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भारत में प्रेस की आजादी पर शिकंजा लगा तो नागरिकों की स्वतंत्रता पर भी आएगी आंच

प्रेस की आजादी पर भारत का स्थान उन देशों में सबसे नीचा है जो खुद को लोकतंत्र कहते हैं.

सीमा चिश्ती
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>World Press Fredom Day</p></div>
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World Press Fredom Day

Photo: The Quint/Vibhushita Singh

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) हाल ही में जर्मनी (Germany) का दौरा कर रहे थे और यहां उन्होंने पत्रकारों से कोई भी सवाल लेने से इनकार कर दिया. नतीजतन जर्मनी के चांसलर ओलाफ स्कोल्ज से भी पत्रकारों को कोई जवाब नहीं मिला.

जब बाहर पत्रकारों ने पीएम मोदी को घेरकर अंदर न जाने देने की शिकायत की तो पीएम मोदी में मुख से निकला- ‘ओ माई गॉड’. (oh my God) लेकिन यह वह परम वाक्य है जो वास्तव में भारत की जनता की जुबान पर होना चाहिए. प्रेस की स्वतंत्रता (Freedom of Press) और एक लोकतंत्र में प्रधानमंत्री से सवाल पूछने में सक्षम होने के बीच के संबंध को नकारा नहीं जा सकता.


विडंबना देखिए कि पीएम मोदी सवालों से बचकर पत्रकारों से ‘ओ माई गॉड’ विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर बोलते हैं. अगले ही दिन विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर दुनिया को पता चला कि भारत का नाम प्रेस की स्वतंत्रता की रैंकिंग में दुनिया के 30 सबसे खराब देशों के लिस्ट में शुमार है. यानी भारत 180 देशों में से 150वें पायदान पर है.

इस लिस्ट में सबसे नीचे नॉर्थ कोरिया है. भारत की रैंकिंग तुर्की से एक कम और सूडान से एक आगे है. खास बात है कि तीन अफ्रीकी देशों- इरेट्रिया, मिस्र और सूडान (तीनों को अपने हार्ड-लाइन तानाशाही के लिए जाना जाता है)- को छोड़कर सभी अफ्रीकी देश रैंकिंग में भारत से बहुत आगे हैं.

भारत का स्थान उन देशों में सबसे नीचा है जो खुद को लोकतंत्र कहते हैं.

प्रेस की स्वतंत्रता को इस रूप में परिभाषित किया गया है- "राजनीतिक, आर्थिक, कानूनी और सामाजिक हस्तक्षेप से स्वतंत्र और शारीरिक-मानसिक सुरक्षा के लिए खतरों की गैरमौजूदगी में लोगों के हित में खबरों का चयन करने, उसे प्रोड्यूस करने और उसे प्रसारित करने के लिए पत्रकारों का सक्षम होना.”

इस रैंकिंग को जारी करने वाली पेरिस स्थित रिपोर्टर्स सैन्स फ्रंटियर (Reporters Without Borders) के पास अब एक ऐसी मूल्यांकन प्रक्रिया है जो पांच अलग-अलग मानकों को ध्यान में रखती है.

  • राजनीतिक पैमाना

  • कानूनी पैमाना

  • आर्थिक पैमाना

  • सामाजिक-सांस्कृतिक पैमाना

  • सुरक्षा पैमाना

भारत ने किसी तरह कानूनी पैमाने पर 120वें स्थान और सामाजिक-सांस्कृतिक पैमाने पर 127वें स्थान पाकर यह सुनिश्चित किया कि भारत इस रैंकिंग में "बहुत खराब" वाले जोन में न चला जाए.

चिंताजनक है कि सुरक्षा के मामले में भारत का रिकॉर्ड बहुत खराब है और यह 180 देशों में से 163वें स्थान (नीचे से 18वें) पर है.

राजनीति के पैमाने पर यह 145वें स्थान पर है जबकि अर्थव्यवस्था के पैमाने पर 149 पर. अगर 2021 से तुलना करें तो रैंकिंग के लिए भारत का ओवरऑल स्कोर 53.44 से गिरकर 41 हो गया है.

प्रेस की स्वतंत्रता: लोकतंत्र का इंडिकेटर?

प्रेस की स्वतंत्रता के मूल्यांकन के लिए इस रैंकिंग में उपयोग किए जाने वाले पांचों पैरामीटर वास्तव में लोकतांत्रिक कामकाज का ही मूल्यांकन करने के पैमाने हैं.

यह सिर्फ Reporters Without Borders की रैंकिंग में ही नहीं है. लोकतांत्रिक पैमाने पर आधारित कम से कम तीन प्रमुख वैश्विक सूचकांकों- V-Dem, इंटरनेशनल आईडिया और फ्रीडम हाउस- ने भारत में प्रेस की स्वतंत्रता के लिए बिगड़ते माहौल की बात कही है.

3 मई को एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वॉच समेत दस संगठनों ने एक बयान जारी कर कहा कि

"भारत के अधिकारी सरकार की पॉलिसी और कार्रवाइयों की आलोचना करने वाले पत्रकारों और ऑनलाइन आलोचकों को तेजी से निशाना बना रहे हैं. इसमें आतंकवाद विरोधी और देशद्रोह कानूनों के तहत केस चलाना शामिल है"
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इमरजेंसी के बाद मीडिया बदली?

1975-77 के आपातकाल के दौर में प्रेस पर लगे पूर्ण सेंसरशिप और शत्रुतापूर्ण वातावरण के प्रभाव से उबरने के लिए भारत की मीडिया ने हमेशा ही खुद की पीठ थपथपाई है.

लेकिन अब जब डिजिटल टेक्नोलॉजी पारंपरिक मीडिया को चुनौती दे रही, सरकारी विज्ञापनों पर आर्थिक निर्भरता बढ़ रही और कुछ मीडिया हाउसों में सत्ताधारी पार्टी के विचार सहजता से घुल-मिल गए हैं- कहानी अलग नजर आती है.

अब मीडिया ने एक वाचडॉग की भूमिका में सरकार से सवाल करने या अपने प्लेटफॉर्म पर संजीदा बहस, सूचना या जांच को जगह देने के दायित्व को लगभग पूरी तरह त्याग दिया है.

Indian Journalism in a New Era, Changes, Challenges and Perspectives किताब के अनुसार एक कार्यकारी (एग्जीक्यूटिव) के साथ काम करने की चुनौतियों ने "नैतिक पत्रकारिता के स्थापित मानदंडों" को नुकसान पहुंचाते हुए मुनाफे और बढ़ी हुई रेटिंग को और बढ़ाने की इच्छा पैदा की है.

यह कार्यकारी न सिर्फ भारतीय मीडिया के भीतर गंभीर परिवर्तनों कर रहा बल्कि सूचना पर अपने नियंत्रण को प्राथमिकता भी दे रहा है.

भारतीय मीडिया का बढ़ता आकर क्या डाल रहा असर ?

ऐसे वक्त में जब आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक रूप से एक ही पार्टी प्रभावशाली स्थिति हो, मीडिया के लिए प्रासंगिक बने रहने की चुनौती, 'संतुलन' की एक काल्पनिक खोज की जगह सच्चाई का पीछा करने के लिए होनी चाहिए. यह ‘संतुलन’ उन लोगों को ‘फ्री पास’ देता है जिन्हें जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए.

जाने-माने पत्रकार क्रिस्टियन अमनपुर ने 2016 में पत्रकारों की रक्षा के लिए समिति के एक सम्मेलन में कहा था कि पत्रकारों को तटस्थता (न्यूट्रलिटी) की जगह सच्चाई को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए.

भारतीय मीडिया के आकार में पिछले तीन दशकों में बड़ा विस्फोट हुआ है. TRAI के अनुसार 2017 तक भारत में 825 रजिस्टर्ड टीवी चैनल और 80,000 से अधिक न्यूज पेपर्स हैं. इनमें से 16 भाषाओं में 24/7 न्यूज चैनलों की संख्या 300+ है.

लेकिन अब बिखरी पड़ी मीडिया बड़े पैमाने पर एक साथ आ रही है और यह परिवर्तन का महत्वपूर्ण संकेत है. मीडिया एक्सपर्ट वनिता कोहली-खांडेकर मीडिया में सूचना, मनोरंजन और खेल के एक साथ समा जाने के नए चरण की बात करते हुए कहती हैं कि यहां भी वही हो सकता है जो ऑस्ट्रेलिया में देखा गया. ऑस्ट्रेलिया में स्पोर्ट्स और न्यूज डिबेट वाले टीवी चैनलों का ही प्रभुत्व है.

प्रेस की आजादी आज भारत में कई की चुनौतियों का सामना कर रही है. अगर मीडिया पूरी तरह से झुक जाती है तो इससे केवल स्वतंत्र प्रेस की अवधारणा को नहीं बल्कि नागरिकों की स्वतंत्रता को भी नुकसान होगा, जिसे एक स्वतंत्र प्रेस को बढ़ावा देना चाहिए.

इसलिए वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स पर तेजी से घटी भारत की रैंकिंग आम आदमी के लिए भी मायने रखती है, सिर्फ पेन या माइक पकड़ने वाले पत्रकारों के लिए नहीं.

(सीमा चिश्ती एक लेखिका और पत्रकार हैं. अपने दशकों लंबे करियर में बीबीसी और द इंडियन एक्सप्रेस जैसे संगठनों से जुड़ी रही हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @seemay. यह एक ओपिनियन पीस है. इससे क्विंट का सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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