. यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर नया कीर्तिमान बनाने वाली है.
सैनिक मूल्यों के प्रति आप कितने भी द्वेषभाव रखते हों, जब मेजर विहान सिंह शेरगिल यह पूछता है, “जोश कैसा है.” इतना निश्चित है कि फिल्म देख रहे युवा इसके प्रत्युत्तर में जोर से कहेंगे: “ऊंचा है सर!”.
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