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जब पैसा ही प्रधान हो जाए, राजनीति, कला से लेकर शिक्षा तक का स्तर गिर जाता है

Mahatma Gandhi, Ambedkar जैसे एक भी नेता हैं?

ताबिश खैर
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>जब पैसा ही प्रधान हो जाए, राजनीति, कला से लेकर शिक्षा तक का स्तर गिर जाता है</p></div>
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जब पैसा ही प्रधान हो जाए, राजनीति, कला से लेकर शिक्षा तक का स्तर गिर जाता है

फोटोः क्विंट

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माना गया था कि पैसा जरूरी चीजों और सेवाओं को हासिल करने का जरिया भर होगा. लेकिन, जब ये इससे ज्यादा बड़ा बन जाए तो क्या क्या हो सकता है ?

पूंजीवाद की कई परिभाषाएं पहले से हैं और दूसरे वाला पहले से ज्यादा जटिल होने के बाद भी माना जाता है कि पूंजीवाद एक ऐसा सिस्टम है जहां मीडियम सर्वोपरि है. मतलब इसमें कामकाज का तरीका आपसी समझ से ही क्यों ना चले लेकिन अहमियत हमेशा मीडियम को ही मिलेगी.

आर्थिक रूप से, अलग अलग प्रोडक्ट, गुड्स और सर्विस के लेन-देन के लिए एक मीडियम के रूप में पैसे की जरूरत होती है. माना यह जाता है कि गुड्स और सर्विस के बदले में पैसा सिर्फ माध्यम बनकर रहेगा लेकिन ऐसा होता नहीं है. ये खुद ही एक अलग माध्यम बन जाता है और यहीं से पैसा ..पूंजी में बदल जाता है. सभी पूंजी का एक मात्र मकसद पूंजी दर पूंजी इकट्ठा करते जाना है. इस मायने में इसकी सही तुलना वायरस से की जा सकती है.

पूंजीवाद अपने शुद्धतम रूप में तब होता है जब ये बिना मनुष्य की मेहनत और उत्पादन से निकले और खुद ब खुद पैदा हो. यह तब है जब पैसा –कभी मीडियम था लेकिन अब वो ऊससे ऊपर सबसे बड़ा बन गया है और गुड्स, सर्विस सब उसके सामने गौण हो गए हैं. ऐसा नहीं कि बाकी चीजें खत्म हो गई हैं, नहीं बस इतना है कि वो प्राथमिकता नहीं रहीं, असल चीजें नहीं रहीं.

माना गया था कि पैसा सिर्फ गुड्स और सर्विसेज के बीच एक जरिया होगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं. असल में एक ऐसा मीडियम बन गया, जिसके जरिए शोषण, अनदेखी और किसी को खारिज किया जा सकता है.

चालू ख्याल और चालू आदमी

जैसा हमने ऊपर बताया कि आर्थिक जगत में पैसे और पूंजी का जो दबदबा होता है उसका असर समाज के दूसरे जरूरी हिस्सों पर भी पड़ता है. सभी जरूरी चीजें इससे प्रभावित होती है. इनका मतलब सिर्फ पैसे का वर्चस्व नहीं होता है. ये तो बहुत छोटी मोटी चिंता होगी. इसका असर दूसरे हिस्सों पर बहुत गहरा और संरचना को ही हिलाने वाला होता है.

राजनीतिक हलकों में इसका असर किसी सम्मानित व्यक्ति या स्टेट्समैन का मतलब सिर्फ मिडल मैन बनकर रह जाना होता है जो किसी विचार की जगह सिर्फ डीलिंग और पोस्चरिंग करता है. अमेरिका में बेंजामिन फ्रैंकलिन और थॉमस जैफरसन, और भारत में गांधी और अंबेडकर की तुलना में अभी जो भी दुनिया में राजनेता हैं उनके बारे में देखिए तो उनकी कोई खास अपनी अलग पहचान नहीं है.

आज की पीढ़ी के जो सबसे ज्यादा प्रतिभावान नेता भी हैं वो मध्यस्थ, और अक्सर चालू ख्यालों वाले हैं जो वोटरों के हिसाब से अपनी बातें करते हैं. दरअसल ये इस लायक नहीं है कि वो किसी ख्यालात को ठीक से परख सकें. किसी वायरस की तरह वो सिर्फ असंख्य वायरस पैदा कर सकते हैं. अवश्य ही दुनिया के कुछ इक्के-दुक्के देश में कुछ ऐसे नेता हैं जो चालू ख्यालात यानि व्हीलर डीलर नहीं हैं .. पर ऐसे नेता कभी शायद ही सत्ता में आ पाते हैं.

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अकेडमिक यानि पढ़ाई लिखाई में देखें तो अब हर चीज को कम्यूनिकेशन में बदल दिया गया है. आज यूनिवर्सिटी एक फैक्ट्री बन गई हैं. जॉब मार्केट के लिए चारा पैदा करने वाली. यहां तक रिसर्च कि दुनिया में भी कोई अलग काम नहीं हो रहा है और ये उनके अनूकुल ही रिसर्च को चलाया जा रहा है. कोई जरूरी और अहम चीजों पर रिसर्च नहीं हो रही. उच्च शिक्षा के केंद्र कुछ अपवादों को अगर छोड़ दें तो वहां भी अब सारे फैसले प्रशासक लेते हैं जबकि पहले विद्वानों का दम खम चलता था.

अब तो सब डिजिटली चलने लगे हैं. विद्वानों और अकादमिक योग्यता रखने वालों की अहमियत खत्म हो गई. अक्सर छात्रों की सेवा की अवधारणा की दलील देकर इस तरह की चीजें बढ़ाई जाती हैं और मिडिल मैन या दलालों का इन पर कब्जा होता जाता है.

क्या टी एस इलियट आज साहित्य और बाजार में बैलेंस बनाकर रख सकते थे ?

साहित्य की दुनिया में फैसले अक्सर साहित्यक एजेंट, मार्केटिंग एग्जिक्यूटिव, एडिटर और प्रकाशक लेतें हैं. अगर आप अच्छे साहित्य के बारे में सोचते हैं ना सिर्फ किताबें बेचने के बारे में तो फिर से यहां पर मिडिल मैन आ जाएंगे. इनमें से कई बहुत अच्छा काम करते हैं लेकिन उनकी पहली प्रतिबद्धता साहित्य की जगह कुछ और है. बढ़िया साहित्य हमेशा दूसरे पायदान पर रहता है. कभी कभी तो ये तीसरे और चौथे पायदान पर आ जाता है.

ऐसा नहीं है कि पहले लेखकों ने इसी तरह के दबाव में काम नहीं किया . उन्होंने किया पर पैसा पब्लिशिंग में सबसे नीचे था. एक वक्त था जब Faber and Faber के एडिटर THE PALM WINE DRINKARD को प्रकाशित करने के लिए दलीलें रख सकते थे, जो कि किसी पश्चिमी अफ्रीका के अनजाने लेखक AMOS TUTUOLA की किताब थी. एक महान उपन्यास जो 1940 और 1950 के दशक में बाजार और संस्कृति की सभी उम्मीदों को तोड़ते हुए सबको पसंद आने वाली किताब बनकर धूम मचाई थी.

जिस एडिटर ने उस किताब को पब्लिश करने का फैसला किया उसका नाम था TS Eliot. आज के हालात में कौन सा एडिटर होगा जो मार्केट को धत्ता बताकर साहित्य के लिए ऐसा जोखिम लेगा. दरअसल इसकी बहुत कम संभावना है कि आज T S ELIOT अगर होते तो वो एडिटर का काम कर रहे होते. अगर वो करते होते तो उन्हें मार्केट और साहित्य के बीच का मिडलमैन बनना होता .

पैसा और साधारणता

हां, हां, मैं जानता हूं. कि पैसा ही अब सबकुछ है ..पैसे का ही चलता है ..शिकायत क्यूं करना ?

लेकिन यहां भी कुछ अजीब चीजें हुई हैं. तीन साल की वैश्विक महामारी में लोगों की नौकरियां गई हैं, प्रोडक्शन घटें हैं, छोटे और मध्यम इडंस्ट्री पर ताला लग गए हैं .. कुछ तो दिवालिया हो गए ....लेकिन शेयर मार्केट या फाइनेंशियल मार्केट में चमत्कार हो रहे हैं..

दिग्गज के 1 फीसदी लोगों ने इन तीन साल में सबसे ज्यादा पैसा कमाा है. यहां तक कि मंदी से पहले जितने पैसे बनाए उससे भी ज्यादा कमाई की है.

आखिर जब प्रोडक्शन और कारोबार घटा है तो ये अमीर पैसे कैसे बनाते हैं? जो पुराना पूंजीवाद है वहां पर इसका जवाब नहीं मिलता ..जहां मुनाफा (अगर आप मार्क्सवादी विचार मानते हैं तो शोषण) सिर्फ मेहनत, प्रोडक्शन और पूंजी के त्रिकोण योग से बनता था. लेकिन आज लगता है कि अगर आपके पास सिर्फ पैसा या पूंजी है तो मुनाफा कमा सकते हैं. सिर्फ पूंजी ही काफी है मुनाफा कमाने के लिए.

हम ऐसे दौर में जी रहे हं जहां ‘ मीडियम ‘ ने बाकी सब चीजों चाहे वो मीडिएटर हो या कुछ औऱ सबको पीछे छोड़कर जीत हासिल कर लिया है। दिलचस्प बात ये है कि ये सिर्फ मीडिएशन नहीं है जो मीडियम से बना है और मूल रूप लैटिन शब्द ‘मीडियस‘ से. इनके लिए एक वैसा ही शब्द है और वो वहीं से आया है. .इसका नाम है ‘मीडियॉकर’ यानि औसत दर्जे का.

(तबिश खैर, पीएचडी, डीफिल, आरहूस विश्वविद्यालय, डेनमार्क में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. वो @KhairTabish पर ट्वीट करते हैं. यह एक राय लेख है और व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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